बिहार चुनाव विश्लेषणः BJP की पहली सूची के पीछे रणनीति, संदेश और जोखिम

71 प्रत्याशियों की इस पहली सूची में बीजेपी ने राज्य के जटिल चुनावी बिसात पर अपनी मजबूत रणनीति और संगठनात्मक शक्ति का परिचय दिया है जहां जातीय समीकरणों के संतुलन को भी साधने की भरपूर कोशिश की गई है.

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  • बीजेपी ने अपनी पहली सूची में जटिल चुनावी बिसात पर अपनी मजबूत रणनीति और संगठनात्मक शक्ति का परिचय दिया है.
  • पूर्व विधायकों के टिकट काटना, नए चेहरे उतारना जोखिम की क्षमता और सत्ता विरोधी लहर को काटने का स्पष्ट संदेश.
  • इसे जाति समीकरण को साधने और भविष्य की राजनीति की नींव रखने की सावधानीपूर्वक कोशिश के रूप में देखा जा सकता है.
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पटना:

भारतीय जनता पार्टी ने बिहार चुनाव के लिए 71 प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की है. इसका मतलब ये है कि बीजेपी को अब अपने हिस्से के केवल 30 और उम्मीदवारों के नाम घोषित करने हैं. एनडीए के घटक दलों के बीच बीते रविवार को राज्य की 243 विधानसभा सीटों पर सहमति बनी. बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में इस बार सीटों का बंटवारा इस तरह किया गया है कि बीजेपी और जेडीयू दोनों को एकसमान 101 सीटें मिलीं जबकि एनडीए गठबंधन के अन्य साझेदारों चिराग पासवान की लेजेपी (राम विलास) को 29 तो जीतन राम मांझी की हम और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएम को छह-छह सीटें दी गई हैं.

बीजेपी ने अपने पूर्व विधायकों के टिकट काट कर नए प्रत्याशियों को उतारा है उससे पार्टी की जोखिम उठाने की क्षमता और सत्ता विरोधी लहर को काटने का स्पष्ट संदेश जाता है. बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य के अपने दो प्रमुख चेहरों को सीधे चुनावी मैदान में उतारकर एक बड़ा राजनीतिक संदेश देने का काम भी किया है.

उप-मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी इस समय विधान परिषद के सदस्य और राज्य में बीजेपी के अध्यक्ष भी हैं. उन्हें तारापुर विधानसभा सीट से प्रत्याशी बनाया गया है. बीजेपी का यह कदम न केवल पार्टी के भीतर उनकी केंद्रीय भूमिका को और मजबूत करता दिखता है बल्कि उन्हें सीधे जनता के बीच ले जाकर 'मुख्यमंत्री पद के संभावित चेहरे' के रूप में स्थापित करने की रणनीति के तौर पर भी देखा जा सकता है. यह फैसला एक युवा ओबीसी (कोइरी/कुशवाहा) के चेहरे को फ्रंट पर लाने का प्रयास है. इस सीट पर जीत या हार सम्राट चौधरी का जहां भविष्य तय करेगी वहीं पार्टी ने यह संदेश देने में कोई कोताही नहीं बरती है कि राज्य में बीजेपी का नेतृत्व पिछड़े वर्ग से ही होगा.

बिहार के वर्तमान उप-मुख्यमंत्री बीजेपी के सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा
Photo Credit: PTI

 राज्य के दूसरे उप-मुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा अगड़े भूमिहार समुदाय से आते हैं उन्हें उनकी पारंपरिक सीट लखीसराय से फिर उतारा गया है. यह केंद्रीय नेतृत्व की उनमें भरोसे का परिचायक है. 

