लखनऊ:
यूपी विधानसभा चुनाव के आते ही मुस्लिम वोटों पर घमासान तेज गया है। मंगलवार को 10 छोटी मुस्लिम पार्टियों ने 'इत्तेहाद फ्रंट' नाम से एक मोर्चा बना लिया। मोर्चे के लोग सपा, बसपा और कांग्रेस से ज्यादा मुस्लिम प्रतिनिधित्व की मांग करेंगे और जो इनकी मांग पूरी करेगा, उसका चुनाव में साथ देंगे।
इस देश के मुसलमानों में सबसे बड़ी एकता तभी नजर आई थी, जब पैगम्बर मोहम्मद साहब पर कार्टून बनाने वाले दानिश कार्टूनिस्ट के खिलाफ वो सड़कों पर उतरे थे, लेकिन बाकी हर मोर्चे पर वो बंटे दिखते हैं... सियासत में भी। मंगलवार को लखनऊ में 10 छोटी मुस्लिम पार्टियों ने एक मोर्चा बनाकर ऐलान किया कि वो गैर भाजपा वालों से मुसलमानों को सियासत में हिस्सा दिलाने के लिए डील करेंगे।
'इत्तेहाद फ्रंट' के अध्यक्ष मोहम्मद सुलेमान कहते हैं कि 'उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को उनके राजनीतिक सशक्तिकरण में हिस्सा आजादी के 70 साल में भी नहीं मिला है। मुख्यधारा की पार्टियां धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती हैं, लेकिन सियासत में हमें हिस्सा नहीं देना चाहतीं। इससे हमारे नौजवानों में बड़ी बेचैनी है। ये फ्रंट चुनाव के मौके पर उनसे अपना हिस्सा मांगेगा।'
इसके पहले भी चुनाव के वक्त मुस्लिम पार्टियां इस तरह की कवायत करती रही हैं। जिन दलों ने यह मोर्चा बनाया है, वह हैं... पीस पार्टी, उलेमा काउंसिल, मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, इंडियन नेशनल लीग, वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया, सोशल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ इंडिया, परचम पार्टी और मुस्लिम सियासी बेदारी फोरम।
लेकिन मुस्लिम धर्मगुरुओं का एक बड़ा तबका मुसलमानों के नाम पर पार्टी बनाने के खिलाफ है। उनका कहना है कि 'देश में 14 फीसदी आबादी वाले अपने धर्म की पार्टी बनाएंगे तो फिर 86 फीसद आबादी वाले भी उनके खिलाफ बना सकते हैं। ये धर्म के नाम पर बांटने की सियासत होगी।'
मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना हबीब हैदर कहते हैं कि 'जब-जब ऐसा हुआ है, या होगा, तो सांप्रदायिक ताकतें ताकतवर होंगी। धर्म पर और जाति पर जमा होना न मुल्क के फायदे में है और न ही उस समुदाय के फायदे में। बेहतर ये है कि सांप्रदायिक ताकतें जो हैं, वो एक साथ जमा हो जाएं, जिनका मकसद एक हो।'
यूपी में मुस्लिम वोट करीब 18 फीसद है। विधानसभा की 403 सीटों में 124 सीटों पर ये निर्णायक असर रखता है। बाबरी मस्जिद कांड के बाद से मुस्लिम वोट की सबसे बड़ी दावेदार समाजवादी पार्टी है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इस बार करीब 100 टिकट मुस्लिम उम्मीदवारों को दिए हैं और कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी ब्राह्मण और मुस्लिम वोटों पर दांव लगा रखे हैं। इसलिए इस तरह की कवायद की अहमियत समझी जा सकती है।
इस देश के मुसलमानों में सबसे बड़ी एकता तभी नजर आई थी, जब पैगम्बर मोहम्मद साहब पर कार्टून बनाने वाले दानिश कार्टूनिस्ट के खिलाफ वो सड़कों पर उतरे थे, लेकिन बाकी हर मोर्चे पर वो बंटे दिखते हैं... सियासत में भी। मंगलवार को लखनऊ में 10 छोटी मुस्लिम पार्टियों ने एक मोर्चा बनाकर ऐलान किया कि वो गैर भाजपा वालों से मुसलमानों को सियासत में हिस्सा दिलाने के लिए डील करेंगे।
'इत्तेहाद फ्रंट' के अध्यक्ष मोहम्मद सुलेमान कहते हैं कि 'उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को उनके राजनीतिक सशक्तिकरण में हिस्सा आजादी के 70 साल में भी नहीं मिला है। मुख्यधारा की पार्टियां धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करती हैं, लेकिन सियासत में हमें हिस्सा नहीं देना चाहतीं। इससे हमारे नौजवानों में बड़ी बेचैनी है। ये फ्रंट चुनाव के मौके पर उनसे अपना हिस्सा मांगेगा।'
इसके पहले भी चुनाव के वक्त मुस्लिम पार्टियां इस तरह की कवायत करती रही हैं। जिन दलों ने यह मोर्चा बनाया है, वह हैं... पीस पार्टी, उलेमा काउंसिल, मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, इंडियन नेशनल लीग, वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया, सोशल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ इंडिया, परचम पार्टी और मुस्लिम सियासी बेदारी फोरम।
लेकिन मुस्लिम धर्मगुरुओं का एक बड़ा तबका मुसलमानों के नाम पर पार्टी बनाने के खिलाफ है। उनका कहना है कि 'देश में 14 फीसदी आबादी वाले अपने धर्म की पार्टी बनाएंगे तो फिर 86 फीसद आबादी वाले भी उनके खिलाफ बना सकते हैं। ये धर्म के नाम पर बांटने की सियासत होगी।'
मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना हबीब हैदर कहते हैं कि 'जब-जब ऐसा हुआ है, या होगा, तो सांप्रदायिक ताकतें ताकतवर होंगी। धर्म पर और जाति पर जमा होना न मुल्क के फायदे में है और न ही उस समुदाय के फायदे में। बेहतर ये है कि सांप्रदायिक ताकतें जो हैं, वो एक साथ जमा हो जाएं, जिनका मकसद एक हो।'
यूपी में मुस्लिम वोट करीब 18 फीसद है। विधानसभा की 403 सीटों में 124 सीटों पर ये निर्णायक असर रखता है। बाबरी मस्जिद कांड के बाद से मुस्लिम वोट की सबसे बड़ी दावेदार समाजवादी पार्टी है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इस बार करीब 100 टिकट मुस्लिम उम्मीदवारों को दिए हैं और कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी ब्राह्मण और मुस्लिम वोटों पर दांव लगा रखे हैं। इसलिए इस तरह की कवायद की अहमियत समझी जा सकती है।
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