- एनडीए और महागठबंधन ने रैलियों की संख्या और नेताओं की सक्रियता से सीधे जनता तक पहुंचने की रणनीति अपनाई है
- PM मोदी, अमित शाह और नीतीश कुमार ने मुख्य रूप से विकास, सुरक्षा और परिवारवाद पर बड़ी रैलियां की हैं
- तेजस्वी यादव ने बेरोजगारी और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों पर 150 से अधिक रैलियां कर जनसमर्थन बढ़ाया है
धूल और उम्मीदों से भरा बिहार का चुनावी माहौल इस बार केवल नारों से नहीं, बल्कि रैलियों की संख्या और नेताओं की मेहनत से भी गूंज रहा है. एक तरफ, एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) के अनुभवी नेता अपनी रैलियों की संख्या को विकास का प्रमाण बता रहे हैं. वहीं, महागठबंधन ने कम समय में दोहरी गति से जनसभाएं कर एनडीए को चुनौती दी है. ये आंकड़े बताते हैं कि इस बार सत्ता की लड़ाई सिर्फ मंच पर नहीं, बल्कि सीधे जनता तक पहुंचने की रफ्तार से तय होगी.
एनडीए का प्रदर्शन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित प्रमुख नेताओं ने लगभग 120 बड़ी रैलियां और रोड शो किए हैं. ये रैलियां मुख्य रूप से उन 60 सीटों पर हुईं, जहां पिछली बार मुकाबला कड़ा था. मुख्य विषय रहे, विकास, सुरक्षा और परिवारवाद पर हमला.
महागठबंधन का प्रदर्शन
तेजस्वी प्रसाद यादव और उनके सहयोगियों ने 150 से अधिक रैलियां की हैं. तेजस्वी ने एक दिन में 15-18 सभाओं का रिकॉर्ड भी बनाया. उनकी रैलियां खासकर बेरोज़गारी और पलायन वाले क्षेत्रों में हुईं, और मुख्य संदेश रहा 10 लाख सरकारी नौकरियाँ, महंगाई और सामाजिक न्याय.
यह साफ दिखाता है कि एनडीए अपनी स्थापित ताकत पर भरोसा कर रहा है, जबकि महागठबंधन सीधे जनता तक पहुंचने की रणनीति पर जोर दे रहा है.
जनता के मन में क्या
- मुंगेर के एक छोटे गांव में 65 वर्षीय किसान राम लखन सिंह कहते हैं, "मोदी जी आए हैं, तो भरोसा है कि बड़ा काम होगा. पिछली बार भी वोट दिया था. रैलियों में भीड़ तो दोनों तरफ है, पर देखना है कि वादों में कौन मजबूत है."
- वहीं, पश्चिमी चंपारण की इंजीनियरिंग ग्रेजुएट सुप्रिया कुमारी कहती हैं, तेजस्वी जी की रैलियों में सिर्फ युवा ही नहीं, हमारी मांएं भी जा रही हैं. जब वह नौकरी की बात करते हैं, तो लगता है हमारे पास विकल्प है. एनडीए की 120 रैलियों के मुकाबले, उनके नेता ने डेढ़ गुना से ज्यादा रैलियां की हैं, जिससे उनकी ऊर्जा साफ दिख रही है.
- राजनीतिक विश्लेषक डॉ. आशीष रंजन कहते हैं कि रैलियों की संख्या और नेताओं का ग्राउंड टाइम इस चुनाव का महत्वपूर्ण संकेत है. एनडीए अपने शासनकाल की उपलब्धियों पर भरोसा कर रहा है, जबकि महागठबंधन की रैलियों की संख्या से युवा और मतदाता सीधे जुड़ रहे हैं.
एनडीए की रैलियां मुख्य रूप से मिथिलांचल और मगध के ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में हुईं, जहां उनकी योजनाओं का प्रभाव गहरा है. महागठबंधन ने सीमांचल और अंग प्रदेश पर ध्यान दिया, जहां युवा और अल्पसंख्यक आबादी ज्यादा है. रैलियां सिर्फ भाषण देने का मंच नहीं, बल्कि यह संदेश देने का तरीका है, किसे, कहां और क्या संदेश देना है.
क्या रैलियां तय करेंगी भविष्य
आर्थिक दृष्टि से, हर रैली एक छोटी अर्थव्यवस्था बनाती है, भीड़ को संभालना, मंच निर्माण, परिवहन और सुरक्षा में खर्च. यह दिखाता है कि चुनावी मशीनरी कितनी मजबूत है और संसाधन कहां से आ रहे हैं. इस महासंग्राम में दोनों पक्षों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. रैलियों का आंकड़ा सवाल उठाता है, क्या संख्या ही सत्ता तय करती है? मंचों से दो आवाजें निकलीं एक ने अतीत की याद दिलाई, दूसरी ने भविष्य की आशा जगाई. दोनों ने ज्यादा भीड़ जुटाने, ज्यादा सीटें कवर करने और बड़े वादे करने की होड़ दिखाई. लेकिन लोकतंत्र में अंतिम फैसला तालियों से नहीं, मतदान केंद्र की चुप्पी में लिया जाता है. 2025 का चुनाव रैलियों की संख्या से नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों मतदाताओं के व्यक्तिगत निर्णय से तय होगा. जब मतगणना होगी, तब पता चलेगा कि बिहार की जनता ने 'तेज़ी' को चुना या 'अनुभव' को. इस बार की चुनावी कहानी रैलियों की संख्या से ही लिखी गई है. बिहार का मतदाता अब केवल दर्शक नहीं, बल्कि जागरूक और निर्णायक शक्ति बन चुका है.













