भाभियों से हंसी-मजाक और विदाई लेकर गई थीं... छठ पर नम आंखों से बेटी शारदा को याद कर रहा गांव

शारदा सिन्हा ने आखिरी मुलाकात में अपनी भाभियों से कहा था कि खोइंछा भरि के हमरा पठाउ. बेटी के जत्ते देबै, नैहर तत्ते बेसी उन्नति करत. (खोइंछा भर कर मुझे ससुराल भेजें. बेटी को जितना नैहर से मिलता है, नैहर उतना ही खुशहाल रहता है) 

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शारदा सिन्हा का मायका और वो घर जिसे वो अंतिम बार देखने पहुंची तो निहारती रहीं...

शारदा सिन्हा, सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि संपूर्ण बिहार की पहचान हैं. बिहार की परंपराओं और पारंपरिक पर्वों की पहचान हैं. अब तक ऐसा नहीं हो सका कि बिहार के किसी घर में शादी-ब्याह की तैयारी चल रही हो और उस आंगन में शारदा सिन्हा के गीत नहीं बज रहे हों. बरबस यही बाध्यता लोक आस्था के महापर्व छठ सहित सामा चकेबा, मुंडन जैसी परंपराओं में भी रही है. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ऐसे अवसरों पर शारदा सिन्हा के गीत सुनने और बजाने की परंपरा हमेशा बनी रहेगी. यह कहने में भी कोई गुरेज नहीं है कि शारदा सिन्हा बिहार की संस्कृति की ध्वजारोहक रही है और राज्य को देश और विदेशों में विशिष्ट पहचान दिलाने में सर्वोत्कृष्ट भूमिका निभाई है.आज शारदा सिन्हा इस मृत्युलोक से बहुत दूर चली गई हैं, लेकिन जीते जी उन्होंने ऐसा काम कर दिया कि मरने के बाद भी युग-युगांतर तक जीवित रहेंगी.   

सुपौल के हुलास में हुआ था जन्म 

शारदा सिन्हा का जन्म सुपौल जिले के राघोपुर प्रखंड के हुलास गांव में 1 अक्टूबर 1952 को हुआ था. पिता सुखदेव ठाकुर शिक्षा विभाग में वरीय अधिकारी थे, लिहाजा परिवार में शिक्षा का काफी अधिक महत्व था. शारदा सिन्हा हुलास गांव से प्रारंभिक शिक्षा शुरू करते हुए उच्च विद्यालयीय पढ़ाई के लिए जिला मुख्यालय सुपौल स्थित विलियम्स हाई स्कूल गईं. बीएड की डिग्री लेने के बाद यूपी से एमए की डिग्री पाई. फिर शारदा सिन्हा ने लंबे समय तक समस्तीपुर के वीमेंस कॉलेज में संगीत की प्राध्यापिका (प्रोफेसर) के रूप में काम किया. इस कार्यकाल के दौरान ही उनके एलबम लगातार लॉन्च होते रहे और उनकी प्रसिद्धी परवान चढ़ती गई.अपने गीतों के माध्यम से शारदा सिन्हा घर-घर में प्रवेश कर गई. शारदा सिन्हा का विवाह बेगूसराय के ब्रजकिशोर सिन्हा के साथ हुआ था.परिवार में पुत्र अंशुमन सिन्हा और पुत्री वंदना है.   

कहे तोसे सजनी, ये तोहरी सजनियां..वो गाना जिसे शायद ही कोई भूले

संगीत में पारंगत होने के बाद शारदा सिन्हा ने साल 1974 से भोजपुरी गीत गाना शुरू की और शादी विवाह के हर विधि-विधान पर आधारित गीत गाकर लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ गई. 1978 में पहली बार छठ गीत उग हो सुरूज देव... गाकर पूरे देश में छा गई और बिहार के परंपराओं की पहचान बन गई. 1989 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'मैने प्यार किया' में कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनियां... गाकर बॉलीवुड में जबरदस्त दस्तक दी. 1991 में पद्मश्री से सम्मानित हुई शारदा सिन्हा साल 2000 में संगीत नाटक पुरस्कार से सम्मानित हुई. 2006 में इन्हें अकादमी पुरस्कार राष्ट्रीय अहिल्या देवी अवार्ड मिला. 2015 से बिहार सरकार और 2018 में पद्मभूषण से सम्मानित शारदा सिन्हा बिहारी अस्मिता की पहचान को बुलंदी देती रही. 

