बिहार चुनाव: कौन सी पार्टी किस समुदाय पर दांव खेल रही है? यहां जानिए पूरा लेखा-जोखा

बिहार के 2025 चुनाव में राजनीति फिर से अपने सामाजिक आईने में झांक रही है.यह सिर्फ वोटों की जंग नहीं, बल्कि उस सवाल का जवाब है कि सत्ता के केंद्र में कौन रहेगा और लोकतंत्र के प्रयोगशाला में जातिगत हिस्सेदारी के सवाल में किसे कितनी जगह मिल रही है.

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  • बिहार में 2023 के जातीय सर्वेक्षण के अनुसार ओबीसी और ईबीसी की कुल आबादी लगभग साठ प्रतिशत है
  • बीजेपी ने ऊंची जातियों को टिकट वितरण में अधिक प्राथमिकता दी है
  • बिहार विधानसभा चुनाव इस बार बेहद रोचक है कई नए जातिगत समीकरण एक मंच पर देखने को मिल रह हैं
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पटना:

भारत के दिल में जहां गंगा की हर लहर समाज की परतों जितनी गहरी और बहुरंगी है, वहां बिहार एक ज़िंदा कैनवास है जाति, समुदाय और संस्कृति के बारीक धागों से बुना हुआ. जैसे-जैसे नवंबर 2025 का चुनाव पास आ रहा है, बिहार का राजनीतिक आसमान भी मानसूनी बादलों की तरह भारी होता जा रहा है. कुछ बरसात उम्मीदों की, तो कुछ गड़गड़ाहट अनिश्चितताओं की. यह वही बिहार है जहां राजनीति सिर्फ सत्ता का खेल नहीं, बल्कि समाज की हर नस में बहती एक जटिल कहानी है. यहां हर जाति, हर तबका, हर बिरादरी किसी न किसी दल के रंग में रंगी है. और इन रंगों के बीच दो सबसे बड़ी नदियां बह रही हैं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और महागठबंधन, जो अपने-अपने किनारों पर अलग-अलग समाजों की उम्मीदों को साथ लेकर चल रही है. एक तरफ एनडीए, जो खुद को विकास, हिंदुत्व और स्थिरता का प्रतीक बताता है. दूसरी तरफ महागठबंधन, जो सामाजिक न्याय, समावेशिता और बहुजन प्रतिनिधित्व का दावा करता है.

असली खेल नारे या पोस्टरों से नहीं, टिकट बंटवारे से समझ आता है. यही वह पल है जब दल अपने दिल की बात दिखाते हैं. कौन किसके साथ खड़ा है, किसे ज़्यादा जगह दी गई, और कौन बस तालियों तक सीमित रह गया. दोनों गठबंधन लगभग दो दशक से बिहार के राजनीतिक मैदान के दो छोर पर खड़े हैं, लेकिन 2025 में यह लड़ाई पहले से कहीं ज़्यादा दिलचस्प है. 

लेकिन तमाम सवालों के जवाब को जानने से पहले हमें 2023 के जातीय सर्वेक्षण से मिली जनसंख्या की हकीकत को देखना होगा.  ध्यान देने वाली बात है कि 1930 की जनगणना के बाद भारत की किसी भी दशकीय जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया गया था. लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दूरदर्शिता दिखाते हुए 2023 में बिहार का जातीय सर्वेक्षण कराया, जो 2 अक्टूबर 2023 को पूरा हुआ.

उस सर्वे के मुताबिक बिहार की जातिगत तस्वीर इस प्रकार है:

  • ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग): 27.12%
  • ईबीसी (अति पिछड़ा वर्ग): 36.01%
  • अनुसूचित जाति (SC): 19.65%
  • अनुसूचित जनजाति (ST): 1.68%
  • उच्च जातियां: 15.52%
  • मुस्लिम: 17.70%

यानी, यह एक ऐसा सामाजिक मिश्रण है जहां हर तबका अपनी अहमियत रखता है, और इसी जटिल सामाजिक संरचना पर चुनावी रणनीतियों की इमारत खड़ी होती है.

एनडीए बनाम महागठबंधन: सामाजिक प्रोफाइल में लड़ाई कहां है?

पिछले दो दशकों से बिहार की राजनीति में दो ध्रुव हैं. एनडीए और महागठबंधन. ये दोनों गठबंधन न सिर्फ विचारों में बल्कि सामाजिक प्रतिनिधित्व के स्वरूप में भी पूरी तरह अलग हैं.

