प्रशांत किशोर की रणनीति पर सवाल, बिहार चुनाव में क्यों फीकी पड़ रही PK की चमक?

बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर की वो चमक देखने को नहीं मिल रही है, जिसकी सब उम्‍मीद कर रहे थे. दरअसल, इसकी एक वजह यह है कि प्रशांत किशोर के पास साफ़-सुथरी छवि वाले प्रत्याशी तो हैं, लेकिन 'चुनावी घोड़े' की कमी उनके अभियान को कमजोर बना रही है.

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जन सुराज पार्टी के उम्‍मीदवारों में ज़मीनी राजनीति का अनुभव नहीं
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  • प्रशांत किशोर ने चुनावी मैदान में पदयात्रा और भ्रष्टाचार विरोधी रुख के बावजूद राजनीतिक पकड़ मजबूत नहीं की है
  • PK की सबसे बड़ी कमजोरी सामाजिक और संगठनात्मक रणनीति में रही, खासकर जातीय आधार पर गठबंधन न बना पाने में
  • नीतीश कुमार की तरह कुर्मी समुदाय के संगठित समर्थन की कमी ने प्रशांत किशोर की राजनीतिक पहुंच को सीमित किया
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पटना:

कभी देशभर के राजनीतिक दलों की रणनीति तय करने वाले प्रशांत किशोर अब, जब खुद चुनावी अखाड़े में उतरे हैं, तो उम्मीद के मुताबिक, प्रभाव नहीं दिखा पा रहे. गांव-गांव, टोला-टोला तक पदयात्रा करने और भ्रष्टाचार पर तीखे हमले के बावजूद, उनके अभियान की राजनीतिक पकड़ कमज़ोर पड़ती नज़र आ रही है. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि प्रशांत किशोर की सबसे बड़ी चूक उनकी सामाजिक और संगठनात्मक रणनीति में रही. ब्राह्मण समुदाय से आने के बावजूद उन्होंने अपनी जातीय आधारशिला को मजबूत नहीं किया. नतीजतन, जिन क्षेत्रीय नेताओं के सहारे नीतीश कुमार ने अपने राजनीतिक सफर की नींव डाली थी, वैसी संगठित जमीनी शक्ति प्रशांत किशोर खड़ी नहीं कर पाए.

नीतीश कुमार से नहीं ली सीख 

इतिहास पर नज़र डालें तो 1992 से 1995 के बीच नीतीश कुमार का उद्भव काल बिहार की राजनीति का निर्णायक दौर था. उस समय ‘कुर्मी महारैली' के माध्यम से उन्होंने लालू प्रसाद यादव के विरोध में राजनीतिक माहौल बनाया था. जॉर्ज फर्नांडिस उनके राजनीतिक मार्गदर्शक बने और 2000 के विधानसभा चुनाव तक नीतीश इस समीकरण के सहारे सत्ता के करीब पहुंच गए थे.


उम्‍मीदवारों में ज़मीनी राजनीति का अनुभव नहीं

इसी पथ पर अगर प्रशांत किशोर चल पाते, तो आज उनका राजनीतिक ग्राफ कुछ और होता. मगर उन्होंने जिन उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, उनमें आदर्श तो हैं, पर ज़मीनी राजनीति का अनुभव नहीं. नतीजा यह हुआ कि दो-तीन सीटों पर उनके प्रत्याशी भाजपा या एनडीए समर्थित उम्मीदवारों के पक्ष में नामांकन वापस लेने लगे. गोपलगंज में भूमिहार समुदाय से आने वाले प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ. शशि शेखर सिंह ने भाजपा प्रत्याशी के समर्थन में अपनी उम्मीदवारी लौटाने का फ़ैसला किया, जिससे सारण प्रमंडल के समीकरणों पर सीधा असर पड़ना तय माना जा रहा है.

क्‍यों घट रहा प्रशांत किशोर का प्रभाव

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि चुनाव सिर्फ नैतिक मुद्दों और भ्रष्टाचार-विरोधी नारों से नहीं जीते जाते. जब जनता के बीच कोई लहर या हवा नहीं होती, तो उम्मीदवारों का ज़मीनी नेटवर्क निर्णायक भूमिका निभाता है. प्रशांत किशोर के पास साफ़-सुथरी छवि वाले प्रत्याशी तो हैं, लेकिन 'चुनावी घोड़े' की कमी उनके अभियान को कमजोर बना रही है. टिकट घोषणा और दलगत हलचल के दौर में उनकी चमक पहले जैसी नहीं रही. यही वजह है कि बिहार की सियासत के इस दौर में प्रशांत किशोर का प्रभाव घटता हुआ दिख रहा है.

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