बात राजनीति में चंदे की. पिछले कुछ दिनों से इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर हो हंगामा हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पुराना सिस्टम खत्म हो जाएगा. अब कॉरपोरेट चंदा या तो पहले जैसे आने लगेगा या फिर आने वाली नई सरकार कोई कदम उठाएगी. कोर्ट के आदेश के बाद ऐसा माहौल बनाया गया है, जिससे लगता है कि चंदा कोई 'गंदा धंधा' है. कोई भी राजनीतिक दल या सामाजिक संस्था चंदे के बिना नहीं चल सकती ये हकीकत है. इसको सनसनीखेज बनाने से काम नहीं चलेगा. चंदा तो आजादी के पहले राजनीतिक दल खुलकर लेते थे. कौन कितना पैसा देता था तब भी ये पहेली थी और बाद में भी बनी रही. बड़े उद्योगपति बिड़ला अपने बंगले पर जब आवभगत करते थे तो वो भी चंदे का एक रूप था. वो वक्त अलग था और मकसद आजादी था. लेकिन बड़ा सवाल तब भी था कि क्या बिना चंदा काम चल सकता था?
चंदे ने आजादी के बाद अपने कई रूप बदले. नेता उद्योगपतियों के पास जाते रहते थे. इसकी नींव तो कांग्रेस पहले ही डाल चुकी थी. कांग्रेस को तब के सूती मिल वाले उद्योगपति चंदा देते थे. बदले में क्या-क्या मिलता था उस पर कोई रिसर्च नहीं हुई. चंदा पैसे वालों के जीवन का हिस्सा है. कई बार वो किसी नेता से प्रभावित होकर रसीद कटवाते थे, कई बार मामला विचारधारा का होता था. कई बार मसला नेताओं की नीतियों से नाराजगी या उनके साथ खड़े होने का होता था. पहले चंदा कैश में आया. फिर उसने चुनावी ट्रस्ट का रूप लिया. जब तक कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी तब तक उसका चंदे पर एकछत्र राज था. एक वर्ग ऐसा भी था जो कांग्रेस की नीतियों से नाराज था. उस वक्त के राजे रजवाड़े तब कांग्रेस के विरोधी जनसंघ और दूसरे दलों को पैसा देते थे. हिसाब-किताब तो तब भी नहीं था कि किसने कितना दिया. फिर एक दौर ऐसा आया जब कांग्रेस विरोधियों को राजनीतिक तौर पर कमजोर करने के लिये चंदे को निशाना बनाया गया. जो चंदा देते थे उन्हें बदनाम किया गया. उनके मकसद पर सवाल उठाए गये. यहीं से नींव पड़ती है चंदा देने वालों के डर की. पैसे देने वाला डरने लगा कि सरकार किसी और की बनी तो कौन दुश्मनी पालेगा... तो बेहतर है कि रात के अंधेरे में चंदा दिया जाए. चंदे के पैसे को गुप्त रखना भी बड़ा सिरदर्द बनने लगा क्योंकि चुनाव में उम्मीदवार और पार्टियां बढ़ने लगी. एक बड़े उद्योगपति से जब चंदे पर सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब दिया था - पैसे वालों को लोकतंत्र के सभी दियों में तेल डालना पड़ता है. ये उस उद्योगपति की मज़बूरी भी थी और दुनियादारी की सच्चाई भी. बड़े उद्योग घराने सब को साथ लेकर चलने में यकीन करते हैं. राजनीतिक दल उनसे उम्मीद करते हैं कि वो पैसा देंगे. कई बार तो चंदा, उगाही के स्तर तक पहुंच जाता है. इस चंदा वसूली में कोई ऐसा नहीं है जिसके हाथ काले न हो. उद्योगपतियों की बात एक तरफ रख दें तो आप को स्थानीय चुनाव में ऐसे कई व्यापारी मिल जाएंगे जो चुनाव के ऐलान के साथ ही छुट्टी पर निकल जाते हैं. स्थानीय चुनाव में चंदे को लेकर जो होता है वो कई बार कल्पना के बाहर होता है. जिन लोगों ने चंदा नहीं दिया उनकी जीत के बाद शामत आती थी. चंदा वफादारी साबित करने के हथियार में बदल गया.
