बिहार के 38 जिलों का वोटिंग प्रतिशत समझिए, कहां धड़का लोकतंत्र और कहां सांसें थम गईं?

राजनीतिक दलों के लिए यह परिणाम केवल जीत या हार का नहीं, बल्कि चेतावनी का संकेत है. अब केवल नारों, जातीय गणितों या भावनात्मक भाषणों से नागरिक नहीं जीता जा सकता. मतदाता अब “इमोशनल इकोनॉमी” समझता है जहां राजनीति का मूल्य उसके अनुभव और परिणामों से तय होता है.

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बिहार के 38 जिलों के वोटिंग का हाल जानें.
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  • बिहार चुनाव में औसत मतदान दर 66.91 प्रतिशत रहा, जिसमें सीमांचल के जिलों में सबसे अधिक उत्साह दिखा.
  • एक तरफ सीमांचल के जिलों में उमड़ा जोश और दूसरी ओर राजधानी पटना की खामोशी देखी गई.
  • पटना, शेखपुरा और भोजपुर में मतदाता उदासीनता और राजनीतिक असंतोष के कारण मतदान दर काफी कम रहा.
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हर लोकतंत्र की आत्मा मतदाता की उंगली पर लगने वाली स्याही में बसती है. बिहार ने एक बार फिर यह साबित किया कि भारत की लोकतांत्रिक चेतना अब भी जीवित है, पर असमान रूप से धड़क रही है. राज्य का औसत मतदान इस बार 66.91 प्रतिशत रहा. आंकड़ों में यह एक स्वस्थ सहभागिता का संकेत लग सकता है, लेकिन जब इन अंकों को 38 जिलों के भूगोल पर फैलाया जाए, तो एक असहज तस्वीर उभरती है. एक तरफ सीमांचल के जिलों में उमड़ा जोश और दूसरी ओर राजधानी पटना की खामोशी. यह चुनाव केवल राजनीतिक प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि विश्वास और असंतोष के बीच की दूरी का मानचित्र बन गया.

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राज्य के औसत से अधिक मतदान दर्ज करने वाले 14 ज़िलों में प्रमुख रूप से पूर्वी सीमांचल और उत्तरी चंपारण क्षेत्र शामिल हैं, जिन्होंने लोकतंत्र के प्रति अपना प्रचंड उत्साह दिखाया. किशनगंज (76.26%), कटिहार (75.23%), और पूर्णिया (73.79%) ने न केवल राज्य को नेतृत्व दिया, बल्कि यह भी स्थापित किया कि क्षेत्रीय और पहचान की राजनीति वाले क्षेत्रों में मतदान सबसे अधिक होता है. सुपौल (70.69%), पूर्वी चंपारण (69.31%), और पश्चिमी चंपारण (69.02%) में भी 70% के करीब भागीदारी दर्ज की गई. मध्य बिहार के कुछ ज़िलों जैसे बांका (68.91%), जमुई (67.81%), गया (67.50%), और अररिया (67.79%) ने भी औसत से ऊपर की भागीदारी सुनिश्चित की. इसके अतिरिक्त, शिवहर (67.31%), कैमूर (भभुआ) (67.22%), बेगूसराय (67.32%), और समस्तीपुर (66.65%) ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया, हालांकि समस्तीपुर (66.65%) 66.91% के औसत से मामूली रूप से कम होने के बावजूद उत्साह के ऊपरी बैंड में है.

कम भागीदारी वाले 24 ज़िले

इसके विपरीत, 24 ज़िलों में राज्य के औसत से कम भागीदारी दर्ज हुई, जो गहन उदासीनता और असंतोष का संकेत है. शेखपुरा (52.36%) और भोजपुर (53.24%) में सबसे कम मतदान हुआ, जो एक गंभीर लोकतांत्रिक चिंता है. शहरी और राजधानी क्षेत्र भी पीछे रहे: पटना (55.02%), मुंगेर (54.90%), बक्सर (55.10%) में भागीदारी बेहद कम रही, जो शहरी उदासीनता को उजागर करता है. अन्य महत्वपूर्ण ज़िलों में नालंदा (57.58%), सीवान (57.41%), नवादा (57.11%), और दरभंगा (58.38%) शामिल हैं, जहाँ मतदान 60% के आंकड़े के आसपास सिमट गया. 60% और औसत 66.91% के बीच भागीदारी दर्ज करने वाले ज़िलों की एक लंबी सूची है, जिसमें रोहतास (60.69%), सारण (60.90%), खगड़िया (60.65%), मधुबनी (61.79%), सहरसा (62.65%), लखीसराय (62.76%), अरवल (63.06%), औरंगाबाद (64.48%), जहानाबाद (64.36%), गोपालगंज (64.96%), मुजफ्फरपुर (65.23%), सीतामढ़ी (65.29%), मधेपुरा (65.74%), और भागलपुर (66.03%) जैसे जिले शामिल हैं. यह व्यापक कम भागीदारी मुख्य रूप से व्यवस्था के प्रति विश्वास की कमी, प्रवासी श्रमिकों की अनुपस्थिति, और राजनीतिक दलों की प्रभावी लामबंदी में विफलता को दर्शाती है.