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इसी साल मार्च में आई थीं गांव 

बीते कुछ वर्षों से बोन मेरो कैंसर से पीड़ित शारदा सिन्हा 5 नवंबर 2024 को भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली (एम्स) में अंतिम सांस ली. उनकी मौत की खबर पर हुलास गांव के लोगों को सहसा विश्वास नहीं हो रहा है. वे कहते हैं कि शारदा सिन्हा कहकर गई हैं कि वह छठ के बाद अपने मायके आएंगी. इसी साल बीते 31 मार्च को शारदा सिन्हा अपने भाई पद्मनाभ के पुत्र की रिस्पेशन में अपने मायके हुलास आई थीं. तभी अंतिम बार गांववालों ने अपनी लाडली को देखा था.उसके बाद वह गांव नहीं आईं. विवाह गीत गाकर उन्होंने वर-वधू को आशीष दिया था. गांव में रह रहे उनके परिजन कहते हैं कि शादी के माहौल में शारदा सिन्हा ने अपने आंगन में जमकर और खुलकर खूब गीत गायी थीं. रिसेप्शन खत्म होने के बाद वापस जाते समय शारदा अपने नैहर (मायका) से मिथिला परंपरा के अनुसार दूब-धान खोइंछा लेकर गई थीं. तब शारदा सिन्हा ने अपनी भाभियों से कहा था कि खोइंछा भरि के हमरा पठाउ. बेटी के जत्ते देबै, नैहर तत्ते बेसी उन्नति करत. (खोइंछा भर कर मुझे ससुराल भेजें. बेटी को जितना नैहर से मिलता है, नैहर उतना ही खुशहाल रहता है) 

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डूब जाती थीं विद्यापति गीत में, गांववाले हमेशा करते रहेंगे याद

शारदा सिन्हा की मौत की खबर के बाद हुलास स्थित उसके मायके में लोग शांत घरों में बैठे थे. गांव में हर कोई शारदा सिन्हा से जुड़े संस्मरणों को याद कर उसे एक-दूसरे को सुना रहा था. गांव के एक बुजुर्ग ने कहा कि अब कौन सुनायेगा ससुर की कमाई दिलहे... गाना. विद्यापति के पद उनके जैसा बहुत कम लोग गाते थे. लगता था जैसे वह खुद गीत में उतर गई हों. बर सुख सार पाओल तुअ तीरे.... सुनते ही लगता है जैसे विद्यापति ने इनके लिए ही लिखा हो. गांववाले कहते हैं कि शारदा सिन्हा जब भी गांव आती थीं तो गांव की बेटी की तरह हर एक लोगों से मिलती थी. उनकी सरलता ने ही उन्हें महान बना दिया. गर्व से यह भी कहा कि शारदा सिन्हा सिर्फ हुलास की ही नहीं, बल्कि पूरे बिहार की बेटी थीं. 

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भाभी के साथ गीत गाते होता था हंसी-मजाक

उनकी चचेरी भाभी निर्मला ठाकुर ठीक से कुछ बोल नहीं पा रहीं. जब से शारदा सिन्हा के बारे में सुना है, तब से वह जैसे खोई-खोई-सी हैं. शुरुआती दिनों में निर्मला भाभी पुराना गीत गाकर शारदा को सिखाती थीं. दोनों मिलकर जंतसार (लगनी) गाती थीं. गीत गाते हुए हंसी-मजाक भी खूब होता था. बाद में जब शारदा सिन्हा का कोई गाना हिट होता था, तो वह खुशी से झूम उठती थीं. दोनों के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन संबंधों में कटुता नहीं आई, जब नौ माह पहले शारदा सिन्हा नैहर आयी थी, तो उनका साथ दे रही उनकी भाभी निर्मला की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह गीत गाते-गाते कहती थीं कि शारदा तोहर गला एखनहुं ओहिना छौ. हमर गला तं फंसि जाइए. की खाइ छीही गै. (शारदा, तुम्हारा गला तो अभी भी वैसे ही है. मेरा गला तो फंस जाता है. तुम क्या खाती हो) इस बात पर शारदा हंस देती थी और कहती थी कि हुलास गांव का पानी पिये हैं हम. गला खराब नहीं होगा कभी. उनके बड़े भाई नृपेंद्र ठाकुर व छोटे भाई पद्मनाभ कहते हैं कि मेरी बहन करोड़ों में एक थीं. वह जब पुराने घर में गीत गाती थीं तो आसपास के लोग जुट जाते थे. उन्हे बचपन से ही गितगाइन (मधुर कंठ से गीत गाने वाली) कहा जाने लगा था. उनके कंठ में साक्षात सरस्वती का वास था. पुराना खपरैल के घर में वह रियाज किया करती थीं. इसी में उनका बचपन बीता था. यह घर अब टूट चुका है. पिछली बार जब वह आयी थी, तो अपने पुराने घर को बार-बार निहारती थी और इस दौरान पुरानी बातें खूब हुई थीं.
 

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