वरिष्ठ नेताओं का टिकट काटने का कड़ा फैसला

केंद्रीय नेतृत्व ने इस बार बिहार बीजेपी के कुछ बड़े नामों को कड़ा संदेश भी दिया है. इस सूची में कुछ बड़े और अनुभवी नामों का टिकट काटना चौंकाने वाला तो है पर यह बीजेपी के 'बदलाव और जीत की क्षमता' पर जोर देने के संदेश को मजबूत करता है. टिकट काटे जाने में सबसे बड़ा नाम पटना साहिब से छह बार के विधायक और वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष नंदकिशोर यादव का है, जिसे एक बड़ा राजनीतिक झटका माना जा रहा है. हालांकि, उन्हें टिकट न मिलने के पीछे पार्टी की 'युवा पीढ़ी को मौका' देने की नीति हो सकती है क्योंकि उनकी जगह युवा रत्नेश कुशवाहा को टिकट दिया गया है.

अन्य वरिष्ठ चेहरे जिनका टिकट काटा गया है उनमें कुम्हरार से अरुण सिंह (जिनकी जगह संजय गुप्ता को टिकट मिला), पूर्व मंत्री रामप्रीत पासवान (राजनगर सुरक्षित सीट से सुजीत पासवान उतारे गए), मोतीलाल प्रसाद (रीगा से बैद्यनाथ प्रसाद को टिकट), अमरेंद्र सिंह , रामसूरत राय, प्रणव कुमार (मुंगेर से प्रणय प्रत्याशी), मिथिलेश कुमार (सीतामढ़ी से सुनील पिंटू उम्मीदवार होंगे) जैसे कुछ अन्य मौजूदा विधायक शामिल हैं. पार्टी ने अनुभव और वरिष्ठता को एक ओर हटाते हुए केवल जीत की संभावना, युवा शक्ति और परिवर्तन को मानदंड बनाया है.

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जाति समीकरण: 'सबका साथ' का संतुलन

बिहार की राजनीति जातिगत समीकरणों पर टिकी है, और भाजपा की पहली सूची इस संतुलन को साधने की एक सावधानीपूर्वक कोशिश है. पार्टी की पहली सूची में मोटे तौर पर पिछड़ी और ओबीसी जाति समूहों पर खास ध्यान दिया गया है. 
कुशवाहा और कोइरी फैक्टर: सम्राट चौधरी को तारापुर से उतारना और ओबीसी/ईबीसी को मजबूत प्रतिनिधित्व देना यह संकेत देता है कि बीजेपी, नीतीश कुमार की पारंपरिक एम-वाई (मुस्लिम-यादव) से अलग वोट बैंक (कुशवाहा, कुर्मी, ईबीसी) को निर्णायक रूप से अपनी तरफ खींचना चाहती है.

71 उम्मीदवारों की यह सूची पूरे बिहार में पार्टी के प्रभाव क्षेत्रों को दर्शाती है और भविष्य की विस्तार योजनाओं का संकेत देती है.

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पटना और मगध क्षेत्र पर फोकस (शहरी/अर्ध-शहरी)

पटना की सीटें: दीघा, बांकीपुर, कुम्हरार, पटना साहिब जैसी प्रतिष्ठित शहरी सीटों पर पूर्व प्रत्याशियों को बरकरार रखा गया है. नितिन नवीन (बांकीपुर) और संजीव चौरसिया (दीघा) जैसे युवा और स्थापित चेहरों पर विश्वास को दोहराया गया है. पटना साहिब में नया चेहरा (रत्नेश कुशवाहा) लाकर पार्टी ने शहरी सीटों पर परिवर्तन लाने के साथ ही जोखिम लेने का संकेत भी दिया है.

गया टाउन और मगध की सीटें: प्रेम कुमार (गया टाउन) जैसे दिग्गज नेताओं को फिर से टिकट मिला है, जो मगध क्षेत्र में उनके तीन दशक से चले आ रहे प्रभाव का परिचायक है. इस सीट पर 1990 से जीतते चले आ रहे प्रेम कुमार का यहां के वैश्य समाज पर कड़ी पकड़ है जो 20-25 प्रतिशत की संख्या के साथ इस सीट पर किंग मेकर हैं.

