- बिहार के सीमांचल क्षेत्र में मखाना उत्पादन देश के कुल उत्पादन का लगभग 70 फीसदी है और उद्योग तेजी से बढ़ रहा.
- उद्योग में उत्पादन के सभी चरण हाथों से होते हैं जिससे मजदूरों की भारी मांग और ठेकेदारों की सक्रियता बढ़ी है.
- ठेकेदार मजदूरों को अत्यधिक काम पर लगाते हैं और समय पर वेतन न देने तथा प्रताड़ना की शिकायतें सामने आई हैं.
बिहार का एक पौष्टिक आहार होने से ज्यादा मखाना या 'सफेद सोना' इस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की वजह से काफी सुर्खियों में रहा है. लेकिन तीन सितंबर को यह उद्योग एक और वजहों से तब चर्चा में आ गया जब जोगबनी-दानापुर बन्दे भारत एक्सप्रेस की चपेट में आकर चार किशोरों ने पटरी पर ही दम तोड़ दिया. काल का ग्रास बने ये चारों किशोर मखाना उद्योग से जुड़े मजदूर थे और श्रमिक-ठेकेदार की प्रताड़ना से तंग आकर कार्यस्थल से फरार हुए थे.
रोंगटे खड़े करने वाली कहानी
घटना में जिंदा बचे पांचवें मजदूर कुलदीप ने जब पूरी घटना बयां की तो 'सफेद सोना' की दुनिया में श्रमिकों के शोषण की रोंगटे खड़े करने वाली कहानी सामने आ गई. इस कहानी को सुनने के बाद एक पल को यूपी का कालीन उद्योग याद आ गया, जहां कभी इसी तरह से मजदूरों का शोषण होता था. विडंबना यह है कि इस उद्योग में बाल-मजदूरों से भी काम धड़ल्ले से लेना जारी है. जाहिर है, गरीबी, बेरोजगारी और बेबसी से पैदा हुईं परिस्थितियां बाल श्रम प्रतिषेध अधिनियम,1986 की धाराओं को उसी तरह से कुचल जाती हैं जैसे वंदे भारत एक्सप्रेस चार किशोरों की जीवन-यात्रा को बेपटरी कर बेरोकटोक गुजर गई.
'सुपरफूड' बना तो बढ़ी कारोबारियों की भीड़
सीमांचल के इलाके में दशकों से मखाना की खेती होती रही है. देश के मखाना उत्पादन का 90 फीसदी बिहार में होता है. वहीं सीमांचल, बिहार का वह हिस्सा है जहां पर 70 फीसदी तक मखाना उत्पादित होता है. हाल के कुछ सालों में मखाना को एक 'सुपरफूड' का दर्जा मिल गया है. इस स्टेटस के बाद तो मखाना की डिमांड में भी तेजी से इजाफा हुआ और इसकी कीमतें भी आसमान छूने लगीं. विदेशों में जब मखाना की मांग बढ़ी तो देशभर के कारोबारियों की नजर इसपर गई. इसके बाद मखाना की खेती के रकबे में वृद्धि हुई औऱ दूसरे इलाके के लोगों ने भी यहां आकर लीज पर जमीन लेकर उत्पादन शुरू कर दिया. देश की कई नामी-गिरामी कंपनियों ने भी इस कारोबार को अपनाया है. नतीजा आज पूर्णिया मखाना के हब के रूप में तब्दील हो चुका है.
ठेकेदारी में इजाफा
मखाना उद्योग पूरी तरह से मजदूरों पर टिका है. पानी से 'गुड़िया' (मखाना का रॉ मेटेरियल) निकालने से लेकर 'लावा' (अंतिम सफेद स्वरूप) तक पूरी तरह सभी काम हाथों से ही किया जाता है. मतलब इसके निर्माण तक में मशीन की कोई भूमिका नही होती है. निर्माण के बाद पैकेजिंग वगैरह में जरूर मशीन का प्रयोग होता है. यही वजह रही कि वोटर अधिकार यात्रा के क्रम में अगस्त में जब राहुल गांधी कटिहार के मखाना-फोड़ी (मखाना तैयार करने की जगह) पहुंचे तो उन्होंने मजदूरों से सवाल किया था कि क्या यह काम मशीन की मदद से संभव नही है? चूंकि, पूरा कारोबार मजदूरों पर आश्रित है तो ऐसे में उनकी ज्यादा से ज्यादा जरूरत होती है.
