बिहार चुनाव के एग्जिट पोल ने सत्ता के समीकरणों पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं. एक तरफ अगर एनडीए की वापसी होती है, तो कई नेताओं की रणनीति बदलनी तय है. वहीं दूसरी ओर अगर महागठबंधन सरकार में आता है, तो क्षेत्रीय दलों के लिए भी नई संभावनाओं के दरवाजे खुल सकते हैं. इसी बीच दो नाम हैं जो इस चुनावी गणित के केंद्र में हैं. प्रशांत किशोर और मुकेश सहनी.
प्रशांत किशोर: अब आगे की रणनीति क्या होगी?
एग्जिट पोल के नतीजों के बाद प्रशांत किशोर के सामने कई चुनौतीपूर्ण सवाल हैं. PK की राजनीति की खासियत रही है कि वे कास्टलाइन से परे जाकर काम करते हैं. समाज के हर वर्ग में उनके समर्थक और शुभचिंतक हैं, लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी न होने से कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता है. किसी भी नए संगठन के लिए बिना सत्ता के लंबी रेस की तैयारी करना बेहद कठिन होता है.
अब प्रशांत किशोर के लिए अगला फोकस ग्राउंड स्ट्रेंथ बढ़ाने पर होना चाहिए. वे पहले ही अपनी जनसुराज यात्रा और मीडिया इमेज के जरिए घर-घर तक पहुंच बना चुके हैं. अब उन्हें हर क्षेत्र में पार्टी को खड़ा करना होगा और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नेताओं को साथ लाना होगा.
उनकी वास्तविक चुनौती होगी खुद को मुख्य विपक्षी धारा के रूप में स्थापित करना. विधानसभा के अंदर नगण्य उपस्थिति के कारण उन्हें विरोध की आवाज जमीन पर उठानी होगी.
दरअसल, प्रशांत किशोर चुनाव से पहले एक बड़े राजनीतिक कोण के रूप में उभर रहे थे. लेकिन टिकट बंटवारे के वक्त वे चुनावी लड़ाई से लगभग गायब दिखे. इससे यह संकेत मिला कि हर क्षेत्र में उनके पास मजबूत उम्मीदवारों की कमी थी, जबकि बिहार जैसे राज्य में विधानसभा स्तर पर उम्मीदवारों की पकड़ ही जीत-हार तय करती है.
मुकेश सहनी: सत्ता से बाहर होने का मतलब राजनीतिक संकट?
वहीं दूसरी ओर विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के प्रमुख मुकेश सहनी की स्थिति और भी पेचीदा लग रही है. उन्होंने पिछली बार एनडीए के साथ और इस बार महागठबंधन के साथ चुनावी साझेदारी की. लेकिन एग्जिट पोल यह साफ दिखा रहा है कि जिस तरह यादव वोट लालू यादव के प्रति एकजुट हैं, वैसी दीवानगी निषाद समाज में मुकेश सहनी के लिए नहीं दिख रही.
एनडीए ने भी इस बार सहनी की राजनीति को न्यूट्रल करने के लिए कई निषाद नेताओं को टिकट दिया, खासकर पुराने मुजफ्फरपुर जिले में. नतीजा यह कि निषाद समाज का झुकाव एनडीए की ओर दिख रहा है. अगर तेजस्वी यादव की सरकार बनती है और मुकेश सहनी को सत्ता में हिस्सेदारी मिलती है, तो उन्हें अपनी राजनीति के लिए एक ठोस आधार मिलेगा. लेकिन अगर एनडीए सत्ता में लौटती है, तो सहनी के लिए यह बेहद मुश्किल स्थिति होगी. क्योंकि एनडीए की कोशिश होगी कि वह उनके जनाधार को तोड़कर राज्य स्तर पर कोई नया निषाद चेहरा खड़ा करे.
दोनों नेताओं के लिए चुनौती भरे दिन
एग्जिट पोल के संकेत चाहे जो हों, लेकिन बिहार की राजनीति में प्रशांत किशोर और मुकेश सहनी दोनों ही संतुलन और अस्तित्व की राजनीति में फंसे दिख रहे हैं. एक को बिना सत्ता के जनसंगठन खड़ा करना है, तो दूसरे को सत्ता से बाहर जाकर जातिगत आधार बचाना है. बिहार की राजनीति में आने वाले महीनों में यह तय होगा कि क्या प्रशांत किशोर वाकई एक नई राजनीतिक धारा बन पाते हैं, या फिर मुकेश सहनी की तरह समीकरणों का हिस्सा बनकर सीमित भूमिका में रह जाते हैं.














