सारण की सियासत में एक वक्त था जब प्रभुनाथ सिंह का नाम ही यहां का पहचान हुआ करता था. सारण के किस विधानसभा सीट से किसे टिकट मिलेगा, कौन कहां का उम्मीदवार बनेगा, यह फैसला अक्सर उनके घर के दरवाजे पर तय होता था. लेकिन, अब हालात बदल गए हैं और उन्हीं प्रभुनाथ सिंह का परिवार टिकट पाने के लिए लाइन में खड़ा है. बनियापुर के विक्षुब्ध राजद विधायक केदारनाथ सिंह उनके छोटे भाई हैं, जिन्हें इस बार एनडीए का टिकट चाहिए. छपरा के पूर्व राजद विधायक और प्रभुनाथ सिंह के पुत्र रणधीर कुमार सिंह को मांझी सीट से जदयू का सिंबल चाहिए. भतीजा सुधीर सिंह तरैया सीट के दावेदार हैं, इन सभी टिकट की उम्मीद में पार्टी दफ्तर की चौखट पर है.
किंग मेकर से किंग सिफर तक
सारण की सियासत में कभी प्रभुनाथ सिंह और उनके परिजनों की छवि किंग मेकर की थी. अब वह छवि धूमिल पड़ती सी दिख रही है. अब सियासत की दुनिया में इस परिवार की पहले जैसी पकड़ नहीं रही. गांव-गांव चौक और हाट-बाजारों में इसी की चर्चा है. बनियापुर से मांझी विधानसभा क्षेत्र तक स्थानीय जदयू और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच मतभेद साफ झलक रहा है. एक कार्यकर्ता ने बताया कि पहले इनके इशारे पर नेता टिकट छोड़ देते थे, अब इन्हें खुद टिकट के लिए पैरवी करनी पड़ रही है.
प्रभुनाथ अध्याय का नया मोड़
सारण के राजनीति गलियारे में चर्चा है कि इस विधानसभा चुनाव में प्रभुनाथ परिवार की पकड़ कितनी बची है, यह टिकट बंटवारा के बाद साफ होगा. यह परिवार समता पार्टी और जदयू से लेकर राजद तक समय-समय पर टिकट बांटने की ताकत रखता था. कहावत बन गई थी कि सारण के मुख्यमंत्री हैं प्रभुनाथ और इनका इशारा ही दल के आलाकमान का फैसला है. मगर आज वक्त बदला है तो उनके परिजन टिकट पाने के लिए उसी आलाकमान का दरवाजा खटखटा रहे हैं.
कभी नीतीश तो कभी लालू के सियासी शेर
प्रभुनाथ सिंह ने 1985 में मशरख विधानसभा सीट से निर्दलीय विधायक बन राजनीति की शुरुआत की. साल 1990 में यही के जनता दल विधायक बन लालू प्रसाद के निकट आए. बात बिगड़ी तो साल 1995 में बिहार पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार बने और पराजय का स्वाद चखे. इस पराजय के बाद उन्होंने संसदीय राजनीति की राह पकड़ी और उनकी सियासी ऊंचाई बढ़ती चली गई. महाराजगंज संसदीय सीट से चार बार सांसद बने और सारण की राजनीति के पर्याय बन गए.
प्रभुनाथ सिंह साल 1998 में समता पार्टी में आए और फिर नीतीश कुमार के भरोसेमंद बने. साल 1999 से 2012 तक समता पार्टी और जदयू की राजनीति में इस कदर प्रभावशाली रहे कि सारण की विधानसभा सीटों की टिकट उन्हीं के मुहर से तय होती थीं. साल 2012 में नीतीश कुमार पर तानाशाही का आरोप लगाते हुए संबंध विक्षेद कर राजद का दामन थाम लिए. फिर लालू प्रसाद उन्हें सारण का शेर कहने लगे. इसके बाद हत्या के मामले में दोषी ठहराये जाने के बाद प्रभुनाथ सिंह जेल चले गये और परिवार की राजनीतिक जमीन खिसकने लगी. आज राजद से फिर इस सियासी परिवार का नाता टूट गया है और वे जदयू के हो गए हैं. जदयू सारण के इस पुराने राजनीतिक पकड़ वाले परिवार को कितना भाव देता है यह पार्टी के सिंबल बंटते ही साफ हो जाएगा.
(देवेंद्र कुमार श्रीवास्तव की रिपोर्ट...)