बिहार चुनाव में एनडीए ने 243 विधानसभा सीटों में से 202 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया है. इसके पहले 2010 में नीतीश कुमार की जेडीयू और बीजेपी ने मिलकर 206 सीटें जीती थीं. बिहार के चुनावी इतिहास में शायद यह दूसरी सबसे बड़ी जीत है. चुनाव परिणाम को लेकर विश्लेषकों की राय अलग-अलग है. कुछ ने इसे एनडीए की बृहद सामाजिक इंजीनियरिंग की जीत बताया है तो कुछ ने इसे महिलाओं द्वारा अधिक वोट करने को वजह माना है. मुख्यमंत्री रहते हुए नीतीश कुमार ने महिलाओं को पंचायती राज संस्थाओं और सरकारी नौकरी में आरक्षण दिया. इसके अलावा चुनाव से ठीक पहले महिलाओं को स्व रोजगार के लिए दस हजार की आर्थिक सहायता देकर महिलाओं के शसक्तीकरण की दिशा में एक और कदम बढ़ाया.
जेडीयू का प्रचार अभियान
इन सभी कारणों के बीच यदि कोई एक समानता है तो वह है समावेशी राजनीति. इस समावेशी राजनीति का चेहरा नीतीश कुमार के नेतृत्व में यह चुनाव लड़ा गया. राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ताओं ने टीवी डिबेट में सवर्णों पर तीखी टिप्पण्णी जैसे मनुस्मृति जलाने आदि की बात कहीं. जिस तरह से तेजस्वी यादव को जबर्दस्ती मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए कांग्रेस पर दवाब बनाया गया, उसे देख लालू शासन काल की स्मृतियां जनता में फिर जागृत हो गईं. वहीं दूसरी तरफ जेडीयू का चुनाव अभियान संभाल रहे पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष संजय कुमार झा ने बिहार चुनाव को नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द ही रखा. इस रणनीति ने ना सिर्फ अति पिछड़े समुदाय और वंचित तबके मसलन गरीब, मुसलमान और महिलाओं को एनडीए की तरफ गोलबंद करने का काम किया बल्कि चुनाव को दो ध्रुवीय भी बना दिया.चुनाव दो ध्रुवीय होने से जनता के समक्ष मात्र दो विकल्प थे. एक तरफ राजद जो समाज के कुछ वर्गों के प्रति असंवेदनशील है और दूसरी तरफ नीतीश कुमार जिन्होंने समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की राजनीति की है. परिणाम सामने है. जनता ने जबरदस्त जनादेश देकर एनडीए को एक बार फिर से स्थापित कर दिया. लेकिन बिहार जैसे राज्य में अनेकों जाती और समुदाय आधारित राजनीतिक दलों का एक साथ चुनावी मैदान में उतरना किसी चुनौती से कम नहीं. रूलिंग पार्टी के नाते जेडीयू की यह जिम्मेदारी थी कि एनडीए के सभी दलों के बीच एक बेहतर समन्वय हो और नीतीश कुमार ने यह कार्य अपने सबसे विश्वस्त सहयोगी संजय कुमार झा को दिया.
कौन हैं संजय झा?
संजय झा मूलतः मधुबनी जिले के झंझारपुर विधानसभा के गांव अररिया संग्राम के रहने वाले हैं. उन्होंने दिल्ली विश्विद्यालय से स्नातक और जेएनयू से इतिहास में एमए किया है.संजय झा ने अपनी राजनीतिक यात्रा अपने समय के सबसे कुशल राजनीतिक रणनीतिकार अरुण जेटली के साथ शुरू की. दिवंगत पत्रकार और टेलीग्राफ के रोविंग एडिटर रहे संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब 'सिंगल मैन' में लिखा है कि बाद के दिनों में उन्होंने बीजेपी और जेडीयू के बीच सेतु का काम किया.साल 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद जेटली की सहमति से उन्होंने औपचारिक रूप से जनता दल यूनाइटेड जॉइन किया.संजय झा का जेडीयू में सफर उतार-चढ़ाव से अछूता नहीं रहा. लेकिन 2017 के बाद से संजय झा लगातार नीतीश के भरोसेमंद सहयोगी के तौर पर पार्टी में बने हुए हैं. लोकसभा चुनाव से ऐन पहले नीतीश कुमार इंडिया अलायन्स छोड़कर एनडीए का दामन थामते हैं. जानकारों का मानना है कि नीतीश के इस कदम के पीछे भी संजय झा थे.संजय झा का मानना था कि इंडिया अलायन्स में न सिर्फ नेतृत्व बल्कि कॉमन प्रोग्राम को लेकर कोई स्पष्ट रणनीति नहीं है.ऐसे में बिहार के बेहतर भविष्य के लिए एक बार फिर से नीतीश कुमार को एनडीए के साथ जाना चाहिए. नीतीश कुमार ने बिना वक्त जाया किए एनडीए का हिस्सा होकर लोकसभा चुनाव लड़ा और जबरदस्त सफलत हासिल की. यदि बीजेपी की नजरिए से देखें तो संजय झा की इस रणनीति ने बिहार से 30 सीट का फायदा दिलाया. यदि नीतीश एनडीए का हिस्सा नहीं होते तो शायद केंद्र में मोदी तीसरी दफा प्रधानमंत्री नहीं बनते. इस रणनीतिक कुशलता को देखते हुए नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद संजय झा को पार्टी का राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया.
