This Article is From Apr 13, 2024

मेडिकल कॉलेजों में हिंदी माध्यम से पढ़ाई की जरूरत क्यों है, इसकी चुनौतियां क्या हैं?

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Amaresh Saurabh

खबर है कि मध्य प्रदेश के बाद अब बिहार में भी मेडिकल की पढ़ाई हिंदी माध्यम से करवाने की कवायद शुरू हो चुकी है.हिंदीभाषी क्षेत्र के लाखों स्टूडेंट हर साल डॉक्टर बनने  का सपना संजोए एंट्रेंस टेस्ट में बैठते हैं.ऐसे में इस पूरे मसले पर गंभीरता से चर्चा जरूरी हो जाती है.

अब तक क्या हुआ?
मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में कराए जाने की पहल का क्रेडिट मध्य प्रदेश पहले ही ले चुका है.अक्टूबर, 2022 में भोपाल में एमबीबीएस कोर्स की हिंदी माध्यम में लिखी तीन किताबें लॉन्च की गईं. इस तरह, मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य बना, जहां एमबीबीएस के छात्रों के लिए हिंदी भाषा में पढ़ाई का रास्ता साफ हो सका. हालांकि अभी सफर लंबा है.

पिछले साल नवंबर में उत्तर प्रदेश से भी ऐसी खबर आई कि वहां के मेडिकल कॉलेजों में हिंदी में पढ़ाई का इंतजाम करने का आदेश दिया गया है.अब बिहार इसी दिशा में बढ़ रहा है. इन सबके पीछे मूल भावना यह है कि अपनी मातृभाषा में पढ़ाई करने से हर क्षेत्र में नई-नई प्रतिभाओं को उभरने का मौका मिल सकेगा.

नई नीति, नए अवसर
दरअसल, हाल के इस तरह की पहल के पीछे है- नई शिक्षा नीति. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में कहा गया है कि छात्रों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में दिलाई जाए. इसमें उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा अंग्रेजी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं में भी मुहैया कराए जाने की बात कही गई है. ऐसे में मेडिकल के कोर्स को हिंदी में ढालने का काम शुरू हो रहा है. मकसद यही है कि इससे पूरी हिंदी-पट्टी और ग्रामीण बैकग्राउंड से आने वाले छात्रों के लिए अवसर के नए दरवाजे खुल सकेंगे.

छात्रों के बीच मेडिकल लाइन का क्रेज कितना बढ़ चुका है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस साल NEET UG कोर्स के लिए करीब 25 लाख फॉर्म भरे जा चुके हैं. पिछले साल यह संख्या करीब 21 लाख थी.

किस तरह होगा फायदा?
मेडिकल की किताबें हिंदी में आ जाने से उन छात्रों का हौसला बढ़ेगा, जिन्हें अंग्रेजी माध्यम की किताबें बोझ जैसी लगती हैं. कई छात्र ऐसे होते हैं, जिन्हें सब्जेक्ट मैटर समझने में कोई दिक्कत नहीं होती. इन्हें बस अंग्रेजी में लिखे भारी-भरकम मेडिकल टर्म और घुमावदार लाइनों से दिक्कत होती है. अगर मेडिकल टर्म या शरीर के अंगों के प्रचलित नामों को जस का तस छोड़ दिया जाए और बाकी बातों को हिंदी में समझाकर लिख दिया जाए, तो कई छात्रों को फायदा हो सकता है.

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योजना भी यही है कि अंग्रेजी में लिखी किताबों का पूरा का पूरा हिंदी में अनुवाद नहीं किया जाएगा. ऐसा नहीं होगा कि लिवर को 'यकृत', किडनी को 'गुर्दा', लंग को 'फेफड़ा' या 'फुफ्फुस', एनीमिया को 'रक्ताल्पता', मेटाबॉलिज्म को 'उपापचय' लिखा जाएगा. अगर ऐसा लिखा जाने लगा, तो चीजें सुलझने की जगह और उलझती चली जाएंगी. इसलिए हर किसी की जुबान पर चढ़ चुके अंग्रेजी शब्दों को उसी रूप में लिखा जाएगा, बस उसकी लिपि देवनागरी कर दी जाएगी. जहां कहीं भी जरूरी होगा, ब्रैकेट में अंग्रेजी के शब्द रोमन लिपि में भी लिखे होंगे.

जरूरत इस बात की है कि अंग्रेजी मीडियम की जानदार किताबों का हिंदी अनुवाद भी शानदार तरीके से किया जाए. केवल मशीनी ट्रांसलेशन से फायदा कम, नुकसान ज्यादा होगा. मुमकिन है कि अपनी भाषा में पढ़ने-लिखने और बोलने का मौका मिलने पर मेडिकल के छात्रों पर मानसिक दबाव भी काफी कम हो जाए. कई छात्रों को तो केवल अंग्रेजी की दिक्कत की वजह से कोर्स को बीच में छोड़ना पड़ जाता है.

