70 का दशक न तो राजनीति से जा सका, न सिनेमा से. 70 के दशक में राजनीति में ऐसे नेता थे जो आज भी उन दिनों के संघर्ष के नाम पर मैदान में और कुर्सी पर टिके हुए हैं. बेशक बहुत से ऐसे नेता उस दौर के हमारे बीच में नहीं रहे. मगर उस दौर का सिनेमा हमारी आंखों से ओझल नहीं हो पाता. यह जरूर है कि रविवार को दूरदर्शन पर उस तरह से 70 के दशक की फिल्में नहीं आती और न ही उनका इंतजार किया जाता है. लाखों लोग यूट्यूब में उस दशक की फिल्मों को ढूंढते रहते हैं. ये वो दौर था जब स्टार सिस्टम पूरी तरह से परिपक्व हो चुका था. हीरो ने कल्पना का रूप ले लिया था. पूरी फिल्म मे वह लुटता रहता, पिटता रहता था.लेकिन आखिरी के 5 मिनट वह विजेता की तरह अवतरित होता था. तालियां बटोर कर चला जाता था. कुछ फिल्मकार ऐसे भी थे जो आम जिंदगी से अपने किरदार ढूंढते थे. अपने किरदारों के लिए फिल्म सेट नहीं बनाते बल्कि बीच शहर में उसकी शूटिंग कर रहे थे. हीरो के साथ शहर के किरदार भी आपको नजर आते. बासु चैटर्जी ,ऋषिकेश मुखर्जी और बासु भट्टाचार्य इन तीनों की फिल्में एक जैसी नहीं थी लेकिन एक जैसी लगती थी. 93 साल की उम्र में बासु चटर्जी के निधन के साथ, वे हमसे हमेशा के लिए विदा हो गए.