दिल्ली में कौन है दलितों के वोट का चैंपियन, कैसा रहा है कांग्रेस, बीजेपी और आप का प्रदर्शन

दिल्ली में विधासनभा चुनाव अगले साल होने हैं, लेकिन राजनीतिक सरगर्मियां जोरों पर हैं. आइए देखते हैं कि इस चुनाव में दलित वोटों के लिए किस राजनीतिक दल की क्या है रणनीति. पिछले सात चुनाव में किस दल का कैसा रहा है प्रदर्शन.

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नई दिल्ली:

दिल्ली विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां जोरों पर हैं. राजनीतिक दल और उनके नेता अपने समीकरण बिठाने पर लगे हुए हैं. दिल्ली की सत्ता पर आम आदमी पार्टी 2013 से ही काबिज है. उसे सत्ता से हटाने के लिए बीजेपी और कांग्रेस ने पूरा जोर लगाया हुआ है. वहीं आम आदमी पार्टी अपनी सत्ता बनाए रखने की कोशिश कर रही है.संसद के शीत कालीन सत्र में गृहमंत्री अमित शाह के एक बयान से आंबेडकर का मुद्दा गरमाया हुआ है. इस मुद्दे को बनाए रखकर राजनीतिक दल दलितों का वोट अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं. दिल्ली में अनुसूचित जाति के लिए कुल 12 सीटें आरक्षित हैं. परिसीमन से पहले इन सीटों की संख्या 13 थी. साल 2008 तक दिल्ली में दलितों की राजनीति में कांग्रेस चैंपियन थी. लेकिन 2013 में आम आदमी पार्टी के आने के बाद सब कुछ बदल गया. उस चुनाव में आप ने 12 में से नौ सीटें जीतकर बड़ा फेरबदल कर दिया था. इसके बाद के दो चुनावों में आप ने एससी के लिए आरक्षित सभी सीटें अपने नाम कर लीं. आइए जानते हैं कि इस चुनाव में राजनीतिक दल एससी के लिए आरक्षित सीटों पर किस रणनीति पर काम कर रहे हैं.

अमित शाह के बयान का किसे होगा फायदा

गृहमंत्री अमित शाह के बयान ने दिल्ली के दलों के लिए अवसर दे दिया है. इस बयान में दिल्ली की राजनीति करने वाले तीनों दल अपने लिए मौका देख रहे हैं. आप ने इस मुद्दे को हवा देकर अपनी स्थिति और मजबूत करने की कोशिश की. वहीं कांग्रेस को उम्मीद जगी है कि इस बयान को मुद्दा बनाकर वह दिल्ली की राजनीति में वापसी कर सकती है. वहीं बीजेपी ने कांग्रेस पर आंबेडकर का अपमान करने का आरोप लगाकर खुद को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने की कोशिश की. 

लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन से कांग्रेस उत्साहित है. राजनीति के जानकारों का कहना है कि कांग्रेस की इस जीत में दलित और अल्पसंख्यक वोटों का बड़ा योगदान था. कांग्रेस इस मोमेंटम को बनाए रखना चाहती है. इसलिए ही वह दलितों के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठा रही है. उसे लगता है कि अगर दिल्ली में दलितों और अल्पसंख्यकों ने उसका साथ दे दिया तो उसके लिए जीत का सूखा खत्म हो सकता है. लेकिन कांग्रेस के लिए चिंता की बात यही है कि दिल्ली में आप से गठबंधन के बाद भी उसे कोई सफलता नहीं मिली थी. दिल्ली की सभी सात सीटें बीजेपी ने जीत ली थीं. लेकिन उसे उम्मीद की किरण पंजाब में मिली जीत से नजर आ रही है.