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तर्क यह भी है कि दुनिया के कई देशों में पहले से ही मेडिकल की पढ़ाई वहां की मातृभाषा में कराई जा रही है. इनमें जापान, चीन, रूस, फ्रांस, किर्गिस्तान, फिलीपींस जैसे देशों के नाम गिनाए जा रहे हैं.

एक संभावित फायदा यह है कि हिंदी माध्यम से पढ़े-लिखे डॉक्टर हिंदी पट्टी के ग्रामीण इलाकों के मरीजों से भी अच्छी तरह जुड़ाव महसूस कर सकेंगे. उनकी बातें ठीक से समझेंगे, तकलीफ ठीक से समझेंगे, तो इलाज करने में भी आसानी हो जाएगी.

चुनौतियां भी कम नहीं
यह तय है कि देश ने एक बड़ा और क्रांतिकारी कदम उठाया है. लेकिन रातोंरात पूरा सीन बदलने की उम्मीद नहीं की जा सकती. अभी एवरेस्ट पर चढ़ने का इरादा किया गया है, शुरुआती कदम उठाए गए हैं, लेकिन आगे आने वाली चुनौतियों से पार पाना बाकी है.

इस ब्लॉग को लिखने से पहले इस मसले पर कुछ डॉक्टरों की राय ली गई. उनमें से ज्यादातर ने इस काम में आने वाली चुनौतियों की ओर इशारा किया है. सबसे बड़ी चिंता यह है कि हिंदी माध्यम से पढ़ाई करने वाला डॉक्टर कहीं 'लोकलाइज्ड' होकर न रह जाए.

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जिस तरह एमबीबीएस के लिए एंट्रेंस टेस्ट पास करना होता है, उसी तरह पीजी कोर्स के लिए भी भारी-भरकम परीक्षा पास करनी होती है. देशभर में पीजी कोर्स के लिए सीटें भी सीमित ही हैं. ऐसे में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस करने वाले को अगर दक्षिण भारत के किसी कॉलेज में दाखिला लेना पड़ गया, तो उनकी आगे की पढ़ाई किस भाषा में होगी? हिंदी, अंग्रेजी, कन्नड़, तमिल, मलयालम या कुछ और? दक्षिण के राज्य पहले से ही आरोप लगाते रहे हैं कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है.

हिंदी मीडियम से पढ़े डॉक्टर एमबीबीएस की पढ़ाई के बाद फेलोशिप, रिसर्च या नौकरी के लिए विदेश कैसे जा सकेंगे? आशंका यह है कि कहीं हिंदी उन्हें एक खास भौगोलिक सीमा में बांध न दे.

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जो अंग्रेजी के पक्ष में हैं, उनका भी अपना तर्क है. इनका कहना है कि अभी मेडिकल का सिलेबस पूरी दुनिया में एक जैसा है, क्योंकि मानव शरीर की रचना एक जैसी ही है. इस वजह से इसका मीडियम भी सबके लिए अंग्रेजी ही रहे, तो पूरी दुनिया को सहूलियत होगी.

हिंदी मीडियम वाले डॉक्टर को किसी विदेशी एक्सपर्ट के सेमिनार में जाकर नई चीजों को सुनने-समझने में कठिनाई होगी. यह समस्या तभी दूर होगी, जब हिंदी मीडियम वाले खुद ही एक्सपर्ट न बन जाएं.

सबसे बड़ी बात कि पूरा मेडिकल सेक्टर बड़ी तेजी से बदल रहा है. हर रोज नई-नई रिसर्च, नई-नई जानकारियां सामने आ रही हैं. हाई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है और पूरा सिस्टम तेजी से अपडेट हो रहा है. ये सब कुछ 'ग्लोबल लैंग्वेज' अंग्रेजी में हो रहा है. ऐसे में हिंदी मीडियम वालों से बड़ी हिम्मत और सब्र रखे जाने की दरकार होगी.

कुल मिलाकर, बात वही है. हर नई चीज को अपनाने में शुरू-शुरू में दिक्कत होती है. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हारकर हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाया जाए. दुनिया देख चुकी है कि पहली बार एवरेस्ट पर फतह करने वालों को किन-किन मुसीबतों से जूझना पड़ा. आगे चलकर एवरेस्ट पर पर्वतारोहियों की आवाजाही इतनी बढ़ गई कि कई टीमों को तो वहां सिर्फ कचरा बीनने के लिए भेजना पड़ा! मतलब हिंदी मीडियम वालों को अपने कदम मजबूती से टिकाए रखने की जरूरत है. 

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