दल चाहे कोई भी हो, कांग्रेस हो या बीजेपी हो लेकिन राजनीति अगर जनता के बीच धर्म के प्रतीकों और मुद्दों के ज़रिए आए तो सतर्क रहना चाहिए. खुद से भी पूछना चाहिए कि क्या इन धार्मिक प्रतीकों के बग़ैर राजनीति नहीं हो सकती, अगर नहीं हो सकती तो क्यों नहीं चुनाव 2019 की जगह कुंभ में करा लिए जाएं. कुछ चुनाव गंगा सागर स्नान के समय करा लिए जाएं. कुछ चुनाव अजमेर में दरगाह शरीफ आने वाले लोगों केवोट से करा लिए जाएं. जनता भी यही गलती करती है वो किसी दल को धर्म का रक्षक समझने लगती है या अपनी धार्मिक पहचान को उस दल से जोड़ने लगती है. कुलमिलाकर राजनीति की हार होती है और अंत में जनता की रैली देखते ही एक सवाल ऑटोमेटिक आ जाता है कि क्या सारे नेता एक हैं.