तब बिछाईं 17 लाशें, अब 18वीं को सजा-ए-मौत... बांग्लादेश बनाने वाले हसीना परिवार संग ये कैसा सलूक

Sheikh Hasina sentenced to death: इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल (ICT) ने 'मानवता के खिलाफ अपराधों' के मामले में बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को दोषी ठहराया है. ट्रिब्यूनल ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई है.

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  • बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को मानवता के खिलाफ अपराधों के मामले में सजा-ए-मौत सुनाई गई है
  • 1975 में बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान के साथ परिवार को कुल 17 लोगों की हत्या एक साथ कर दी गई थी
  • अब 2024 में मानवता के खिलाफ अपराध के लिए शेख हसीना पर मुकदमा चलाकर उन्हें मौत की सजा दी गई है
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Sheikh Hasina sentenced to death: बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को मानवता के खिलाफ अपराध के मामले में सजा-ए-मौत दी गई है. बांग्लादेश में तख्तापलट के 15 महीने बाद शेख हसीना के लिए यह फैसला इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल बांग्लादेश (ICT-BD) ने सोमवार, 18 नवंबर को सुनाया. जिस बांग्लादेश में देश के संस्थापक की हत्या कर दी गई थी, वहीं आज उनकी बेटी को फांसी की सजा सुनाई गई है. आज शेख हसीना भारत में रहने को मजबूर हैं. यह कहानी बांग्लादेश की नींव रखने वाले उस परिवार की है, जिसकी कहानी ट्रेजडी से भरी हुई है. 

शेख मुजीबुर रहमान

जिस घर से बांग्लादेश की आजादी का ऐलान हुआ, वहीं एक दिन पूरी खामोशी के साथ वह आजादी की आवाज कुचल दी गई. 1975 में 15 अगस्त के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन की शुरुआत, जब मस्जिदों से अजान की आवाज हवा में गूंज रही थी, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि बांग्लादेश की राजधानी उस दिन इतिहास के सबसे खौफनाक अध्याय में दाखिल होने जा रही है. धानमंडी के 32 नंबर मकान में सब कुछ पहले की तरह शांत था, लेकिन कुछ ही पलों में वहां का हर कमरा, हर दीवार और हर कोना गोलियों की तड़तड़ाहट भरी आवाज और खून के छीटों से भर गया.

यह घर किसी आम नागरिक का नहीं था, यह बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान का घर था. लेकिन, 1975 की वह सुबह इस घर के इतिहास में सबसे काली सुबह बन गई. बंगबंधु का वह घर बांग्लादेश के संघर्ष, आंदोलन और स्वाधीनता का गवाह रहा था. उन्होंने 1949 में अवामी लीग की स्थापना की और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के लिए राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई शुरू की थी. 1970 के आम चुनावों में अवामी लीग को पूर्ण बहुमत मिला, लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान ने सत्ता हस्तांतरित नहीं की. इसके बाद शुरू हुई 1971 की मुक्ति संग्राम की लड़ाई, जिसमें भारत की मदद से पाकिस्तान को हराकर बांग्लादेश ने स्वतंत्रता पाई.

जनवरी 1972 में बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान देश के पहले प्रधानमंत्री बने थे. लेकिन 1975 तक आते-आते राजनीतिक अस्थिरता, प्रशासनिक चुनौतियों और असंतोष के कारण हालात बिगड़ने लगे. उसी साल जनवरी में उन्होंने राष्ट्रपति पद संभाला. इसके बावजूद, बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान किसी शाही महल में नहीं रहते थे. उनका साधारण दो मंजिला घर था, जैसे अन्य आम मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार का होता था, वह उसी में रहते थे. लेकिन राष्ट्रपति पद संभालने के सिर्फ 7 महीने बाद ही उन्हें अपनों ने धोखा दे दिया.

बांग्लादेश आवामी लीग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, बंगबंधु अक्सर कहा करते थे, "मेरी ताकत यह है कि मैं इंसानों से प्यार करता हूं. मेरी कमजोरी यह है कि मैं उन्हें बहुत ज्यादा प्यार करता हूं."

हालांकि, सैन्य तख्तापलट के दौरान सिर्फ बंगबंधु ही नहीं, बल्कि उनके परिवार के 17 सदस्यों की हत्या कर दी गई थी. उनकी बेटी शेख हसीना और उनकी बहन शेख रेहाना उस समय जर्मनी में थीं, इसीलिए दोनों बच गईं.

कोई युद्ध नहीं छिड़ा था. कोई विदेशी हमला नहीं हुआ था. ये सब तो बंगबंधु के अपने लोग थे. वही लोग, जिनके लिए बंगबंधु ने जेल की यातनाएं सही थीं और जिनकी आजादी के लिए उन्होंने अपना जीवन लगाया था. बांग्लादेश आवामी लीग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, ब्रिटिश पत्रकार साइरिल डन ने बंगबंधु के बारे में लिखा था, "उनका शारीरिक कद बहुत ऊंचा था. उनकी आवाज गरजती हुई बिजली जैसी थी. उनका करिश्मा लोगों पर जादू कर देता था. उनका साहस और आकर्षण उन्हें इस युग का एक अनोखा महापुरुष बनाता था."

