बड़े नेता बोलने लगे हैं हेडलाइन अब बड़ी होने लगेगी और आम लोगों की तकलीफें छोटी होने लग जाएंगी. उनके बयानों से जगह भर जाएगी और जिनकी दुकानें जली हैं, घर वाले मारे गए हैं और जो अस्पताल के बिस्तर पर ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं, उनके लिए जगह कम बचेगी. काश ऐसा न हो मगर अब ऐसा ही होगा. जब हिंसा और भड़काऊ भाषण दिए जा रहे थे तब किसी ने तुरंत नहीं रोका. मीडिया और राजनीति को वारिस पठान बनाम कपिल मिश्रा का खेल खेलना था. प्रशासन को चुप रहना था. पुलिस की नाकामी और गृहमंत्री की जवाबदेही के सवाल को केंद्र में बनाए रखना मुश्किल होता जा रहा है. दिल्ली चुनाव में सांप्रदायिकता और नफरत की खूब खेती की गई, उन बीस दिनों में चुनाव आयोग भी नहीं रोक सका, जामिया, जेएनयू और शाहीन बाग में गुंडे आए, गोली चली, पुलिस देखती रही. उत्तर पूवी दिल्ली में तीन दिनों तक दंगे होते रहे काबू नहीं पाया जा सका, काबू ही नहीं कर्फ्यू जैसे सामान्य फैसले में तीन चार दिन लग गए. सवाल गृहमंत्री अमित शाह को लेकर हो रहे हैं, जवाब में गिनाया जा रहा है कि उन्होंने कितनी बैठकें की. यही तो सवाल है कि उन बैठकों का क्या नतीजा निकला कि उत्तर पूर्वी दिल्ली जलती रही और लोग मरते रहे?