जेडीयू के बिहार प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा के साथ संजय झा.
आलोचनाओं के बीच से निकाली राह
बिहार विधानसभा चुनाव में संजय झा के समक्ष दो बड़ी चुनौती थी. पहला तो एनडीए को बहुमत मिले और दूसरा की नीतीश के नाम पर आम सहमति बनाई जाए.जाती से ब्राह्मण होने के कारण संजय झा को न सिर्फ विपक्षी राजद बल्कि जेडीयू के अंदर से भी जातिगत आलोचना का सामना करना पड़ा. उनपर बीजेपी के एजेंट होने से लेकर नीतीश को राजनीतिक रूप से खत्म करने का आरोप भी लगता रहा. इन सभी आलोचनाओं के बीच चुनौती चुनाव में बेहतर प्रदर्शन की भी थी. संजय झा की पहली चुनौती सीट शेयरिंग की थी. एनडीए में पांच दल शामिल हैं. यह स्वाभाविक है कि सभी दल अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते थे. शुरुआती खींचतान के बाद इस चुनौती को सफलतापूर्वक सुलझा लिया गया. बीजेपी की ओर से स्पष्ट रूप से नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का चेहरा न बनाने के बाद बिहार के मतदाताओं में एक संशय का माहौल था. इस संशय को दूर किए बगैर एनडीए के लिए चुनावी राह कठिन थी. संजय झा ने अपनी कुशल रणनीति का परिचय देते हुए बिहार की जनता को विश्वास दिलाया कि अगले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे.
भारत में 1990 के बाद नई आर्थिक नीति के आगमन के बाद चुनावी प्रबंधन भी एक अलग राजनीतिक बहस का विषय है. लेकिन इतना हो तय है कि भारत में चुनाव प्रबंधन एक सच्चाई बन कर उभरा है. प्रशांत किशोर ने इसमें एक नया अध्याय जोड़ा है. चुनाव प्रबंधन के पैमाने पर भी संजय झा फिट बैठते हैं. उनका राजनीतिक करियर ही इस रणनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अरुण जेटली के साथ आरंभ हुआ. हालांकि बाद के दिनों में संजय झा ने मिथिला क्षेत्र में अनेकों जनहीत के काम किए और विकास किया.उन्हें मिथिला में 'विकास पुरुष' भी कहा जाता है.संक्षेप में कहें तो एक रणनीतिकार और पोलिटिकल मैनेजर के तौर पर की लेकिन आज अपनी पहचान राष्ट्रीय पटल पर एक सफल राजनेता के रूप में स्थापित कर ली है.
इस अप्रत्याशित बहुमत ने लोगों को एक नई उम्मीद दी है.जनता की आकांक्षा पर खरे उतरना नेतृत्व की सबसे बड़ी चुनौती रहेगी. 20 साल के शासन काल के बाद भी बिहार में इंडस्ट्री का न होना, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए बिहार से युवाओं का पलायन एक प्रमुख जन आक्रोश है.बिहार के लोगों को डबल इंजन सरकार से बहुत उम्मीदे हैं.राजनीति के इस नए चाणक्य की सबसे बड़ी चुनौती इस उम्मीद पर खरे उतरने की है.
डिस्क्लेमर: लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के आत्मा राम सनातन धर्म कॉलेज में राजनीति शास्त्र पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के नीजि हैं, एनडीटीवी का उनसे सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.