चुनावी चंदे में बाद में ट्रस्ट आए. ये थोड़ा बेहतर विकल्प थे. कई बिजनेस हाऊस ने फैसला लिया कि वो सबको राजनीतिक ताकत के हिसाब से पैसा देंगे. लेकिन इसमें कोई पैमाना नहीं लगाया जा सका. यहां भी सवाल उसी सीक्रेसी का था जिससे सबसे ज्यादा डर उद्योग घरानों को लगता है. कोई उद्योग घराना ये नहीं बताना चाहता कि उसने पक्ष या विपक्ष को कितना पैसा दिया. इसके बाद कहानी शुरू होती है बॉन्ड की. बॉन्ड में भी नाम गुप्त रखने का मामला था. जो दीवार आजादी के पहले बन चुकी थी उसको तोड़ने का काम 2024 में हुआ है. कई देशों में चंदा बड़ी परेशानी थी. और इसको लेकर जितने भी प्रावधान किये गये हैं वो सब नाकाम रहे हैं. या तो वो कायदे राजनीतिक दल को रास नहीं आते या फिर उन्हें कॉरपोरेट घराने और चंदे देने वाले पसंद नहीं करते. अमेरिका में बड़े कॉरपोरेट घराने और नेशनल बैंक किसी उम्मीदवार को सीधे फंड नहीं दे सकते. ना ही उसके कैंपेन में खर्चा कर सकते. 1907 में ये कानून बना. लेकिन इसका तोड़ भी निकाल लिया गया. एडवोकेसी के नाम पर संस्थाओं को चंदा मिलने लगा और ये पैसा बाद में चुनाव में पहुंच गया. एक तोड़ ये भी निकाला गया कि किसी एजेंडे पर विज्ञापन निकाले गये और फिर उसके प्रचार प्रसार में कॉरपोरेट घरानों ने पैसा लगाया. ये सब उतना सीधा-सीधा हिसाब किताब नहीं है जितना दिखता है. अमेरिका में तो कई कॉरपोरेट घराने खुल कर किसी विचारधारा के साथ होते हैं. भारत में ये मुमकिन नहीं है. अमेरिका में किसी और तरीके से चुनावी फंडिंग रोकने के लिये भी नया कानून बना और अब उस पर अमल किया जा रहा है. लेकिन चंदे को लेकर ये उपाय भी कितने टिकाऊ हैं इसको लेकर बहस चल रही है. ब्रिटेन में भी चुनावी चंदा एक बड़ा फंदा है. वहां के कानून बड़े पैसे को सीधे चुनाव में इस्तेमाल नहीं होने देना चाहते. कानून में प्रावधान हैं कि शेयर होल्डर्स की सहमति के बिना कंपनियां फंडिंग नहीं कर सकती. फ्रांस में 1980 तक चंदे के कानून में कई पेंच थे. जिसका ज्यादातर फायदा वहां के नेता उठा रहे थे. अब वहां भी कॉरपोरेट घराने चुनाव में सीधे पैसा नहीं दे सकते. फ्रांस ने चुनावी चंदे को लेकर कुछ सख्त कदम उठाए हैं जिससे अब बडे़ सुधार हुये हैं.
भारत में चुनावी चंदे को सुधारने की कोशिश हो रही हैं. बढ़ते चुनावी खर्च की चिंता सिर्फ पार्टियों को ही नहीं, कारपोरेट घरानों को भी है. बॉन्ड स्कीम में कई पेंच हैं, उन पेंच को आने वाले वक्त में सुधारा जा सकता है. बॉन्ड ने कैश की जरूरत को कम किया था. लेकिन उसने जानने के अधिकार को कमजोर कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने जो भी एतराज जताए हैं उन पर एक बड़ी बहस की जरूरत है. एक लोकतांत्रिक देश ये नहीं कर सकता कि एक तरफ बॉन्ड को खत्म कर दें और दूसरी कोई व्यवस्था ही न बनाए. काले धन के चुनाव में रोक को लेकर लगातार काम होता रहेगा. चुनाव में खर्च और राजनीतिक दलों की बड़े चंदों पर निर्भरता को खत्म करने का वक्त आ गया है.
अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...
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