नींद, स्कूल, टाइम और हम..., छिड़ी नई बहस

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Abhishek Sharma

महाराष्ट्र (Maharashtra School) में स्कूल, सरकार और अभिभावक सब पशोपेश में हैं. कारण है राज्य के शिक्षा विभाग का वो सर्कुलर जो कह रहा है कि कक्षा 4 तक स्कूल सुबह 9 बजे से लगेंगे. शिक्षा विभाग को ये आइडिया आया है राज्यपाल रमेश बैंस के भाषण से. राज्यपाल ने चिंता जताई थी कि छोटे स्कूली बच्चों की नींद पूरी नहीं हो रही है. लिहाजा उन्हें लेट स्कूल जाना चाहिए. राज्यपाल की बात में संवेदना है, लेकिन ऐसा लगता है इस भाषण ने नई बहस छेड़ दी है.

एक पक्ष स्कूल का है, जो कह रहे हैं कि नींद जरूरी है. क्लास 4 तक के बच्चों को वैसे भी 10 घंटे सोना चाहिए. सोना मानसिक विकास और स्कूल के लिए जरूरी है. स्कूल भी शिकायत कर रहे हैं बच्चे बस में सोते हुए आते हैं. स्कूल में भी ऊंघते हैं. स्कूल कह रहे हैं कि माता पिता ध्यान नहीं दे रहे. जानकार कह रहे हैं कि बच्चों की नींद पूरा न होना चिंता का विषय है. लम्बे वक्त तक स्क्रीन टाइम और लेट नाइट कल्चर ने बच्चों की नींद खराब कर दी है. स्कूल कह रहे हैं कि माता-पिता की गलती का नुकसान सबको उठाना पड़ रहा है. स्कूल के अपने तर्क हैं कि सुबह की क्लास से बच्चों को मुंबई जैसे शहर में कम ट्रैफिक का सामना करना पड़ता है. शोर कम होता है और प्रदूषण की मार भी कम होती है. टीचर्स के लिए भी ये वक्त सही होता है. दोपहर तक वो क्लास कि जिम्मेदारी पूरी करके प्रशासनिक काम कर पाते हैं. बस ऑपरेटर्स भी कह रहे हैं कि मौजूदा स्कूल टाइम में जाम का सामना कम है. 

एक दूसरा पक्ष माता-पिता का भी है. ज्यादातर कामकाजी मां-बाप अपनी परेशानी गिना रहे हैं. कह रहे हैं कि मेट्रो लाइफ में ऑफिस से घर पहुंचना आसान काम नहीं है. अगर मां-बाप दोनों कामकाजी हैं तो लेट डिनर आम बात है. इसके चलते बच्चे देर तक जाग रहे हैं. ऑफिस का काम अब लोगों के घर आ रहा है, जो पूरे घर की टाइम लाइन को ऊपर नीचे कर रहा है. अभिभावक कह रहे हैं कि स्कूल, बस की फीस अब इतनी है कि दो लोगों के काम किए बगैर गुजारा नहीं है. वो बदलते समाज का हवाला भी दे रहे हैं. बता रहे हैं कि लोगों से मिलने-जुलने का वक्त भी अब रात का ही है. कामकाजी माएं कह रही हैं कि उनके पास सिर्फ एक ही वक्त है, जब वो बच्चों को जल्दी स्कूल भेज सकती हैं. वैसे भी कामकाजी महिलाएं घर की जिम्मेदारियों के चलते दोहरी मार झेल रही हैं. उनकी नींद तो पहले से ही हवा है. माता-पिता एक ऐसा सिस्टम ही नहीं बना पा रहे जहां बच्चों की नींद को पहली प्राथमिकता मिले. कम उम्र, ज्यादा नींद गोल्डन रूल कहा जाता है. अगर ये नहीं हो रहा है तो इसका मतलब है बच्चों की तबीयत को लेकर बड़े अंदेशे हो सकते हैं.

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एक तीसरा पक्ष बस ऑपरेटर्स का है. वो कह रहे हैं कि अगर छोटे बच्चों के स्कूल का वक्त बदला तो उन्हें 25 फीसदी ज्यादा लागत आएगी. ट्रैफिक जाम के चलते पेट्रोल-डीजल ज्यादा लगेगा. इसकी लागत अभिवावकों पर ही आएगी. बस ऑपरेटर अपने बिजनेस मॉडल का हवाला भी दे रहे हैं. उनकी जो बस सुबह स्कूल लाने ले जाने में लगती है वो दोपहर बाद ऑफिस से वापसी के लिए भी इस्तेमाल होती है. या किसी और काम में लगती हैं. ऑपरेटर कह रहे हैं कि सुबह 9 का वक्त ऐसा है, जब इस शिफ्ट में उनकी बस सिर्फ एक ही काम की लगेगी.

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बड़ा सवाल है कि राज्यपाल के भाषण ने जो बहस छेड़ी है उससे हल क्या निकलेगा? तीनों पक्षों की अपनी अपनी मुश्किलें हैं और कुछ जिम्मेदारी सरकार के हिस्से की भी हैं. जो वो नजरंदाज करती आ रही है. बस स्कूल से लंबी दूरी बच्चे इसलिए भी तय कर रहे हैं क्योंकि स्कूल में एडमिशन एक बड़ा सरदर्द है. आप जिस इलाके में रहते हैं उस इलाके का स्कूल या तो दाखिला नहीं देगा, या ये भी मुमकिन है कि वो आपकी पहुंच से दूर हो. ऐसे में मां बाप को वो स्कूल चुनने पड़ते हैं जो दूर हैं. एक व्यावहारिक समस्या ये भी है कि स्कूल को लेकर अभिभावकों की अपनी अपनी पसंद और नापसंद है. अमेरिका और कई यूरोपीय देशों में पिन कोड सिस्टम अभिभावक और स्कूल दोनों पर लागू होता है, यानी की माता-पिता जिस इलाके में रहते हैं वहीं के पिन कोड वाले स्कूलों में एडमिशन मिलेगा. स्कूल इसमें किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते. ये व्यवस्था बच्चों को लंबी दूरी से बचाती है. क्या हमारा शिक्षा विभाग इसके लिए सिस्टम बना सकता है? क्या इसे सख्ती से लागू किया जा सकता है? क्या स्कूल इस बात के लिए तैयार किए जा सकते हैं कि नींद को लेकर वो परिजनों से बात करें? कुछ टाइम टेबल का हिसाब किताब तो माता-पिता को भी करना ही होगा. एक समाज के तौर पर क्या हम पहली प्राथमिकता छोटे बच्चों की नींद को दे सकते हैं? आज की कच्ची नींद कल के लिए बड़ी समस्या बन जाएगी, क्या ये सवाल हमें सब से नहीं पूछना चाहिए?

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अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...

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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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