बिहार चुनाव : वामपंथी विचारधारा का गढ़ रही रोसड़ा पर है बीजेपी का कब्जा, कांग्रेस-RJD के लिए वापसी बड़ी चुनौती

रोसरा का चुनावी इतिहास बेहद दिलचस्प और उतार-चढ़ाव वाला रहा है. 1977 से लेकर अब तक इस सीट पर भाजपा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) दोनों ने चार-चार बार जीत दर्ज की है, जो यहां की जनता के वैचारिक ध्रुवीकरण को दर्शाता है.

विज्ञापन
Read Time: 4 mins

बिहार की रोसरा विधानसभा सीट समस्तीपुर जिले में स्थित है. रोसड़ा विधानसभा क्षेत्र (एससी- सुरक्षित) एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. ये सीट केवल चुनाव परिणामों के लिए नहीं  बल्कि अपने गहरे राजनीतिक इतिहास और बदलते सामाजिक समीकरणों के लिए जानी जाती है. दशकों तक यह सीट वामपंथी (सीपीएम) विचारधारा का गढ़ रही, लेकिन पिछले एक दशक में यहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपनी पैठ मजबूत की है.  2020 का विधानसभा चुनाव यहां की राजनीतिक दिशा का निर्णायक मोड़ साबित हुआ, जब भाजपा उम्मीदवार ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. बीजेपी के वीरेंद्र पासवान ने इंडियन नेशनल कांग्रेस के नागेंद्र कुमार पासवान विकल को 35744 वोटों के अंतर से हराया था. 35,744 वोटों का यह विशाल अंतर रोसरा की चुनावी राजनीति में भाजपा की ताकत को दर्शाता है. वीरेंद्र पासवान ने न केवल जीत दर्ज की, बल्कि 47.93 प्रतिशत वोट शेयर के साथ यह साबित किया कि इस सुरक्षित सीट पर मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा उनके समर्थन में मजबूती से एकजुट हुआ. कांग्रेस, महागठबंधन का हिस्सा होते हुए भी केवल 28.27 प्रतिशत वोटों पर सिमट गई, जबकि एलजेपी के कृष्ण राज ने भी 22,995 वोट (12.64 प्रतिशत) काटकर मुकाबले को और जटिल बना दिया था।

रोसरा का चुनावी इतिहास रहा है दिलचस्प

रोसरा का चुनावी इतिहास बेहद दिलचस्प और उतार-चढ़ाव वाला रहा है. 1977 से लेकर अब तक इस सीट पर भाजपा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) दोनों ने चार-चार बार जीत दर्ज की है, जो यहां की जनता के वैचारिक ध्रुवीकरण को दर्शाता है. यह आंकड़ा बताता है कि रोसरा कभी वामपंथ की लालिमा में रंगा था, लेकिन अब पूरी तरह से दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रभाव में है. 2020 में भाजपा उम्मीदवार वीरेंद्र पासवान ने यहां से जीत हासिल की थी. इससे पहले 2015 में कांग्रेस उम्मीदवार डॉ. अशोक कुमार ने इस सीट को अपने नाम किया. 2010 में भाजपा उम्मीदवार मंजू हजारी ने इस सीट पर जीत दर्ज की थी. 2015 के परिणाम पर अगर गौर करें तो कांग्रेस के डॉ. अशोक कुमार ने 85,506 वोट पाकर 34,361 वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी. यह जीत 2020 के परिणाम के ठीक विपरीत थी, जो दिखाता है कि रोसरा का मतदाता किसी एक पार्टी के प्रति स्थायी रूप से वफादार नहीं है, बल्कि वह गठबंधन की हवा और उम्मीदवार की स्थानीय अपील के आधार पर निर्णायक रूप से अपना निर्णय बदलता है. इससे पहले 2010 में, भाजपा की मंजू हजारी ने 12,119 वोटों के करीबी अंतर से जीत दर्ज की थी, जो इस क्षेत्र में भाजपा के उदय का शुरुआती संकेत था.

रोसड़ा एक अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट

रोसरा एक अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट है, जिसका अर्थ है कि यहां दलित समुदायों, विशेष रूप से पासवान और रविदास (यानी रविदास) जैसे समुदायों की राजनीति निर्णायक भूमिका निभाती है. 2020 में दोनों प्रमुख उम्मीदवारों का पासवान समुदाय से होना, इस समुदाय के राजनीतिक महत्व को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है. यह सीट दलित अस्मिता, आरक्षण और स्थानीय विकास के मुद्दों पर केंद्रित रहती है. यहां की राजनीति में महागठबंधन (राजद-कांग्रेस) का पारंपरिक दलित-अल्पसंख्यक आधार है, जिसे भाजपा ने केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के जरिए इस सीट पर पैठ बनाया है.

कांग्रेस और आरजेडी के लिए वापसी एक बड़ी चुनौती

रोसरा विधानसभा क्षेत्र वामपंथी इतिहास और वर्तमान भगवा प्रभाव के बीच एक पुल का काम करता है. यह सीट एक ऐसा राजनीतिक अखाड़ा है, जहां वामपंथ ने अपनी जड़ें खोई हैं और भाजपा ने उन्हें मजबूती से पकड़ लिया है. कांग्रेस और राजद के महागठबंधन के लिए इस चुनाव में रोसरा में वापसी एक बड़ी चुनौती होगी. उन्हें न केवल भाजपा की मजबूत पकड़ को तोड़ना होगा, बल्कि दलित वोटों के बिखराव को भी रोकना होगा. रोसरा की राजनीति का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या महागठबंधन दलित मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता दोबारा स्थापित कर पाता है या फिर वीरेंद्र पासवान के रूप में स्थापित भाजपा का नेतृत्व अपनी प्रचंड जीत की गति को बनाए रखता है.

Featured Video Of The Day
Sushant Singh Rajput की बहन Divya Gautam Digha से लड़ेंगी चुनाव | NDTV Exclusive
Topics mentioned in this article