सीमांचल में वोटिंग को लेकर दिखा उत्साह

पूर्वी बिहार का सीमांचल इस बार लोकतंत्र का धड़कता दिल बनकर उभरा. किशनगंज (76.26%), कटिहार (75.23%), और पूर्णिया (73.79%) में मतदान का जो उत्साह देखा गया, वह केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक था. यह वे इलाके हैं जहां नागरिकों के मुद्दे अब भी जीवित हैं, रोज़गार, बाढ़ नियंत्रण, शिक्षा और सुरक्षा. यहाँ के मतदाता जानते हैं कि वोट उनका एकमात्र हथियार है, और उन्होंने उसका प्रयोग उम्मीद की लौ जलाने के लिए किया. सीमांचल की गलियों में बूथों पर लंबी कतारें थीं; महिलाएं बच्चों को गोद में लेकर वोट देने पहुंची थीं. युवाओं के चेहरों पर यह विश्वास था कि उनका एक वोट, आने वाले पांच साल की दिशा तय करेगा.

इन जिलों में भी वोटर्स ने किया जमकर मतदान

यह उत्साह केवल सीमांचल तक सीमित नहीं रहा. सुपौल (70.69%), पूर्वी चंपारण (69.31%), और पश्चिमी चंपारण (69.02%) जैसे जिलों ने दिखाया कि लोकतंत्र तब सबसे जीवित होता है, जब राजनीति स्थानीय मुद्दों से जुड़ी रहती है. बांका (68.91%), जमुई (67.81%), गया (67.50%), और अररिया (67.79%) ने भी औसत से ऊपर मतदान दर्ज किया, जो यह संकेत देता है कि मतदाता बदलाव या पुनः समर्थन, दोनों ही भावनाओं से प्रेरित थे. वहीं शिवहर (67.31%), कैमूर (67.22%), बेगूसराय (67.32%), और समस्तीपुर (66.65%) में भी वोटरों ने लोकतांत्रिक जिम्मेदारी निभाई. राजनीतिक विश्लेषक डॉ. प्रिया वर्मा कहती हैं,“जहां जनता उम्मीद से मतदान केंद्र जाती है, वहां लोकतंत्र की सबसे गहरी जड़ें होती हैं. सीमांचल ने यही साबित किया कि नागरिक चेतना, लोकतंत्र की सबसे स्थायी शक्ति है.”

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शेखपुरा और भोजपुर में मतदान पर खामोशी क्यों?

लेकिन जब राज्य के मानचित्र को पलटा जाए, तो एक और सच्चाई सामने आती है खामोशी की. बिहार के मध्य और पश्चिमी हिस्सों में लोकतंत्र की यह ऊर्जा मद्धम पड़ गई. 24 जिलों ने औसत से कम मतदान दर्ज किया, और यह केवल राजनीतिक असंतोष नहीं, बल्कि विश्वास के क्षरण की कहानी है. शेखपुरा (52.36%) और भोजपुर (53.24%) में रिकॉर्ड न्यूनतम मतदान हुआ. राजधानी पटना (55.02%) ने भी निराश किया यह वही शहर है जहां सबसे अधिक पढ़े-लिखे, डिजिटल रूप से सक्रिय और राजनीतिक रूप से मुखर नागरिक रहते हैं, पर वोट डालने के प्राथमिक कर्तव्य में वे सबसे पीछे रहे.। यही विडंबना भारत के शहरी लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी है: वो बोलता ज़्यादा है, भाग लेता कम है.

