- इमाम हुसैन की याद में 169वीं 'दुलदुल सवारी' का आयोजन हज़ारों श्रद्धालुओं की मौजूदगी में हुआ
- 1856 में चरखारी स्टेट के राजा मलखान जू देव द्वारा इस धार्मिक आयोजन की शुरुआत हुई थी
- सवारी के दौरान श्रद्धालु घोड़े दुलदुल को जलेबी का प्रसाद खिलाते हैं, मन्नत मांगने की अनूठी परंपरा है
- हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक, स्थानीय व्यवसायी चांदी के नींबू श्रद्धालुओं को उपलब्ध कराते हैं
इस्लाम की खातिर अपना सिर कटाने वाले इमाम हुसैन की याद में निकाली जाने वाली ऐतिहासिक ‘दुलदुल सवारी' महोबा जनपद के चरखारी कस्बे में इस वर्ष भी 169वीं बार हज़ारों श्रद्धालुओं की मौजूदगी में संपन्न हुई. मुहर्रम की सातवीं तारीख को निकाली जाने वाली यह इमाम की सवारी न केवल मज़हबी आस्था का प्रतीक है, बल्कि गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक जीवंत मिसाल भी है.
1856 से हुई थी शुरुआत
इस आयोजन की शुरुआत चरखारी स्टेट के तत्कालीन राजा मलखान जू देव ने 1856 में की थी, जो आज भी बिना रुके श्रद्धा और एकता के साथ जारी है. जिसका शुभारंभ एडीएम रामप्रकाश और एएसपी वंदना सिंह ने की, जिन्होंने घोड़े को जलेबी खिलाकर और माला पहनाकर इस प्रतीकात्मक यात्रा की शुरुआत की. इमाम की सवारी में श्रद्धालुओं की जुटने वाली भीड़ को देखते हुए जनपद के 11 थानों की पुलिस के साथ अतिरिक्त पुलिस बल तैनात किया गया है.
सवारी में मन्नत मांगने की अनूठी परंपरा
इमाम की सवारी कस्बे के मुकेरीपुरा मुहाल से निकलकर विभिन्न इमाम चौकों से होकर गुजरी, जहां श्रद्धालुओं ने पाक घोड़े 'दुलदुल' को जलेबी का प्रसाद खिलाया. मान्यता है कि जिस श्रद्धालु का प्रसाद घोड़ा ग्रहण कर लेता है, उसकी मुराद अवश्य पूरी होती है. इस सवारी में मन्नत मांगने की अनूठी परंपरा भी है. श्रद्धालु घोड़े के शरीर में लगे प्रतीकात्मक तीरों में नींबू लगाकर मन्नत मांगते हैं, और मुराद पूरी होने पर अगली बार चांदी या सोने का नींबू चढ़ाते हैं.
हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल
हिंदू-मुस्लिम एकता की अद्भुत मिसाल पेश करते हुए स्थानीय स्वर्ण व्यवसायी श्रद्धालुओं को चांदी के नींबू उपलब्ध कराते हैं. चरखारी के दुकानदार इमाम की सवारी के लिए वर्षों से चांदी के नींबू बेचने की दुकानें लगा रहे है. वहीं बड़ी तादाद में जलेबी की दुकानें हिन्दू समाज के लोग लगाकर आपसी भाईचारे का सन्देश देते है. पुष्पेंद्र बताते है कि चरखारी में निकलने वाली इमाम की सवारी में असली भारत की तस्वीर और एकता का नजारा देखने को मिलता है.
विशेष बात यह रही कि सवारी के दौरान हिंदू समाज के लोग भी लंगर व सेवा कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं. यहां जलेबी की असंख्य दुकानें सजती हैं और श्रद्धालु अपने हाथों से घोड़े को प्रसाद खिलाने को आतुर रहते हैं। इस दौरान सुरक्षा और भीड़ नियंत्रण के लिए प्रशासन ने चाक-चौबंद व्यवस्था की थी.
इमाम हुसैन की कुर्बानी को किया जाता है याद
यह आयोजन केवल मज़हबी श्रद्धा का प्रतीक नहीं, बल्कि करबला के मैदान में इंसानियत, सच्चाई और न्याय के लिए दी गई इमाम हुसैन की कुर्बानी की याद को ताज़ा करता है. साथ ही सामाजिक समरसता, सांप्रदायिक सौहार्द और मानवीय एकता का संदेश देता है. हर साल की तरह इस बार भी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली समेत अन्य राज्यों से लगभग 50 हजार से अधिक श्रद्धालु इस ऐतिहासिक आयोजन का हिस्सा बने. यह सवारी इमाम हुसैन की शहादत के ज़रिए ‘सच के लिए कुर्बानी' की अमर गाथा को नई पीढ़ी तक पहुंचाती है.
(इरफान पठान की रिपोर्ट)