- डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर तालिबान को बगराम एयरबेस वापस करने की चेतावनी दी है.
- बगराम एयरबेस अफगानिस्तान के काबुल से करीब 40 किलोमीटर उत्तर में स्थित एक महत्वपूर्ण सैन्य हवाई अड्डा है.
- तालिबान ने ट्रंप के दावों का खंडन करते हुए कहा कि बगराम में चीन की कोई सैन्य मौजूदगी नहीं है.
बगराम एयरबेस पर डोनाल्ड ट्रंप आजकल फिदा हैं. फिदा होने तक अगर सिर्फ ट्रंप माने जाते तो फिर भी ठीक था. ट्रंप ने अपने ट्रूथ सोशल अकाउंट पर तालिबान को चेतावनी दी है, "अगर अफगानिस्तान बगराम एयरबेस उन लोगों को वापस नहीं देता जिन्होंने इसे बनाया, यानी अमेरिका को, तो बुरी चीजें होने वाली हैं." इससे पहले 18 सितंबर को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टारमर के साथ बातचीत करते हुए, ट्रंप ने संकेत दिया कि उनका प्रशासन तालिबान के साथ बातचीत कर रहा है ताकि अमेरिकी सेना काबुल के बाहर स्थित इस बेस पर फिर से कब्ज़ा कर सके. इस बेस को 2021 में तालिबान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान पर फिर से कब्ज़ा करने से कुछ समय पहले ही छोड़ दिया गया था.
ब्रिटेन में संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान ट्रंप ने कहा, "हम इसे वापस पाने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें हमसे कुछ चाहिए. हम उस अड्डे को वापस चाहते हैं." उन्होंने आगे कहा, "लेकिन हम इस अड्डे को इसलिए चाहते हैं क्योंकि जैसा कि आप जानते हैं, यह उस जगह से एक घंटे की दूरी पर है जहां चीन अपने परमाणु हथियार बनाता है."
बगराम एयर बेस क्यों महत्वपूर्ण
बगराम एयर बेस अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से लगभग 40 किलोमीटर उत्तर में स्थित एक प्रमुख सैन्य हवाई अड्डा है. इसे 1950 के दशक में सोवियत संघ ने बनाया था. अमेरिकी सेना के अल कायदा पर हमले के बाद से 2001 से अगस्त 2021 तक ये अफगानिस्तान में अमेरिकी और नाटो अभियानों का मुख्य केंद्र रहा. 18 सितंबर को अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान, ट्रंप ने कहा कि बगराम दुनिया के सबसे बड़े हवाई अड्डों में से एक है, जिसका सबसे बड़ा रनवे भारी कंक्रीट और स्टील से बना है. इस हवाई अड्डे का रनवे 3.6 किलोमीटर लंबा है जो बमवर्षक और बड़े मालवाहक विमानों की सेवा करने में सक्षम है. अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने चुनाव अभियान के दौरान दावा किया था कि बगराम चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के नियंत्रण में है और अपने दूसरे कार्यकाल की पहली कैबिनेट बैठक में उन्होंने कहा था कि अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी की अपनी योजना में, "हम बगराम को अपने पास रखेंगे... अफगानिस्तान की वजह से नहीं, बल्कि चीन की वजह से, क्योंकि यह उस जगह से ठीक एक घंटे की दूरी पर है, जहां चीन अपनी परमाणु मिसाइलें बनाता है." तालिबान ने इन दावों का खंडन किया है और बगराम में चीन की कोई सैन्य उपस्थिति ज्ञात नहीं है.
क्या सच में हैं चीन को होगा खतरा
चीनी परमाणु प्रतिष्ठानों के बारे में ट्रंप के बयान लंबे समय से चली आ रही लोप नूर परमाणु परीक्षण रेंज की ओर इशारा करती हैं, जो चीन के उत्तर-पश्चिमी शिनजियांग क्षेत्र में सीमा पार लगभग 2,000 किलोमीटर दूर है. यह वही जगह है, जहां चीन ने लगभग 60 साल पहले अपने पहले परमाणु बम का परीक्षण किया था और उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि 2017 से इस क्षेत्र के आसपास नई इमारतों और सड़कों का विस्तार हो रहा है. यह वह जगह नहीं है, जहां परमाणु हथियार बनाए जाते हैं, और माना जाता है कि चीनी उत्पादन देश के मध्य भाग में केंद्रित है. यह ऐसे समय में हो रहा है जब चीन हाल के वर्षों में अपनी परमाणु शक्तियों का तेज़ी से विस्तार कर रहा है, जिसने पेंटागन को खतरे महसूस हो रहा है. पीएलए ने 2024 के मध्य तक अपने परमाणु भंडार को 600 आयुधों तक बढ़ा दिया है, जो 20 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि है. जाहिर है चीन पर यहां से दबाव तो ट्रंप बढ़ा ही देंगे.
ट्रंप को तालिबान का जवाब
ट्रंप ने अपनी हालिया टिप्पणियों में यह स्पष्ट नहीं किया कि बगराम के लिए उनकी क्या कल्पना है, लेकिन उनकी यह टिप्पणी तालिबान और अमेरिकी दूतों के बीच बढ़ती बातचीत के बीच आई है. तालिबान के कब्जे के बाद से वाशिंगटन ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ न्यूनतम स्तर की सार्वजनिक बातचीत की है, इसे बंधक वार्ता तक सीमित रखा है. अफगानिस्तान वैश्विक मंच पर काफी हद तक अलग-थलग रहा है और उसकी अर्थव्यवस्था विदेशी समर्थन और निजी निवेश आकर्षित करने के लिए संघर्ष कर रही है, लेकिन पिछले हफ़्ते एक दुर्लभ यात्रा में, ट्रंप प्रशासन के बंधक प्रतिक्रिया के विशेष दूत एडम बोहलर ने काबुल में तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से मुलाकात की.
तालिबान अधिकारियों ने ट्रंप के इस सुझाव को भी खारिज कर दिया कि अमेरिका बगराम पर फिर से नियंत्रण हासिल कर सकता है, लेकिन उन्होंने संबंधों को बेहतर बनाने के लिए बातचीत की संभावना को खुला रखा. तालिबान विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ज़ाकिर जलाली ने सोशल मीडिया पर कहा, "अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की कोई सैन्य उपस्थिति न होने के बावजूद, अफगानिस्तान और अमेरिका दोनों को एक-दूसरे के साथ बातचीत करने की ज़रूरत है, और वे आपसी सम्मान और साझा हितों पर आधारित राजनीतिक और आर्थिक संबंध बना सकते हैं. अफगानों ने पूरे इतिहास में कभी किसी की सैन्य उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया है, लेकिन अन्य प्रकार की बातचीत के लिए, उनके लिए सभी रास्ते खुले हैं." अब ट्रंप के ताजा पोस्ट में धमकी से साफ हो चुका है कि उनकी तालिबान से बातचीत पटरी पर नहीं है और वो अब सख्ती के मूड में हैं. मगर क्या वो इतिहास को भूल चुके हैं.