- बिहार में जेल में बंद उम्मीदवार भी चुनाव लड़ते हैं और जीतते हैं, जो राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बन गया है.
 - Representation of the People Act के अनुसार, गंभीर अपराध में दोषी न होने पर चुनाव लड़ना कानूनी रूप से संभव है.
 - 2020 के चुनावों में 68 प्रतिशत विधायको पर आपराधिक मामले दर्ज थे,.
 
बिहार की राजनीति हमेशा से दिलचस्प रही है. लेकिन जितनी दिलचस्प इसकी जमीन है, उतनी ही उलझी हुई इसकी सियासत भी. यहां सत्ता का रास्ता कई बार जेल की सलाखों के बीच से होकर गुजरा ह. जब कोई उम्मीदवार बैरक में बंद रहते हुए नामांकन दाखिल करता है और फिर वहीं कैदी लोकतंत्र के उत्सव में विजयी घोषित होता है तो सवाल उठता है, क्या बिहार में जेल जाना राजनीति की विफलता है या उसकी नई पहचान?
यह कहानी सिर्फ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की नहीं, बल्कि बिहार के लोकतांत्रिक चरित्र की परतें खोलती है. ‘जेल से चुनाव लड़ना और जीतना' अब कोई असाधारण घटना नहीं, बल्कि राजनीति का स्वीकार्य हिस्सा बन चुका है. मोकामा से ‘छोटे सरकार' के नाम से मशहूर अनंत सिंह इसका जीवंत उदाहरण हैं. 2020 में जब वे जेल में थे, तब भी उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. 2015 में पटना के गैंगस्टर से नेता बने रितलाल यादव ने भी जेल में रहते हुए विजय हासिल की थी. अब 2025 के चुनाव में शरजील इमाम, जो फिलहाल जेल में बंद हैं, बहादुरगंज सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं. ये घटनाएं दिखाती हैं कि बिहार की सियासत में सलाखें अब दीवार नहीं रहीं, बल्कि राजनीतिक मंच का हिस्सा बन चुकी हैं.
जेल में रहते हुए जीत दर्ज की...
कानूनी रूप से देखा जाए तो Representation of the People Act, 1951 के अनुसार, सिर्फ़ वही व्यक्ति चुनाव लड़ने से वंचित होता है जिसे किसी गंभीर अपराध में दोषी ठहराया गया हो. यानी मुकदमे में जेल जाना या अभियुक्त होना स्वतः अयोग्यता नहीं बनाता. इसी खांचे का फायदा उठाकर बिहार में कई ऐसे उम्मीदवार सामने आए जिन्होंने जेल में रहते हुए लोकतंत्र का खेल खेला और अक्सर जीत भी दर्ज की.
आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का जीत प्रतिशत बढ़ा
Association for Democratic Reforms (ADR) की रिपोर्ट इस प्रवृत्ति को और स्पष्ट करती है. 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में 68% विजेताओं ने अपने ऊपर आपराधिक मामलों की जानकारी दी थी. यही नहीं, 2025 के पहले चरण में नामांकन दाखिल करने वाले 1,303 प्रत्याशियों में से 32% पर आपराधिक केस दर्ज हैं और लगभग 27% पर गंभीर आरोप जैसे हत्या, हत्या का प्रयास और महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज हैं. आंकड़े बताते हैं कि “साफ-सुथरे” उम्मीदवारों की जीत दर लगातार गिरती जा रही है, जबकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का जीत प्रतिशत बढ़ता जा रहा है.
यह चलन सिर्फ अपराध और राजनीति के गठजोड़ का परिणाम नहीं है, बल्कि बिहार के सामाजिक ढांचे की भी कहानी कहता है. ग्रामीण इलाकों में, जहां कानून-व्यवस्था अक्सर कमजोर है, वहां बाहुबल और दबदबे का सीधा अनुवाद “नेतृत्व” में होता है. जनता उसे चुनती है जो ‘समस्या हल' कर सके, भले ही उसके खिलाफ मुकदमे हों. ऐसे में जेल जाना किसी उम्मीदवार की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी ताकत की कहानी बन जाता है “मैंने संघर्ष झेला है, मैं लड़ाकू हूं,” यही छवि वोट में बदल जाती है.
68% विधायक ऐसे हों जिन पर आपराधिक मामले दर्ज
राजनीतिक दल भी इस गणित को भली-भांति समझते हैं. कई बार वे जानते हैं कि अभियुक्त उम्मीदवार की ‘ग्राउंड पर पकड़' उन्हें साफ-सुथरे चेहरे से अधिक सीट दिला सकती है. यही कारण है कि लगभग हर बड़े दल ने कभी न कभी ऐसे प्रत्याशियों को टिकट दिया है जिनके खिलाफ गंभीर आरोप दर्ज हैं. यह उस लोकतंत्र का विरोधाभास है, जहां अपराध का मुकदमा चुनावी रणनीति बन गया है. लेकिन इसका असर केवल छवि तक सीमित नहीं रहता यह लोकतांत्रिक संस्थाओं की जड़ों को भी कमजोर करता है. जब 68% विधायक ऐसे हों जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, तो जनता का भरोसा डगमगाने लगता है. जवाबदेही की जगह दबदबा ले लेता है. नतीजतन, विकास की बहस हाशिये पर चली जाती है, और राजनीति उस दिशा में मुड़ जाती है जहां ‘शक्ति' ही सबसे बड़ा नैतिक तर्क बन जाती है.
बिहार के इतिहास में यह कोई नया अध्याय नहीं है. 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने चारा घोटाले के आरोपों के बावजूद राजनीति में अपनी पकड़ बनाए रखी. लेकिन आज परिदृश्य बदल गया है. अब यह अपवाद नहीं, परंपरा बन चुका है और यही सबसे बड़ा खतरा है. जब जनता “जेल” को “जनसंघर्ष” का प्रतीक समझने लगती है, तब लोकतंत्र अपनी नैतिक दिशा खोने लगता है.
प्रश्न यह नहीं कि कोई उम्मीदवार जेल से चुनाव क्यों लड़ता है. प्रश्न यह है कि जनता ऐसे उम्मीदवारों को क्यों जिताती है? क्या यह प्रणाली में विश्वास की कमी है, या समाज में यह धारणा कि ‘साफ-सुथरा आदमी' राजनीति में टिक नहीं सकता? शायद बिहार का मतदाता हर बार ‘स्थिरता' के नाम पर उस परंपरा को पोषित कर देता है, जो लोकतंत्र की आत्मा को धीरे-धीरे खोखला कर रही है.
बिहार की जेलों से लेकर विधानसभा के गलियारों तक यह कथा एक ही बात कहती है कि शक्ति और राजनीति का समीकरण अभी भी नैतिकता से अधिक मजबूत है. सवाल अब यह है कि क्या अगला चुनाव इस परंपरा को जारी रखेगा, या कोई नई कहानी लिखी जाएगी. ऐसी कहानी जहां जीत सलाखों के भीतर नहीं, जनसेवा की रोशनी में तय होगी.
श्रेष्ठा नारायण की रिपोर्ट














