In-Depth: बिहार में बांध बनने की अनसुनी कहानियां, वो एकमात्र साल जब बाढ़ से नहीं हुई एक भी मौत

Bihar Flood: बिहार बाढ़ त्रासदी पर NDTV की एक्सप्लेनर रिपोर्ट की दूसरी कड़ी में पढ़िए बिहार में बांध निर्माण की शुरुआत के समय सरकार से छिपाई गई वो कहानी, जो शायद बहुत कम जानते होंगे.

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Bihar Flood: बिहार सरकार (Bihar Govt) ने शुक्रवार 4 अक्टूबर को बाढ़ प्रभावित 4.39 लाख परिवारों के खाते में DBT के जरिए 307 करोड़ रुपए ट्रांसफर किए. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) ने कहा, "पहले चरण में बाढ़ से प्रभावित परिवारों के खाते में 7-7 हजार रुपए की राहत राशि ट्रांसफर की जा रही है. दूसरे चरण में बाढ़ प्रभावित परिवारों को दुर्गा पूजा के पहले 9 अक्टूबर तक उनके खाते में राशि ट्रांसफर हो जाएंगे." बिहार में इस समय 17 जिलों की 14.62 लाख आबादी बाढ़ से प्रभावित है. ये सभी लोग अपना घर छोड़ कर स्कूल, सरकारी भवन और सड़क किनारे शरण लिए हैं. 

बिहार में कमोवेश हर साल बाढ़ से जान-माल का भारी नुकसान होता है. बड़ी संख्या में लोगों की मौत भी होती है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि आजाद भारत के इतिहास में एक साल ऐसा भी बीता है, जिस साल बिहार में बाढ़ से किसी की मौत नहीं हुई. बिहार बाढ़ त्रासदी पर NDTV की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट में आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि बिहार के बाढ़ से जुड़ी वैसी अनसुनी घटनाएं, जिसे बहुत कम लोग जानते होंगे. 

बिहार के बाढ़ पर 'बाढ़ मुक्ति अभियान' के संयोजक दिनेश मिश्र से NDTV ने विस्तृत बातचीत की. दिनेश मिश्र ने बातचीत में कई रोचक कहानियों के बारे में बताया. 

वो इकलौता साल, जब बाढ़ से नहीं हुई किसी की मौत

दिनेश मिश्र ने बताया कि 1972 आजाद भारत के इतिहास का इकलौता साल है जब बिहार में बाढ़ से कोई नहीं मरा. उस साल भयंकर सूखा पड़ा था. 1972 में भारत में भयंकर सूखा पड़ा था. उस साल बारिश औसत से 24 प्रतिशत कम रही थी. दिनेश मिश्र का कहना है- सूखा और बाढ़ यह दो समस्याएं ऐसी हैं जिनसे बिहार तबाह रहता है. किन्तु इन दोनों समस्याओं की ओर न तो राज्य सरकार ने और न केंद्रीय सरकार ने ही तत्परता पूर्वक ध्यान दिया है. 

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2018 में भी बिहार में कमोवेश सूखे जैसी स्थिति थी. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2018 में बिहार से बाढ़ के कारण मात्र एक व्यक्ति की मौत हुई थी.  1972 और 2018 को छोड़ दें तो हर साल बिहार में बाढ़ से सैकड़ों लोगों की मौत होती है. करोड़ों का नुकसान होता है.

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2007 से 2019 तक बिहार में बाढ़ से 4346 लोगों की मौत हुई है.

बिहार में तटबंध निर्माण (Embankment construction in Bihar)

अंग्रेजों ने शुरू किया था तटबंध निर्माण 

दिनेश मिश्र ने बताया कि नदियों पर तटबंध बनाने का काम अंग्रेजों ने शुरू किया. सिंचाई के जरिए अंग्रेजों को बड़ा राजस्व मिलता था. ऐसे में अंग्रेजों ने 1854 में दामोदर पर तटबंध बनाया. लेकिन 1869 में इसे तोड़ दिया. दिनेश मिश्र में बताया कि तटबंध बनाने को लेकर अंग्रेजों में भी मतभेद था. एक गुट का कहना था- नदियों को आजाद रहना चाहिए, वो जैसे बहना चाहती है, बहे. लेकिन दूसरे गुट का कहना था कि हमें नदियों को नियंत्रित करने का काम तो करना ही पड़ेगा.

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नदी किनारे तटबंध बनाना उसे बॉक्सिंग रिंग में उतारने जैसा

1905 में बिलवर्न इंग्लिश नामक अंग्रेज इंजीनियर ने कहा था, "नदियों को नियंत्रित करने का काम तो करना ही पड़ेगा, लेकिन हमें अपनी मर्यादा समझनी होगी." उसी समय एक अन्य अंग्रेज इंजीनियर कैप्टन हर्स्ट ने कहा, "नदियों के किनारे तटबंध बनाना उसे बॉक्सिंग रिंग में उतारने जैसा है. तटबंध बनाने से नदियां कुछ देर के लिए कंट्रोल में तो आ जाएगी. लेकिन जब वो बदला लेगी तब आपकी कोई अक्ल काम नहीं आएगी."  