मुंगेर (54.90%) और बक्सर (55.10%) जैसे जिलों में भी मतदाता मतदान केंद्र तक नहीं पहुंचे. गांवों में चुनाव अब एक उत्सव नहीं रहा, बल्कि एक औपचारिकता बन गया है. नालंदा (57.58%), सीवान (57.41%), नवादा (57.11%), और दरभंगा (58.38%) में भी यही झिझक दिखी. जब नागरिक यह मान लेता है कि “वोट डालने से क्या फर्क पड़ता है,” तब लोकतंत्र अपनी सबसे कमजोर अवस्था में होता है. एक किसान ने रोहतास (60.69%) में कहा, “हर चुनाव में वही वादे दोहराए जाते हैं, पर खेत में पानी अब भी नहीं पहुंचता.” यह वाक्य केवल एक जिले की हकीकत नहीं, बल्कि 24 जिलों की साझा भावना है जहाँं स्याही सूख चुकी है, और उम्मीद फीकी.

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बिहार के इन जिलों में भी खामोश दिखे वोटर्स 

इन जिलों की पूरी श्रृंखला, सारण (60.90%), खगड़िया (60.65%), मधुबनी (61.79%), सहरसा (62.65%), लखीसराय (62.76%), अरवल (63.06%), औरंगाबाद (64.48%), जहानाबाद (64.36%), गोपालगंज (64.96%), मुजफ्फरपुर (65.23%), सीतामढ़ी (65.29%), मधेपुरा (65.74%), और भागलपुर (66.03%) यह दिखाती है कि जहां नेतृत्व का संवाद कमजोर है और स्थानीय उपस्थिति का अभाव है, वहां मतदाता की प्रेरणा भी मुरझा जाती है. प्रवासी मजदूरों की अनुपस्थिति ने भी इन जिलों की भागीदारी घटाई. लाखों बिहारी, जो मुंबई, दिल्ली, पंजाब और गुजरात में काम कर रहे हैं, मतदान के समय घर नहीं लौट पाए. जो लौटे भी, उन्हें वोट डालने की प्रेरणा नहीं मिली. उनके लिए चुनाव अब किसी व्यक्तिगत बदलाव का माध्यम नहीं, बल्कि एक दूरस्थ राजनीतिक तमाशा बन गया है.

राजनीतिक दलों के लिए यह परिणाम केवल जीत या हार का नहीं, बल्कि चेतावनी का संकेत है. अब केवल नारों, जातीय गणितों या भावनात्मक भाषणों से नागरिक नहीं जीता जा सकता. मतदाता अब “इमोशनल इकोनॉमी” समझता है जहां राजनीति का मूल्य उसके अनुभव और परिणामों से तय होता है. अगर सरकारें और दल यह समझने में देर करेंगे कि जनता अब वादों से नहीं, भरोसे से वोट देती है, तो लोकतंत्र की यह दरार गहराती जाएगी.

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इन जगहों ने बता दिया, लोकतंत्र अभी जिंदा है

इन विरोधाभासों के बीच बिहार का जनादेश हमें यह सिखाता है कि लोकतंत्र की ताकत किसी पार्टी या नेता में नहीं, बल्कि उस नागरिक में है जो मतदान केंद्र तक पहुंचता है. किशनगंज और कटिहार के नागरिकों ने यह साबित किया कि लोकतंत्र अभी जीवित है, वहीं पटना और शेखपुरा के आंकड़े बताते हैं कि वह कितनी आसानी से मुरझा भी सकता. यह केवल बिहार की कहानी नहीं यह भारत के हर राज्य की चेतावनी है. हर शहरी पटना, हर खामोश शेखपुरा, हमें यह याद दिलाते हैं कि लोकतंत्र को बनाए रखना केवल सरकार का नहीं, नागरिक का भी दायित्व है.

एक साझी जिम्मेदारी है और हर बार जब कोई नागरिक वोट डालने से पीछे हटता है, वह इस साझे विश्वास को थोड़ा और कमज़ोर कर देता है. लोकतंत्र को बचाने के लिए जरूरी है कि वह फिर से अनुभव का उत्सव बने, न कि अविश्वास की प्रक्रिया. हर शेखपुरा में उम्मीद की लौ फिर जलनी चाहिए, हर पटना को अपनी चुप्पी तोड़नी चाहिए, और हर किशनगंज की तरह हर मतदाता को यह एहसास होना चाहिए कि उसकी स्याही केवल उंगली पर नहीं, इतिहास के पन्नों पर दर्ज होती है.

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