इसी वजह में हाल के वर्षों में ठेकेदारों की सक्रियता भी बढ़ी है. ये ठेकेदार मखाना -फोड़ी और मजदूरों के बीच बिचौलिए की भूमिका में होते हैं. इसके एवज में इन्हें रोजाना प्रति मजदूर एक निश्चित राशि दी जाती है. चूंकि, मजदूरों की जिम्मेवारी ठेकेदारों की ही होती है तो वे उन मजदूरों से ज्यादा से ज्यादा काम लेने के चक्कर में उन्हें प्रताड़ित करने लगते हैं.
कुलदीप की जुबानी: दर्द की पूरी कहानी
ठेकेदार की प्रताड़ना से परेशान होकर पांच किशोर मखाना फोड़ी से फरार हुए जिनमें से श्यामसुंदर, जिगर, सिंटू और रोहित की मौत वंदे भारत के नीचे आने से हो गई. जबकि इकलौता जिंदा बचा मजदूर कुलदीप, अपना एक पैर गंवा बैठा है. कुलदीप ने जो कुछ बयां किया वह मखाना उद्योग के उस काले सच को सामने लाता है जिसके बारे में शायद ही किसी को मालूम होगा. कुलदीप की बताई कहानी बर्बरता, शोषण और प्रताड़ना की कहानी है. बकौल कुलदीप, ठेकेदार समय पर पैसा नही देता था और ज्यादा काम नहीं करने पर मजदूरों को निर्ममता से पीटता था. रात में कुलदीप और उसके चारों साथियों को ठीक से सोने भी नहीं देता था. कुलदीप ने बताया कि कभी ठेकेदार रात के एक बजे तो कभी रात के तीन बजे ही जगा देता था.
घर से जिंदा गया बेटा, लाश बनकर लौटा
मृतक श्यामसुंदर के पिता ब्रह्मदेव ऋषि ने भी कुलदीप की बताई हुई दास्तां पर मुहर लगाई. उन्होंने भी बताया कि ठेकेदार अक्सर बच्चों के साथ मारपीट करता था. ओवरटाइम काम कराने के लिए देशी शराब पिलाता था. इस तरह इन बच्चों से 16 से 18 घंटे तक काम कराया जाता था. ब्रह्मदेव ऋषि के मुताबिक ठेकेदार को मजबूरी पता है और इसलिए वो शोषण करते हैं. एक साल पहले भी ठाकुर पट्टी ,चांदपुर भंगहा से 10 लड़कों को ले गया था. तनख्वाह नहीं मिलने की वजह से ये सब भागकर वापस अपने घर आ गए थे. इस बार ठेकेदार ने चाल चली और 5-5 हजार रुपये एडवांस दिए. ठेकेदार ने इसके साथ ही पिछली गलती नहीं दुहराने का वादा भी किया और मजदूरों को अपने साथ ले गया था. पिता ब्रह्मदेव ऋषि के अनुसार इस बार बच्चों की लाश उनके घर वापस आई है.
क्या कहता है चाइल्ड लेबर एक्ट 1986
चाइल्ड लेबर पर रोकथाम के लिए देश में कानून बना हुआ है जिसे बाल श्रम(प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम , 1986 के नाम से जाना जाता है. रेल हादसे के शिकार हुए किशोरों की उम्र 14 से 16 साल के बीच की थी. इस एक्ट के अनुसार 14 से 18 साल के बीच के श्रमिकों के लिए काम के घंटे तय होते हैं. साथ ही नाइट शिफ्ट में उनसे काम नही लिया जा सकता है. लेकिन अगर कुलदीप की बात मानें तो न सिर्फ उनसे ज्यादा से ज्यादा काम लिया गया बल्कि रात में भी काम कराया गया. यही नही ,यहां आपको कई बाल मजदूर जिनकी उम्र 14 साल, कभी-कभी तो इससे भी कम, इस उद्योग में धड़ल्ले से काम करते नजर आएंगे.
जमीनी हकीकत यही है कि मखाना भट्ठियों में झुलस रहे बचपन का स्कूल से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है. उन्हें बस इतना पता है कि ठेकेदार से पैसे मिलेंगे तो उनके फूस के घर के टूटे हुए छप्पर की मरम्मत हो सकेगी और बीमार मां पूर्णिया आकर किसी बड़े डॉक्टर से अपना इलाज करा सकेगी.