एनडीए में ऊंची जातियों का वर्चस्व: वजह क्या है?

2025 के नवंबर चुनाव के लिए एनडीए में टिकट बंटवारा लगभग हो गया है. उसमें जातीय वितरण कुछ इस प्रकार है:
85 सीटें ऊंची जातियों को, 67 ओबीसी को, 46 ईबीसी को, 38 एससी को और 2 एसटी को दी गई हैं.

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अब गौर कीजिए. बिहार में ऊंची जातियों की आबादी महज़ 15.52% है, लेकिन टिकट में उनका हिस्सा 30% से भी ज़्यादा है. यानी ओवर-रिप्रजेंटेशन चौंकाने वाला है.

ओवर-रिप्रजेंटेशन के क्या हैं कारण?

इसका पहला बड़ा कारण है प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी. पीके खुद ब्राह्मण (पांडेय) समुदाय से आते हैं और ऊंची जातियों के युवाओं में उनका असर बढ़ रहा है. एक प्री-पोल सर्वे के मुताबिक जनसुराज पार्टी को सबसे ज्यादा समर्थन शिक्षित शहरी ऊंची जातियों के 40 साल से कम उम्र के युवाओं में मिल रहा है. अमित शाह जब बिहार में संगठन की बैठकें कर रहे थे तो स्थानीय नेताओं ने यह सवाल उठाया कि पीके की पार्टी ऊंची जातियों के वोट बैंक में सेंध लगा सकती है. इसी खतरे को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने ऊंची जातियों को ज़्यादा टिकट देकर ‘PK फैक्टर' को न्यूट्रलाइज करने की कोशिश की है.

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दूसरा कारण बीजेपी की हिंदू एकता रणनीति है. पार्टी अब जातिगत सीमाओं से ऊपर जाकर एक “एकीकृत हिंदू पहचान” बनाने की कोशिश कर रही है. ऊंची जातियां, भले ही संख्या में कम हों, लेकिन बिहार की राजनीति में इनका प्रभाव ऐतिहासिक रूप से बड़ा रहा है.
कभी कांग्रेस का भी आधार यही तबका था- ऊंची जातियों के नेता और दलित-मुस्लिम वोट बैंक.

महागठबंधन में OBC की पकड़, लेकिन EBC रह गए पीछे

अब नज़र डालते हैं महागठबंधन पर. एनडीए की तुलना में लगभग आधा 42 टिकट ऊंची जातियों को दिया है, 117 ओबीसी को, 21 ईबीसी को और 29 टिकट मुसलमानों को दिए हैं (जिसमें से 18 टिकट सिर्फ आरजेडी ने दिए). स्पष्ट है कि ओबीसी की हिस्सेदारी ईबीसी की तुलना में कहीं ज़्यादा है, लेकिन यही बिहार का सामाजिक यथार्थ भी है. जहां यादव, कुर्मी, कुशवाहा जैसे ओबीसी समूह राजनीतिक रूप से अधिक संगठित हैं.

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महागठबंधन का यह वितरण बिहार की सांस्कृतिक तस्वीर को और संतुलित बनाता है. जहां हर समुदाय अपनी एक अलग पहचान रखता है लेकिन पूरे सामाजिक ताने-बाने में घुल-मिल जाता है.

2025 में एनडीए (बीजेपी, जेडीयू, एलजेपी और अन्य सहयोगी) ने टिकट वितरण में ऊंची जातियों को प्राथमिकता दी है, जबकि महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस, वामदल) ने निचली जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में ज़्यादा प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की है. दोनों गठबंधन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षित सीटों पर समान हिस्सेदारी रखते हैं. या कह सकते हैं कि चुनाव आयोग की तरफ से तय किए गए आरक्षण के मानक के अनुसार टिकट बंटवारा उनकी मजबूरी है. 

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एनडीए के भीतर टिकट बंटवारे का क्या है समीकरण?

एनडीए में बीजेपी और जेडीयू दोनों 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. लेकिन टिकट वितरण में अंतर साफ दिखता है.
बीजेपी ने ऊंची जातियों के 85 टिकटों में से 48 दिए हैं, जबकि जेडीयू ने केवल 22. स्पष्ट है कि बीजेपी ने अपना परंपरागत ऊंची जाति का आधार मज़बूत करने पर फोकस किया है.

दूसरी तरफ जेडीयू की रणनीति अलग है.

