मंगलेश डबराल के बारे में बताने का वक्त ही नहीं मिला. दरअसल न्यूज़ चैनलों के पास कवियों के लिए वक्त होता तो उनकी भाषा इतनी वाहियात नहीं होती. एक दर्शक के तौर पर आप जान पाते कि भाषा कैसी होती है, किस लिए होती है. मंगलेश डबराल नहीं हैं मगर उनकी कविताएं अब भी हैं. मैंने इस कवि को एक पत्रकार के रूप में देखा था, जनसत्ता अखबार के एक छोटे से कमरे में जिसमें आदमी के बैठने की जगह कम थी, क्योंकि सारी जगह किताबों ने ले ली थी. इस पेशे में मेरी शुरूआत उनसे जुड़ी है. उन्होंने मेरे पहले लेख का संपादन किया. देखें रवीश कुमार का प्राइम टाइम