अस्कोट- आराकोट यात्रा 2024 : घोड़ों की लीद और साड़ियों के बोझ तले घुट रहा यमुनोत्री का दम

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Himanshu Joshi

हरीश पाठक 'पहाड़' प्रकाशन के प्रबन्धक हैं, वह साल 1974 से हर दस साल में होने वाली ऐतिहासिक अस्कोट- आराकोट यात्रा के पचासवें वर्ष में भाग ले रहे हैं. हरीश कहते हैं कि यह उनकी दूसरी अस्कोट- आराकोट यात्रा है. अपनी अब तक कि लगभग 1100 किलोमीटर की यात्रा के अनुभव में पड़े यमुनोत्री पड़ाव पर बात करते हरीश कहते हैं कि यमुनोत्री हमारा धार्मिक स्थल है और वहां से यमुना नदी का उद्गम होता है. जब हम सात यात्रियों का दल, मुख्य दल से अलग यात्रा करते वहां पहुंचा तो हमने देखा कि यमुनोत्री बाजार में गंदगी भरी पड़ी है. घोड़े, यात्रियों को कंधे में ले जाते नेपालियों, यात्री वाहनों से बाजार में चलने की जगह नही थी. हरीश कहते हैं कि इसका समाधान घोड़ों के लिए एक अलग स्टैंड बना कर, वहीं से यात्रियों को बैठा कर किया जा सकता है. इसके आगे लगभग छह किलोमीटर दूर तीर्थ स्थान तक पहुंचने के लिए हम नदी के किनारे चलते हैं, तब हम देखते हैं कि उस रास्ते में घोड़ों की वजह से नदी में गिरने और चोट लगने का भय बना रहता है. मैंने घोड़ों को लीद करते देखा और उसको देख मुझे यह समझ नहीं आया कि इस गंदगी का सही निस्तारण कैसे किया जाता होगा, क्योंकि वहां उसके लिए कोई डस्टबिन या उसे अलग से इकट्ठा करने की जगह नही थी. हरीश कहते हैं कि यमुनोत्री के नजदीक पहुंच कर हमें यमुना में धोती, साड़ियां दिखती हैं और थोड़ा आगे चलते यमुना के हिस्सों में इनका ढेर भी नजर आता है. वहां स्थानीय लोगों से पूछने पर पता चला कि पहले यह कपड़े नदी में नहीं फेंकी जाती थी, कुछ सालों पहले ही इसकी शुरुआत हुई है. हरीश कहते हैं उन कपड़ों को नदी में फेंकना ही है तो यमुनोत्री मंदिर के रखरखाव करने वालों द्वारा इसका निस्तारण किया जाना चाहिए.


साल 1991 से अब बहुत बदल गई है यमुना

मनमोहन चिलवाल रिटायर्ड बैंक कर्मी हैं और नैनीताल में रहते हैं. मनमोहन ने इससे पहले दो बार यात्रा में आंशिक तौर पर हिस्सा लिया था लेकिन इस बार वह पहली बार पूरी यात्रा में शामिल हो रहे हैं. यमुनोत्री पहुंचने के लिए उन्होंने दल के अन्य छह सदस्यों के साथ उत्तरकाशी से असी गंगा घाटी, डोडीताल, दरवा टॉप, सीमा बुग्याल, हनुमान चट्टी का रास्ता चुना. अगोड़ा गांव से यमुनोत्री तक यह पैदल रास्ता करीब 51 किलोमीटर है. मनमोहन कहते हैं इसमें उन्होंने 3800 मीटर की अधिकतम ऊंचाई को भी पार किया. सुबह 8 बजे अगोड़ा से शुरू हुआ यह रास्ता बुग्याल का रास्ता था, बुग्याल में ऊंचे नीचे रास्ते होते हैं और यह घास से भरे होते हैं. इनमें विभिन्न प्रकार के फूल भी थे, जैसे पोटेंटिला, स्नेक लिली, ब्रह्म कमल, अतीस, सफेद बुरांश, प्रिमुला आदि थे.

मनमोहन कहते हैं कि इस रास्ते मे हम घने कोहरे की वजह से कई बार भटके और कभी- कभी तो कोहरा इतना घना था कि वह अपने से 20 मीटर की दूरी पर खड़े साथी को भी नही देख पा रहे थे. ढाई घण्टे रास्ता भटकने के बाद उन्होंने सही रास्ता देखा. आगे वह कहते हैं कि अब तेज़ चलते हुए उनका दल रात करीब 9 बजे हनुमान चट्टी पहुंचा. वहां एक ढाबे में रात्रि विश्राम करने के बाद सुबह 8 बजे वह यमुनोत्री के लिए रवाना हुए, करीब 10 बजे यमुनोत्री पहुँचने पर उन्होंने देखा कि बाजार का कचरा नदी में फेंका जा रहा था, साथ ही सफाई कमर्चारी घोड़े की लीद भी नदी में ही झाड़ रहे थे. यही पानी आगे चलकर यमुना की मुख्यधारा में शामिल होता है और कई राज्य यही पानी पीते हैं. अपनी बात आगे बढ़ाते मनमोहन कहते हैं कि साल 1991 में जब वह पहली बार यमुनोत्री गए थे, तब नदी का पानी बहुत साफ था. अब उन्होंने एक नई बात वहां यह देखी कि महिलाओं की साड़ी, धोती भी नदी में प्रभावित की जा रही थी, जिसकी वजह से यमुनोत्री के स्रोत पर ही इन कपड़ों का बड़ा ढेर लग गया था.

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हर्ष काफर ने कहा जो सक्षम उनके लिए घोड़ा क्यों!

उत्तराखंड में युवाओं के बीच सोशल मीडिया पर खासे लोकप्रिय हर्ष काफर भी इस साल अस्कोट- आराकोट यात्रा में हिस्सा ले रहे हैं. यात्रा में चलते हुए वह अपने अनुभवों को सोशल मीडिया पर साझा भी कर रहे हैं. उन्होंने फेसबुक पर इसी मुद्दे को लेकर पोस्ट करते लिखा-

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 'यमुनोत्री में नहाने के बाद 
अपनी साड़ियाँ चढ़ा देती है नारी
मुझे बस ये जानना है
ये परंपरा कहाँ से शुरू हुई प्यारी.
#Yamunotri #uttarakhand
 https://www.facebook.com/share/p/4cTPFnqk1JKn4vKw/?mibextid=oFDknk

इस विषय पर हमने पहली बार यह यात्रा कर रहे हर्ष काफर से बातचीत की, वह कहते हैं कि हनुमानचट्टी से जानकी चट्टी की तरफ जाने के बाद यमुनोत्री का ट्रैक शुरू होता है. वहां खाने की, घोड़ों की लीद की बदबू आ रही थी. आगे बात करते हर्ष कहते हैं कि सिर्फ असहाय लोगों को ही घोड़ा मिलना चाहिए. जानकी चट्टी से यमुनोत्री लगभग 5 से 6 किलोमीटर ही होगा इसलिए जो चल सकते हैं ऐसे सक्षम लोगों के लिए घोड़ा नहीं चलवाया जाना चाहिए. घोड़ों के अनियंत्रित तरीके से चलने की वजह से पैदल यात्रियों को बड़ा खतरा रहता है. इसके साथ ही साड़ियों को नदी में फेंकने के नए चलन पर भी वह सवाल उठाते हैं.

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(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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