  • नीतीश कुमार की पार्टी लंबे समय से पिछड़े वर्गों की आवाज़ बनकर उभरी है. जेडीयू ने ईबीसी को 27 टिकट और ओबीसी को 37 टिकट दिए हैं, जबकि बीजेपी ने क्रमशः 14 और 20 सीटें दी हैं.
  • यह अंतर दोनों दलों की विचारधारा को साफ दिखाता है. बीजेपी जहां ऊंची जातियों की राजनीति पर टिके रहना चाहती है, वहीं जेडीयू समाज के वंचित तबकों को साथ लेकर चलने की कोशिश कर रही है

अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व: एनडीए की सबसे कमजोर कड़ी

बिहार में मुसलमानों की आबादी 17.7% है, लेकिन एनडीए ने सिर्फ 5 टिकट मुसलमानों को दिए हैं. जिनमें से 4 जेडीयू ने और 1 चिराग पासवान की एलजेपी ने दिया है. बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा. यह असमानता सिर्फ सांख्यिकीय नहीं बल्कि वैचारिक संकेत भी देती है. एनडीए का यह कदम मुस्लिम समुदाय को लगभग हाशिए पर धकेल देता है. राजनीतिक समावेशिता की बात करने वाले गठबंधन के लिए यह एक गंभीर विरोधाभास है.

बीजेपी बनाम जेडीयू: गठबंधन के भीतर भी दिखते हैं अलग-अलग विचार

अगर बीजेपी और जेडीयू के टिकट वितरण को साथ रखकर देखें तो एक दिलचस्प तस्वीर सामने आती है. बीजेपी जहां ऊंची जातियों की तरफ झुकी हुई दिखती है, वहीं जेडीयू पिछड़े और अल्पसंख्यक तबकों को ज़्यादा प्रतिनिधित्व दे रही है.
यानी, दोनों की विचारधाराएं अलग हैं, लेकिन सत्ता की गणित में एक-दूसरे को पूरा करती हैं.

नीतीश कुमार के 20 में से 17 साल मुख्यमंत्री रहने के दौरान यही साझेदारी बनी रही है. जहां बीजेपी का ऊपरी ढांचा और जेडीयू का जमीनी नेटवर्क एक-दूसरे का पूरक बना रहा.

बिहार का सामाजिक गणित और राजनीतिक भविष्य क्या है?

राजनीतिक विचारक सुनील खिलनानी अपनी किताब The Idea of India में लिखते हैं कि लोकतांत्रिक राजनीति ने जाति व्यवस्था की पारंपरिक सीमाओं को उलट दिया है. राजनीति ने जातियों को अपनी पहचान और अधिकार जताने का नया मंच दिया. वहीं राजनी कोठारी का मानना था कि जातीय राजनीति (क्षैतिज विभाजन) धार्मिक राजनीति (ऊर्ध्वाधर विभाजन) को कमजोर करती है. यानी मंडल की राजनीति, कमंडल पर भारी पड़ती है. नि: संदेह बिहार इसका जीवंत उदाहरण है.

यहां जाति आधारित राजनीतिक जागरूकता ने समाज को तुलनात्मक रूप से ज्यादा समानता दी है. जहां बंगाल जैसे राज्यों में आज भी “भद्रलोक” यानी ऊंची जातियों का वर्चस्व बना हुआ है, वहीं बिहार में पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग राजनीति के केंद्र में आ चुके हैं. इसलिए बिहार की राजनीति को समझना सिर्फ चुनावी गणित नहीं है यह एक सामाजिक मंथन है.

रोचक है 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव

2025 का बिहार चुनाव एक ऐसा आईना है जिसमें समाज की हर परत झलकती है. ऊंची जाति का वर्चस्व, पिछड़ों की आकांक्षा, दलितों की हिस्सेदारी और अल्पसंख्यकों की चिंता. एनडीए की रणनीति जहां ऊंची जातियों के वर्चस्व को बनाए रखने की दिखती है, वहीं महागठबंधन सामाजिक प्रतिनिधित्व के संतुलन पर दांव लगा रहा है.

अंततः बिहार का यह राजनीतिक परिदृश्य बताता है कि जाति न केवल अतीत की पहचान है बल्कि आज भी राजनीति की सबसे निर्णायक ताकत है. और जब तक यह सामाजिक समीकरण कायम है, तब तक बिहार की राजनीति इसी “जाति, समुदाय और गठबंधन” की तिकड़ी के इर्द-गिर्द घूमती रहेगी.

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