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दिल्ली में कांग्रेस की उम्मीद

पंजाब में कांग्रेस ने आप से कोई समझौता नहीं किया था. वहां भी आप की सरकार है. लोकसभा चुनाव में पंजाब में आप से कांग्रेस का समझौता न होने का उसे फायदा हुआ था. वहां कांग्रेस ने 13 में से सात सीटें जीती थीं. सरकार होने के बाद भी आप केवल तीन सीटें ही जीत पाई थी. इसी के बाद से दिल्ली में 2013 में आप की सरकार को समर्थन देने और 2024 का लोकसभा चुनाव साथ लड़ने को कांग्रेस नेता अपनी भूल मान रहे हैं. इसलिए दिल्ली के स्थानीय नेता केंद्रीय नेताओं के दबाव के बाद भी आप से समझौते के लिए तैयार नहीं हुए और भूल सुधारने में लगे हुए हैं. इस बार के चुनाव में आप के पास कैलाश गौतम जैसा कोई दलित चेहरा भी नहीं है. अपनी उपेक्षा से परेशान गौतम ने इस साल सितंबर में कांग्रेस का दामन थाम लिया था.राज कुमार आनंद के बाद गौतम ऐसे दूसरे दलित नेता नेता थे, जिन्होंने इस साल आप से किनारा कर लिया. दोनों नेताओं ने आप छोड़ने का एक ही कारण बताया था, वह था दलितों के मुद्दे की अनदेखी.

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दिल्ली में एससी सीटों का गणित

दिल्ली में अगर 1993 से 2020 तक के चुनाव पर नजर डालें तो एक बार कांग्रेस और दो बार आप ने एससी के लिए आरक्षित सभी सीटों पर जीत दर्ज की है. साल 1993 के चुनाव में दिल्ली 13 आरक्षित सीटों में से आठ पर बीजेपी और पांच पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी. वहीं 1998 के चुनाव में कांग्रेस ने सभी 13 सीटें जीत ली थीं. साल 2003 के चुनाव में कांग्रेस ने 11 तो बीजेपी ने दो सीटों पर जीत दर्ज की. साल 2008 के चुनाव में कांग्रेस ने नौ, बीजेपी ने दो और अन्य ने एक सीट पर जीत दर्ज की. साल 2009 में हुए परिसीमन के बाद दिल्ली में एससी के लिए आरक्षित सीटों की संख्या घटकर 12 रह गई. दिल्ली में 2013 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की एंट्री हुई. इस चुनाव में कांग्रेस केवल एक सीट ही जीत पाई थी. वहीं बीजेपी के हिस्से में दो और आप के हिस्से में 9 सीटें आईं. इसके बाद 2015 और 2020 के चुनाव में एससी की सभी सीटों पर आप ने ही जीत दर्ज की. 

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अगर इस वोट शेयर के हिसाब से देखें तो 1993 के चुनाव में एससी के लिए आरक्षित सीटों पर कांग्रेस ने 35.68 फीसदी और बीजेपी ने 36.84 फीसदी वोट अपने खाते में किए थे. वहीं 1998 में कांग्रेस को 53.89 फीसदी और बीजेपी को 28.6 फीसदी वोट मिले थे. साल 2003 के चुनाव में कांग्रेस को 50.36 और बीजेपी को 28.6 फीसदी वोट मिले. साल 2008 के चुनाव में कांग्रेस को 44.66 और बीजेपी को 31.69 फीसदी वोट मिले थे. वहीं 2014 में दिल्ली की राजनीति में आप की एंट्री के बाद कांग्रेस का एससी सीटों पर वोट शेयर गिरकर 23.86 फीसदी पर पहुंच गया. वहीं बीजेपी को 28.78 फीसदी वोट मिले. पहली बार चुनाव लड़ी आप ने 34.56 फीसद वोट अपने नाम किए. 

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एससी की सीटों पर आम आदमी पार्टी का दबदबा

इसके बाद हुए दो चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस मिलकर भी उतने वोट नहीं हासिल कर पाईं जितने अकेले आप ने हासिल किए. साल 2015 में कांग्रेस को 9.1 फीसदी और बीजेपी को 27.24 फीसदी वोट मिले. वहीं आप ने अकेले 58.88 फीसदी वोट अपनी झोली में डाल लिए. वहीं 2020 के चुनाव में कांग्रेस केवल 3.97 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई. वहीं बीजेपी को 33.76 फीसदी वोट मिले तो आप 57.7 फीसदी वोट हथियाने में कामयाब रही. इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि पिछले सात चुनावों में दिल्ली में एससी के लिए आरक्षित सीटों पर बीजेपी का वोट कभी भी दहाई के अंकों से कम नहीं हुआ है. उसे इस दौरान सबसे कम 27.24 फीसदी और सबसे अधिक 36.84 फीसदी वोट मिले हैं. इस सात चुनावों में एक बार बीजेपी ने तो तीन-तीन बार कांग्रेस और आप ने सरकार बनाई है.

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