लालू परिवार में फूट से BJP को फायदा! साधु से रोहिणी तक... गहरी हैं विवाद की जड़ें, चक्रव्यूह में फंसे तेजस्वी

तेजस्वी के लिए 2029 लोकसभा चुनाव तक खुद को फिर से खड़ा करना सबसे बड़ी चुनौती है. अगर तेजस्वी परिवारिक सुलह, पार्टी सुधार और नई रणनीति पर फोकस करते हैं, तो वापसी संभव हो सकती है, वरना राजद का भविष्य अनिश्चित हो सकता है.

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  • बिहार चुनाव में आरजेडी की हार के बाद लालू परिवार में गंभीर विवाद उभर आया, जिससे परिवार के कई सदस्य अलग हो गए
  • रोहिणी आचार्य ने परिवार के सदस्यों पर अपमान और दुर्व्यवहार का आरोप लगाकर राजनीति और परिवार छोड़ने का ऐलान किया
  • परिवार में चल रहे विवाद से आरजेडी की एकजुटता पर चोट लगी है, जिससे बीजेपी को बिहार में राजनीतिक लाभ मिल सकता है
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पटना:

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों के बाद, लालू प्रसाद यादव के परिवार में गंभीर विवाद उभर कर सामने आया है. लालू यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने राजनीति और परिवार छोड़ने का ऐलान कर दिया है. उन्होंने परिवार के सदस्यों पर अपमान और दुर्व्यवहार का आरोप लगाया है. इसके बाद तीन अन्य बेटियां भी पटना के घर से निकल गईं. बताया जाता है कि यह विवाद RJD की हार के बाद पार्टी की समीक्षा बैठक से भड़का, जहां रोहिणी को कथित तौर पर अपमानित किया गया.

लालू परिवार में इस कलह से बीजेपी को क्या फायदा हो सकता है?

ऐसा विवाद आरजेडी जैसी मजबूत विपक्षी पार्टी को कमजोर करता है, जो पूर्ण रूप से पारिवारिक राजनीति पर टिकी हुई है. बीजेपी, जो बिहार में एनडीए के साथ चुनाव जीत चुकी है, उसको इससे कई राजनीतिक फायदे मिल सकते हैं.

1. आरजेडी की एकजुटता पर चोट

लालू परिवार आरजेडी का केंद्र है. रोहिणी और दूसरी बेटियों का विद्रोह पार्टी में फूट डाल सकता है, खासकर तेजस्वी यादव की अगुवाई पर सवाल उठा सकता है. इससे विपक्षी गठबंधन कमजोर होगा और बीजेपी को बिहार में अपनी सत्ता मजबूत करने का मौका मिलेगा.

2. वंशवादी राजनीति पर हमला

बीजेपी लंबे समय से विपक्ष पर ‘परिवारवाद' का आरोप लगाती रही है. यह घटना उन्हें राजद को ‘पितृसत्तात्मक और महिला विरोधी' बताने का हथियार दे देगी. रोहिणी के आरोपों को आधार बनाकर बीजेपी महिलाओं के सशक्तीकरण का मुद्दा उठा सकती है, जो उनके वोट बैंक खासकर महिलाओं को मजबूत करेगा.

3. चुनावी लाभ

बिहार चुनाव में एनडीए की जीत के ठीक बाद यह विवाद विपक्ष की हताशा को उजागर करता है. इससे बीजेपी को 2029 लोकसभा चुनाव तक बिहार में अपनी पकड़ मजबूत रखने में मदद मिलेगी, क्योंकि राजद जैसी पार्टियां आंतरिक कलह से जूझेंगी.

कुल मिलाकर, यह बीजेपी के लिए ‘गिफ्ट' जैसा है, जो उनकी राजनीतिक रणनीति को मजबूत बनाता है. हालांकि, अगर राजद अपने इस पारिवारिक कलह को जल्द से जल्द दूर करने में सफल हो जाती तो डैमेज कंट्रोल किया जा सकता है जैसा कि उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने किया.

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ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब लालू प्रसाद यादव के परिवार में आंतरिक कलह हुआ हो -

लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी का परिवार बिहार की राजनीति का केंद्र रहा है, लेकिन पारिवारिक कलह और उत्तराधिकार की लड़ाई ने इसे कई बार सुर्खियों में लाकर खड़ा किया है. ये झगड़े ज्यादातर राजद की आंतरिक राजनीति, उत्तराधिकार और व्यक्तिगत मतभेदों से जुड़े रहे हैं.