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बिहार की बाढ़ अवधिः मई से नवंबर तक (Bihar Flood Timing)

बिहार में प्रशासन 15 जून से 15 सितंबर तक के समय को बाढ़ अवधि मानकर अपनी पूरी तैयारी करता है. लेकिन दिनेश मिश्र ने बताया कि बिहार में बाढ़ का इतिहास देखें तो यह मई से नवंबर तक आ चुका है. 15 जून से पहले आई बाढ़ को लेकर कहा जाता है कि समय से पहले बाढ़ आ गई. दिनेश मिश्र ने कहा कि बाढ़ अवधि निर्धारण का ये पैटर्न बिल्कुल गलत है.

1851 में मई में तो 1987 में नवंबर तक रही बाढ़

उन्होंने बताया कि 1851 में लोगों की मांग पर कोसी पर तटबंध बांधने की कोशिश हुई. तब नेपाल के राजा ने चतरा में मौजूद भगवान बाराह के मंदिर पर कोई असर नहीं पड़ने की शर्त पर तटबंध बनाने की सहमति दे दी थी. लेकिन उसी साल मई में ही बाढ़ आ गई. अंग्रेजों ने जितना काम किया था, वो सब बह गया. इसके बाद 1987 में आई बाढ़ नवंबर तक रही थी. 

1937 में नेपाल में बांध बनाने का पहली बार आया प्रस्ताव 

नेपाल में बांध बनाने के प्रस्ताव पर दिनेश मिश्र ने बताया कि नंवबर 1937 में पटना में आयोजित एक कांफ्रेंस में पहली बार नेपाल में बांध बनाने का प्रस्ताव दिया गया था. लेकिन तब के बिहार के चीफ इंजीनियर कैप्टन हॉल ने कहा कि था बिहार के फायदे के लिए नेपाल अपने यहां कोई नुकसान नहीं उठाएगा. नेपाल भूंकप क्षेत्र में पड़ता है. बांध बनने से विस्थापन भी वहीं होगा. लेकिन फायदा बिहार और नेपाल के तराई क्षेत्र को होगा. हालांकि नेपाल का तराई क्षेत्र उतना विस्तृत नहीं है. बिजली के उत्पादन का लाभ दोनों देशों को मिलेगा. 

तस्वीर 1949-50 में बिहार में आई बाढ़ के समय की है.

'नदी को रोकना, आने वाली पीढ़ी के लिए तबाही का सामान'

कैप्टन हॉल ने यह भी कहा था कि अगर हमने नदी के किनारे तटबंध बनाए या इन्हें बनने से रोका नहीं तो हम एक ऐसी तबाही का संग्रह कर रहे हैं जिसका भुगतान हमारी आने वाली पीढ़ियां करेंगी. और वो क्लाइमेक्स देखने के लिए हम यहां नहीं होंगे. लेकिन लोग हमें लानते भेजेंगे. 

1947 में नेपाल में बांध बनाने की लागत 100 करोड़ आंकी गई थी

दिनेश मिश्र ने बताया कि 1945 में सुपौल के निर्मली में एक कांफ्रेंस हुई, जिसमें राजेंद्र बाबू, गुलजारी लाल नंदा सहित अन्य बड़े नेता शामिल हुए. कॉफ्रेंस में बताया गया कि हमलोग नेपाल में बांध बनाएंगे, इससे हमलोग कोसी को नियंत्रित कर लेंगे. 1947 में सर्वे के बाद बांध बनाने की लागत 100 करोड़ आंकी गई. 1949 में जियोग्राफिक सर्वे के बाद बांध बनाने की लागत 179 करोड़ आंकी गई. तब 800 फीट ऊंचा बांध बनाने का प्रस्ताव था.

लेकिन सरकार पर कोसी के साथ-साथ भाखड़ा और गंडक का भी दवाब था. बिहार से कोसी और गंडक दोनों प्रोजेक्ट थे. सरकार पर दवाब था कि पहले कोसी पर बांध बने या गंडक पर. गंडक वाले बांध से 12 लाख हेक्टेयर में सिंचाई होनी थी. जो कोसी से नहीं होती. लेकिन कोसी को लेकर यह बात कही गई कि यह लोकहित का मामला है, इससे बड़ी आबादी बाढ़ से बचेगी. लेकिन मुश्किल यह था कि सरकार के पास 179 करोड़ रुपए नहीं थे.

