- बलरामपुर कटिहार जिले के बारसोई और बलरामपुर प्रखंडों को कवर करती है. यहां दो लाख छियासठ हजार से अधिक मतदाता हैं
- क्षेत्र की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि आधारित है जिसमें धान, मक्का, गेहूं, दालों की खेती और सीमापार व्यापार है
- मुस्लिम और यादव की संख्या अधिक होने से जातीय समीकरण और वामपंथ का प्रभाव चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाता है
बिहार की राजनीति में बलरामपुर विधानसभा सीट (संख्या 65) एक विशेष स्थान रखती है. कटिहार जिले की यह सीट न केवल मुस्लिम और यादव बहुल है, बल्कि यह लगातार वामपंथी दलों (खासकर CPI(ML)(L)) और विपक्षी गठबंधनों के लिए सीमांचल में एक मजबूत आधार रही है. बारसोई और बलरामपुर प्रखंडों को कवर करने वाला यह क्षेत्र 2008 में परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया. महानंदा नदी से घिरा यह क्षेत्र अपनी कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर बंगाल की झलक के लिए जाना जाता है.
सीट की पहचान और प्रमुख मुद्दे
बलरामपुर की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से धान, मक्का, गेहूं और दालों की खेती पर निर्भर है. जूट की खेती भी कुछ इलाकों में होती है. हालांकि, छोटे स्तर की चावल मिलों और स्थानीय व्यापारिक केंद्रों के बावजूद, बड़ी संख्या में स्थानीय लोग आजीविका की तलाश में मौसमी पलायन करते हैं. पश्चिम बंगाल की निकटता इसे रायगंज और डालकोला जैसे बड़े व्यापारिक केंद्रों से जोड़ती है, जिससे सीमा पार व्यापार भी एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है.
यहां के प्रमुख मुद्दे हैं:
पलायन: रोजगार की कमी के कारण मौसमी पलायन एक बड़ी चुनौती है.
आधारभूत संरचना: महानंदा नदी से घिरे होने के कारण बाढ़ और कमजोर सड़क संपर्क भी प्रमुख मुद्दे हैं।
कृषि संकट: किसानों को उपज का उचित मूल्य और सिंचाई की बेहतर सुविधाएँ मिलना हमेशा से चुनावी वादा रहा है।
वोट गणित: मुस्लिम-यादव समीकरण का प्रभाव
बलरामपुर विधानसभा क्षेत्र में जातीय समीकरण निर्णायक भूमिका निभाते हैं. यह क्षेत्र मुस्लिम और यादव बहुल है, और वामपंथी दल (CPI(ML)(L)) इन वर्गों के समर्थन से लगातार मजबूत रहे हैं.
बलरामपुर विधानसभा सीट कटिहार जिले के बारसोई और बलरामपुर प्रखंडों को कवर करती है. 2020 के आंकड़ों के अनुसार यहां कुल 2,66,446 पंजीकृत मतदाता हैं, जिनमें 1,41,033 पुरुष और 1,25,402 महिलाएं शामिल हैं. यह क्षेत्र महानंदा नदी से घिरा है और इसकी संस्कृति पर बंगाल की झलक भी देखने को मिलती है.
मुस्लिम बहुल होने के बावजूद, 2010 में यहां एक हिंदू उम्मीदवार को जीत मिली थी. यह इस बात का प्रमाण है कि वोटों का बंटवारा और विपक्षी दलों की रणनीति यहाँ की जीत-हार को सीधे प्रभावित करती है.
पिछली हार-जीत: वामपंथ का दबदबा
बलरामपुर सीट पर वामपंथी दल (CPI(ML)(L)) के नेता महबूब आलम का जबरदस्त प्रभाव रहा है.
2020 की जीत: 2020 में CPI(ML)(L) के महबूब आलम ने 104,489 वोट (51.11%) प्राप्त करते हुए VIP के वरुण कुमार झा को 53,597 मतों के भारी अंतर से हराया. यह जीत न केवल महबूब आलम की व्यक्तिगत लोकप्रियता बल्कि महागठबंधन के पक्ष में मजबूत लहर को भी दर्शाती है.
2010 का अपवाद: 2010 में निर्दलीय प्रत्याशी दुलाल चंद्र गोस्वामी की जीत एक दुर्लभ अपवाद थी. मुस्लिम वोटों के बहुकोणीय विभाजन (NCP, LJP, JDU, कांग्रेस द्वारा मुस्लिम प्रत्याशी उतारने के कारण) का सीधा फायदा गोस्वामी को मिला और उन्होंने महबूब आलम को मामूली अंतर से हराया. बाद में गोस्वामी जनता दल यूनाइटेड (JDU) में शामिल हो गए.
माहौल क्या है?
बलरामपुर में राजनीतिक माहौल पूरी तरह से महबूब आलम और CPI(ML)(L) की पकड़ के इर्द-गिर्द घूमता है.
वामपंथ की मजबूती: 2020 की रिकॉर्ड तोड़ जीत ने यह साबित कर दिया कि यह सीट वामपंथी विचारधारा और महागठबंधन के लिए एक अभेद्य किला बन गई है. वामपंथी दल यहां किसानों, भूमिहीनों और अल्पसंख्यकों के मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाते हैं।
एनडीए की चुनौती: एनडीए (BJP/JDU) के लिए यह सीट जीतना एक बड़ी चुनौती रही है. उन्हें 2010 की तरह ही विपक्षी वोटों के बिखराव या एक मजबूत मुस्लिम/यादव विरोधी लहर की आवश्यकता होगी.
भविष्य की दिशा: आने वाले चुनावों में, प्रमुख मुद्दा महबूब आलम के 53 हज़ार से अधिक मतों के भारी अंतर को पाटना होगा. बलरामपुर की राजनीति भविष्य में भी मुस्लिम-यादव-वामपंथी गठजोड़ बनाम एनडीए की एकजुटता और वोटों के विभाजन के बीच ही केंद्रित रहेगी.