बिहार की राजनीति समझना है, तो लालू यादव को समझना होगा

राजनीति महत्वाकांक्षा पर टिकी होती है. पप्पू यादव को यह विश्वास हो गया था की लालू यादव उनको अपना अगला राजनीतिक वारिश बनायेंगे. कुछ पारिवारिक विवाद भी रहा जिसे संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब में लिखा है.

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लालू के अलावा भी कई यादव नेता रहे
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  • बिहार की राजनीति में यादव समाज लगभग 15% आबादी के साथ महत्वपूर्ण जातीय समूह है और लालू यादव इसका प्रमुख नेता
  • लालू के CM बनने के बाद यादव समाज ने समाजवादी राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाई और उन्होंने कई सिपहसालार बनाए
  • पप्पू यादव ने कोशी बेल्ट से राजनीतिक सफर शुरू किया
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नई दिल्‍ली:

बिहार की राजनीति समझना है, तो सबसे पहले 'यादव समाज' को समझना होगा. यादव समाज को समझना है, तो लालू यादव को समझना होगा. बिहार की बहुचर्चित जातीय जनगणना में यादव जाति अकेले करीब 15% है. यह एक बहुत बड़ी संख्या होती है. लेकिन सन 1990 तक की राजनीति में श्री बाबू (श्री कृष्‍ण सिंह, बिहार के पहले मुख्‍यमंत्री ) के देहांत के बाद समाजवादी बनाम कांग्रेस हुआ, तो समाजवाद का झंडा यादव जाति प्रमुखता से उठाई और कांग्रेस की तरफ़ से ब्राह्मण/सवर्ण रहे. 

लालू के अलावा भी कई यादव नेता रहे


लालू यादव के पहले भी बिहार में व्यापक आधार वाले यादव नेता रहे. राम लखन बाबू को शेर-ए-बिहार कहा जाता था. मंडल आयोग वाले बीपी मंडल ना सिर्फ़ बड़े ज़मींदार परिवार से थे, बल्कि बिहार के मुख्यमंत्री भी बने. इसके अलावा क्षेत्रीय आधार पर भी यादव समाज के नेता रहे, जिसमे पूर्व मुख्यमंत्री दारोग़ा बाबू भी थे. बुद्ध देव सिंह यादव, राम जयपाल सिंह यादव इत्यादि कांग्रेस के छत्रछाया में रहे. बलिराम भगत केंद्रीय मंत्री बने. पटना के लोकसभा सांसद रामावतार शास्त्री कम्युनिस्ट के बड़े नेता तो जहानाबाद इलाके में भी कई रहे. 

रोम पोप का और सहरसा गोप का

हालांकि, इनमें से कोई भी नेता कांग्रेस राज के पक्ष या विपक्ष में धुरी नहीं बना. लालू यादव जब मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने हर क्षेत्र में अपने सिपहसालार बनाए. जमीनी राजनीति में लालू यादव का कोई जोड़ नहीं. उसी में बिहार के कोशी बेल्ट से पप्पू यादव पहली बार सन 1990 में विधायक बन के पटना आए और सन 1991 से अभी तक छह बार लोकसभा सांसद बने रहे. कोशी की लड़ाई में आनंद मोहन को पप्पू यादव कड़ी टक्कड़ देते रहे. एक कहावत भी है- रोम पोप का और सहरसा गोप का. सहरसा मतलब की कोशी बेल्ट जिसमें मधेपुरा भी आता है. 

पप्‍पू यादव को लगा, लालू उन्‍हें...

राजनीति महत्वाकांक्षा पर टिकी होती है. पप्पू यादव को यह विश्वास हो गया था की लालू यादव उनको अपना अगला राजनीतिक वारिश बनायेंगे. कुछ पारिवारिक विवाद भी रहा जिसे संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब में लिखा है. इन तमाम वजहों के बाद भी पप्पू यादव अब कोशी से निकल समस्त बिहार पर छाना चाहते थे. और इधर लालू जी के लाल तेजश्वी जी परिपक्व भी होने लगे. अपनी औलाद के रहते कौन किसी अन्य को सत्ता सौंपता है. इसकी भनक मिलते ही पप्पू यादव बड़ी तेजी से कांग्रेस की तरफ़ मुड़े. पत्नी को लोकसभा सांसद के साथ अभी राज्यसभा का सीट दिलवाया . मतलब साफ़ था की कांग्रेस भी लालू जी को नियंत्रण में रखने के लिए बिहार स्तर पर लालू जी के समानांतर एक दूसरी शक्ति बनाना चाहती रही . 

2020 के चुनाव में यादव नहीं टूटे

बिहार में 15% यादव वोट पर भाजपा की भी नज़र रही है. अमूमन यह गाय पालने वाली कृषक क़ौम होती है. भाजपा के जन्म के समय भी प्रदेश अध्यक्ष यादव ही रहे. वैशाली समस्तीपुर में भाजपा के युवा तुर्क नेता नित्यानंद राय को भाजपा लालू जी का एक विकल्प लेकर बिहार के यादव समाज में लेकर आई. राजस्थान / हरियाणा से श्री भूपेंद्र यादव को बिहार भाजपा का प्रभार मिला. नित्यानंद को प्रदेश अध्यक्ष पद मिला. नित्यानंद ने अपने प्रभाव से राम सूरत राय को काफ़ी शक्तिशाली मंत्री बनाया. लेकिन सन 2020 के चुनाव में यादव नहीं टूटे. वो लालू यादव और तेजश्वी यादव के साथ ही रहे. यहाँ भाजपा का प्रयोग विफल रहा . ऐसा मेरा मानना है . 

कुल मिलाकर बिहार की बहुसंख्यक जाति पर नियंत्रण रखने को पहले से लालू जी अपने पुत्र के माध्यम से रणनीति तैयार रखे हैं. उसको उसी महागठबंधन के अंदर बड़ी सोची समझी रणनीति से पप्पू जी का विरोध भी है, तो इधर भाजपा यादव वोट में सेंध लगा कर स्वयं को और मजबूत करना चाहती है. हालांकि, इस बार के चुनाव में एनडीए ने पिछले चुनाव से ठीक आधे सीट यादव समाज को दिया है. फिर भी भाजपा के तरफ़ से नित्यानंद की प्रमुख भूमिका टिकट बंटवारे में रही. 

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