1. 1990 में - ससुराल पक्ष के साथ शुरुआती विवाद साधु यादव और सुभाष यादव

  • लालू के मुख्यमंत्री बनने के बाद राबड़ी देवी के भाई साधु यादव और सुभाष प्रसाद यादव का राजनीतिक प्रभाव बढ़ा. लेकिन 1990-2000 के बीच सत्ता के बंटवारे और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से परिवार में दरार पड़ी.
  • साधु यादव ने कई बार लालू पर ‘परिवार को नजरअंदाज करने' का आरोप लगाया, जिससे ससुराल पक्ष अलग-थलग महसूस करने लगा. यह राजद के गठन 1997 के समय भी जारी रहा, जब साधु ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा.
  • इसने परिवार की एकजुटता पर पहली बड़ी चोट की, हालांकि ये मामला सार्वजनिक रूप से कम बाहर आया.

2. 2017 में - तेज प्रताप यादव का तलाक विवाद और उत्तराधिकार की पहली लड़ाई

  • लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव की 2018 में ऐश्वर्या राय से शादी के बाद तलाक की मांग ने परिवार को हिला दिया. तेज प्रताप ने पत्नी पर ‘धोखा' का आरोप लगाया, जबकि परिवार ने इसे दबाने की कोशिश की.
  • यह विवाद लालू के चारा घोटाला केस के बीच हुआ, जब तेजस्वी को उत्तराधिकारी बनाया गया. तेज प्रताप ने ‘अनदेखी' का शिकार होना महसूस किया, जिससे भाइयों के बीच तनाव बढ़ा.
  • इसका असर ये हुआ कि राजद में तेज प्रताप की भूमिका कम हुई और यह परिवारवाद पर सवाल उठाने का एक आधार बन गया.

3. मई 2025 में - तेज प्रताप यादव का निष्कासन – ‘अनैतिक व्यवहार' का आरोप

  • 24 मई 2025 को तेज प्रताप का एक पोस्ट वायरल हुआ, जिसमें उन्होंने किसी महिला के साथ ‘12 साल के रिश्ते' का दावा किया. लालू ने इसे ‘गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार' बताते हुए 25 मई को तेज प्रताप को राजद से 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया और परिवार से भी अलग कर दिया.
  • तेज प्रताप ने ठीकरा तेजस्वी के करीबी संजय यादव पर फोड़ा, उन्हें ‘जयचंद' कहा. इस विवाद ने चुनाव से पहले राजद की छवि को नुकसान पहुंचाया.
  • इसका असर ये हुआ कि तेज प्रताप ने स्वतंत्र रूप से महुआ सीट से चुनाव लड़ा और हार गए, लेकिन परिवार में स्थायी फूट पड़ गई.

4. सितंबर 2025 में - रोहिणी आचार्य का संजय यादव पर हमला

  • लोकसभा चुनाव 2024 में सरण सीट से हारने के बाद रोहिणी आचार्य ने तेजस्वी के सलाहकार संजय यादव को ‘जयचंद' कहा. उन्होंने सोशल मीडिया पर परिवार के सभी सदस्यों को अनफॉलो कर दिया.
  • यह उत्तराधिकार और पार्टी में प्रभाव के लिए लड़ाई का संकेत था, जहां रोहिणी को ‘बाहरी' समझा गया.

5. नवंबर 2025 में - बिहार चुनाव हार के बाद वर्तमान संकट – रोहिणी और बहनों का विद्रोह

  • बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राजद की हार केवल 25 सीटें मिलने के ठीक बाद 15 नवंबर को रोहिणी आचार्य ने तेजस्वी और उनके सहयोगियों संजय यादव, रमीज नेमत खान पर गंभीर आरोप लगाए. उन्होंने दावा किया कि चुनावी समीक्षा बैठक में उन्हें गालियां दी गईं, चप्पल से मारने की कोशिश हुई, और उनकी दान की गई किडनी को ‘गंदी' कहा गया.
  • रोहिणी ने राजनीति छोड़ने और परिवार से ‘नाता तोड़ने' का ऐलान किया. 16 नवंबर को तीन अन्य बहनों रागिनी, चंदा, राजलक्ष्मी ने भी पटना के 10 सर्कुलर रोड स्थित घर छोड़ दिया और दिल्ली चली गईं. इधर तेज प्रताप ने रोहिणी का समर्थन किया.