बिहार बाढ़ 1953: जब नेहरू बोले- तत्काल कुछ कीजिए

फिर 1952 में पहाड़ियों के नीचे 55 करोड़ की लागत से 80 फीट ऊंचा बांध और नदी किनारे तटबंध बनाने की योजना बनी. लेकिन सवाल यह था कि सरकार के पास 55 करोड़ रुपए भी नहीं थे. इसी बीच 1953 में बाढ़ आ गई, जिसमें सहरसा के लोग बुरी तरीके प्रभावित हुए. तब पंडित नेहरू भी कोसी क्षेत्र देखने आए और उन्होंने कहा कि कोसी क्षेत्र के लोगों को बचाने के लिए हमें तत्काल कुछ करने की जरूरत है.

1953 को घोषणा, स्टडी के लिए चीन भेजे गए दो एक्सपर्ट

इसके बाद 3 दिसंबर 1953 में गुलजारी लाल नंदा ने कोसी पर तटबंध बनाने की योजना लोकसभा में पेश की. लोकसभा में बांध बनाने की घोषणा के बाद मई 1954 में दो एक्सपर्ट चीन के ह्वांग हो नदी पर बने बांध की स्टडी के लिए गए. वहां से आने के बाद उनकी रिपोर्ट लोकसभा में भी पढ़ी गई.

चीन का शोक कहलाने वाली ह्वांग हो नदी.

बाद में यह रिपोर्ट एक किताब की शक्ल में भी आई. एक्सपर्ट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि बांध बनने के बाद भी ह्वांग हो गाद और पानी बड़ी आसानी से समुद्र तक पहुंचा रही है. ऐसे में कोसी पर तटबंध बनाने की तकनीकी स्वीकृति कमलसेन और डॉ. केएल राव की रिपोर्ट से मिल गई. 

चीन से आए एक्सपर्ट ने सरकार को नहीं बताई तबाही की कहानी

दिनेश मिश्र ने बताया कि चीन से लौटे दोनों एक्सपर्ट सरकार को एक चीज बताना भूल गए. चीन की पिकिंग विश्वविद्यालय में 1047 से 1954 तक ह्वांग हो नदी में आई बाढ़ का रिकॉर्ड रखा गया था. जिसमें लिखा कि 900 साल में ह्वांग हो के तटबंध 1500 बार टूटे थे. 26 बार भयंकर रूप से बांध टूटा था. 9 बार नदी को तटबंधों के भीतर वापस नहीं लाया जा सका. ऐसे में नदी की धारा के किनारे ही दूसरा तटबंध बनाना पड़ा. 

जब 8.96 लाख चीनी और जापानी आर्मी बाढ़ में बह गई थी

1933 में ह्वांग हो नदी की बाढ़ से 18000 लोग मारे गए. 1939 में जापान हमले के समय वहां के तत्कालीन शासक ने ह्वांग हो नदी के तटबंध पर जापानी आक्रमण को निरस्त करने के लिए उस पर बम गिरा दिया. ह्वांग हो के तटबंध पर बम गिराने से 8,96,000 चीनी नागरिक के साथ-साथ जापान की पूरी आर्मी बह गई थी. लेकिन ये दोनों बात सरकार को नहीं बताई गई. 

युद्ध प्रेरित प्राकृति आपदा, जब सैनिक के विकल्प के रूप में पानी का हुआ इस्तेमाल

कनाडाई इतिहासकार डायना लैरी ने ह्वांग हो नदी के तटबंध पर बम गिराने की घटना को "युद्ध-प्रेरित प्राकृतिक आपदा" कहा है. इस ऑपरेशन का लक्ष्य "सैनिकों के विकल्प के रूप में पानी का उपयोग" करना था. तब 54,000 किमी क्षेत्र में आई बाढ़ ने 5 से 9 लाख चीनी लोगों की जान ले ली. साथ ही बड़ी संख्या में जापानी सैनिकों की भी जान भी चली गई. इस बाढ़ ने जापानी सेना को ह्वांग हो के दक्षिणी तट पर झेंग्झौ पर कब्जा करने से रोक दिया.
 

लिहाजा 1955 में मकर संक्राति के दिन कोसी किनारे तटबंध का निर्माण शुरू हुआ. इसके बाद गंडक, कमला, बागमती, महानंदा सहित अन्य नदियों के किनारे भी तटबंध बना. 

ये नेताओं की राजनैतिक जरूरत कि वो कुछ करते दिखें

बाढ़ से बचाव में नेताओं के ढुलमुल रवैये पर दिनेश मिश्र ने कहा कि आजादी के बाद देश के नेताओं की ये राजनैतिक जरूरत थी कि वो कुछ काम करते दिखाई पड़े. इसके लिए आगे की विभीषिका को समझे बिना अलग-अलग समय में बाढ़ से बचाव के अलग-अलग कदम उठाए गए. सदियों से नदी किनारे रहने वाले लोगों से बिना कुछ पूछे-समझे तटबंध बनाए गए.

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