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2004 के एक बीबीसी सर्वेक्षण में, बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान को सर्वकालिक महानतम बंगाली चुना गया था. जहां भारत हर 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाता है तो बांग्लादेश में शोक का माहौल रहता है, क्योंकि उस देश में यह दिन राष्ट्रीय शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है.

शेख हसीना

चाहे सियासी स्थिरता का समय हो या फिर उथल-पुथल का दौर, शेख हसीना का नाम बांग्लादेश की राजनीति में पिछले दो दशक से केंद्र में बना रहा. हसीना अपने समर्थकों के लिए एक आधुनिक, विकासशील बांग्लादेश को बनाने वाली ‘लौह महिला' हैं. लेकिन दूसरी तरफ वह अपने आलोचकों की नजरों में एक तानाशाह थीं, जिन्होंने सत्ता की भूख में सड़कों पर उठी आवाज को अनसुना कर दिया, उसे कुचलने का काम किया. शायद ही किसी ने सोचा होगा कि हसीना ने जिस न्यायाधिकरण का गठन कट्टर युद्ध अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए किया था, वही एक दिन उन्हें कठघरे में ला खड़ा करेगा, उन्हें सजा-ए-मौत सुना देगा.

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हसीना का जन्म 28 सितंबर 1947 को पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के तुंगीपाड़ा में पिता शेख मुजीबुर रहमान के घर में हुआ था. हसीना ने ढाका यूनिवर्सिटी से बांग्ला साहित्य में पोस्ट-ग्रेजुएट की डिग्री हासिल की और फिर छात्र राजनीति में आ गईं. हसीना के लिए सियासी डगर अगस्त 1975 के सैन्य तख्तापलट के बाद कठिन हो गई. उनके माता-पिता, तीन भाइयों और परिवार के कई अन्य सदस्यों की हत्या कर दी गई थी. हसीना और उनकी छोटी बहन रेहाना केवल इसलिए बच गईं, क्योंकि दोनों विदेश में थीं. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले भारत ने दोनों को शरण दी.

छह साल बाद मई 1981 में हसीना बांग्लादेश लौटीं, जहां उन्हें उनकी अनुपस्थिति में ‘अवामी लीग' का महासचिव चुना गया था. हालांकि, स्वदेश वापसी पर हसीना को उनकी प्रतिद्वंद्वी खालिदा जिया से कड़ी चुनौती मिली, जो दिवंगत राष्ट्रपति जियाउर रहमान की विधवा थीं. बांग्लादेश में हसीना और जिया के बीच की सियासी प्रतिद्वंद्विता और वैचारिक संघर्ष ‘बेगमों की लड़ाई' के रूप में सुर्खियों में छाया रहा तथा तीन दशक से अधिक समय तक इसने देश की राजनीति की दिशा तय की.

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हसीना पहली बार 1996 में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं, जब उन्होंने कड़े मुकाबले में जिया को मात दी. हालांकि, 2001 में वह सत्ता से बाहर हो गईं, लेकिन 2008 में उन्होंने भारी बहुमत से वापसी की. इसी के साथ उनके शासन का एक लंबा दौर शुरू हुआ.

हसीना के नेतृत्व में ‘अवामी लीग' ने 2008 के आम चुनाव में भारी जीत हासिल की. 2014 के आम चुनाव, जिसका जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने बहिष्कार किया था, उसमें भी हसीना नीत ‘अवामी लीग' बाजी मारने में सफल रही. इसके बाद 2018 के चुनाव में हसीना की पार्टी ने जीत की ‘हैट्रिक' लगाई, जिससे वह दुनिया के किसी देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली महिला शासनाध्यक्षों में से एक बन गईं. हसीना के प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान, बांग्लादेश में तीव्र आर्थिक विकास दर्ज किया गया, पद्मा ब्रिज जैसे प्रमुख बुनियादी ढांचों का निर्माण हुआ और गरीबी उन्मूलन की दिशा में प्रगति देखी गई. उनके कार्यकाल में बांग्लादेश एक वैश्विक परिधान महाशक्ति भी बन गया.

हालांकि, इन उपलब्धियों के बीच हसीना पर विरोधी आवाजों को कुचलने, मीडिया पर अंकुश लगाने, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश देने और सरकारी सुरक्षा एजेंसियों को अत्यधिक शक्तियां प्रदान करने जैसे आरोप भी लगते रहे. साल 2024 में स्वतंत्रता संग्राम में शामिल सैनिकों के बच्चों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की घोषणा को लेकर हसीना सरकार को छात्रों के नेतृत्व वाले विरोध-प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा, जिसने धीरे-धीरे देशव्यापी आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया.

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प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई के बाद बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क उठी, जिसके चलते हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने और भारत भागने के लिए मजबूर होना पड़ा. हसीना के अपदस्थ होने के बाद मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार ने ICT-BD का पुनर्गठन किया, जिसने 2024 में प्रदर्शनकारियों के खिलाफ की गई कार्रवाई को लेकर हसीना और अन्य पर मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए मुकदमा चलाया. अब हसीना को इसी कोर्ट ने सजा-ए-मौत दी है.

भारत में निर्वासन में रह रहीं हसीना अब सीमा पार से उस देश को अपने उदय से लेकर पतन तक छोड़ी गई विरासत से जूझते देख रही हैं, जिसके विकास में उनके परिवार ने अहम योगदान दिया और जिस पर उन्होंने लंबे समय तक मजबूती से शासन किया.

(इनपुट- भाषा, आईएएनएस)

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