ये झगड़े राजद की ‘परिवारवाद' वाली राजनीति को कमजोर कर रहे हैं, जो पहले ही चुनावी हार से जूझ रही है. पुराने विवाद जैसे चारा घोटाला ने परिवार को कानूनी दबाव में रखा, लेकिन हाल के घटनाक्रम उत्तराधिकार की लड़ाई को उजागर कर रहे हैं. अगर सुलह नहीं हुई, तो 2029 लोकसभा चुनाव तक राजद का भविष्य खतरे में पड़ सकता है.

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तेजस्वी यादव की राजनीतिक चुनौतियां

बिहार विधानसभा चुनाव में राजद की करारी हार के बाद तेजस्वी यादव, जो पार्टी के चेहरे और विपक्ष के नेता हैं, कई मोर्चों पर घिर गए हैं. राजद को महज 25 सीटें मिलीं, जबकि एनडीए ने शानदार जीत दर्ज की. यह हार न केवल संख्यात्मक है, बल्कि तेजस्वी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़े करती है. परिवारिक कलह, गठबंधन की दरारें और वोटरों का अस्वीकार्यता जैसे मुद्दे उनकी राह में सबसे बड़ी बाधाएं बन गए हैं.

1. चुनावी हार और नेतृत्व पर सवाल

राजद की 25 सीटों वाली हार तेजस्वी की ‘बिहार अधिकार यात्रा' और बेरोजगारी-महंगाई जैसे मुद्दों को जनता ने ठुकरा दिया. लोगों का मानना है कि बिहार बदल गया है, कल्याणकारी योजनाओं और शासन पर फोकस हो गया है, जबकि राजद अभी भी जातिगत राजनीति पर अटकी हुई है. राघोपुर सीट से उनकी जीत के बावजूद, राज्य स्तर पर अस्वीकृति एक अस्तित्विक संकट पैदा कर रही है.

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2. गठबंधन में तनाव और विपक्ष की कमजोरी

INDIA गठबंधन (राजद+कांग्रेस) में दरारें साफ दिख रही हैं. तेजस्वी की रणनीति नीतीश कुमार को काउंटर करने में नाकाम रही, जबकि बीजेपी ने अपनी ‘विकास यात्रा' से वोट बटोरे. राहुल गांधी की यात्रा भी फेल हुई, जो तेजस्वी को कमजोर करती है. अब विपक्षी एकता बनाए रखना चुनौतीपूर्ण होगा, क्योंकि कांग्रेस और दूसरी सहयोगी राजद पर हार का ठीकरा फोड़ सकते हैं.

3. वोटरों में अस्वीकार्यता और छवि निर्माण

बिहार के वोटर तेजस्वी को अभी भी पूरी तरीके से नेता के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. 2020 में डिप्टी सीएम रहते हुए भी वे सत्ता से चूक गए, और 2025 में यह ट्रेंड जारी रहा. जातिगत समीकरणों के बावजूद, युवाओं और महिलाओं में उनकी अपील कमजोर साबित हुई. बीजेपी और आरएसएस की संगठनात्मक ताकत के आगे राजद की कमजोर ग्रासरूट मशीनरी एक बड़ी समस्या बन गई है.

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5. कानूनी और व्यक्तिगत दबाव

चारा घोटाले से जुड़े पुराने केसों के अलावा, नई जांचें और बीजेपी के लगातार हमलों का जवाब तेजस्वी के पास है नहीं. परिवारिक कलह ने बीजेपी के आरोपों और तीखा बना दिया है.

तेजस्वी के लिए 2029 लोकसभा चुनाव तक खुद को फिर से खड़ा करना सबसे बड़ी चुनौती है. अगर तेजस्वी परिवारिक सुलह, पार्टी सुधार और नई रणनीति पर फोकस करते हैं, तो वापसी संभव हो सकती है, वरना राजद का भविष्य अनिश्चित हो सकता है. तेजस्वी यादव को परिवार के साथ-साथ पार्टी को भी एक साथ लेकर चलना पड़ेगा और जनता के बीच जाकर जमीन पर जमकर काम करना पड़ेगा.

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