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मिथिलांचल, सीमांचल और पूर्वी-पश्चिमी चंपारण

दरभंगा और मधुबनी में संजय सरावगी (दरभंगा), नितीश मिश्रा (झंझारपुर), विनोद नारायण झा (बेनीपट्टी) जैसे वरिष्ठ और अनुभवी चेहरों को बनाए रखना दर्शाता है कि पार्टी मिथिलांचल में अपने कोर वोट बैंक (ब्राह्मण) और मजबूत संगठनात्मक आधार पर निर्भर है. सीमांचल की सीटें, किशनगंज से स्वीटी सिंह और कटिहार से तारकिशोर प्रसाद जैसे चेहरों को उतारना इस क्षेत्र में (जहां अल्पसंख्यक आबादी निर्णायक है) अपने मौजूदा आधार को बचाने और विस्तार करने की रणनीति मानी जा सकती है.

पूर्व मुख्यमंत्री रेणु देवी (बेतिया) और प्रमोद कुमार (मोतिहारी) जैसे अनुभवी विधायकों को टिकट दिया गया है, जो पूर्वी और पश्चिमी चंपारण (उत्तर बिहार) के महत्त्वपूर्ण जिलों में स्थिरता और उनकी संगठनात्मक पकड़ का उदाहरण है.

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Photo Credit: BJP

'एंटी-इनकम्बेंसी' और नए चेहरे

पार्टी ने 'युवा जोश और अनुभवी स्थिरता' के मिश्रण का सावधानीपूर्वक उपयोग किया है. नए और युवा चेहरे में अंतरराष्ट्रीय शूटर श्रेयसी सिंह जमुई से उतारी गई हैं. बीजेपी इससे स्टार पावर और युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता को भुनाना चाहती है. तो भागलपुर जैसी महत्वपूर्ण सीट से रोहित पांडेय जैसे नए उम्मीदवार को उतारना एंटी-इनकम्बेंसी को खत्म करने के साथ-साथ नई ऊर्जा को लाने का प्रयास भी है. पार्टी ने कुम्हरार से भी नए चेहरे संजय गुप्ता को उतारा है. यह जीत की संभावना को सबसे ऊपर रखना चाहती है. 

'रिपीट' की रणनीति

बीजेपी ने जिन 71 सीटों पर अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा की है उनमें से 50 से अधिक पूर्व विधायक हैं, उन्हें दोबारा मौका दिया गया है. यह ये भी बताता है कि पार्टी को राज्य स्तर पर कोई एंटी इन्कम्बेंसी फैक्टर नहीं दिखा है. बीजेपी की पहली सूची एक रणनीतिक के तहत सावधानीपूर्वक लिया गया संतुलित फैसला दिखता है. जहां जातिगत समीकरणों को साधने की व्यापक कोशिश की गई है तो अपने सवर्ण वोटबैंक को मजबूती से बनाए रखते हुए ओबीसी और ईबीसी में पैठ बनाने पर विशेष जोर दिया गया लगता है. हालांकि कई बड़े नामों को टिकट न दिया जाना पार्टी में असंतोष पैदा कर सकता है. लिहाजा यहां से आगे इस संभावित असंतोष का प्रबंधन किया जाना अहम होगा क्योंकि ऐसा नहीं करने की स्थिति में फायदा महागठबंधन को पहुंच सकता है. 

कुल मिलाकर, बीजेपी की यह पहली सूची सत्ता में वापसी के साथ साथ भविष्य की राजनीति की नींव रखने के रूप में भी देखा जा सकता है. हां पहली सूची में केवल 9 महिला कैंडिडेट को टिकट दिया जाना आधी आबादी को तरजीह दिए जाने के वचन के अनुरूप नहीं है. फिलहाल अगली सूची का इंतजार है जिससे यह स्पष्ट होगा कि पार्टी पिछले चुनाव में हारी हुई सीटों पर किस तरह के नए और आक्रामक दांव लगाती है.

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