जब विपक्ष के सहयोग से चुने गए राष्ट्रपति, जानें कब कब हुई कांटे की लड़ाई

उपराष्ट्रपति पद के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है. सीपी राधाकृष्णन को एनडीए ने अपना उम्मीदवार बनाया है. विपक्ष के उम्मीदवार की घोषणा अभी नहीं हुई है. लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में कई बार विपक्ष के सहयोग से सत्ता पक्ष के उम्मीदवार की जीत हुई है.

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  • एनडीए गठबंधन ने महाराष्ट्र के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए अपना उम्मीदवार बनाया है.
  • 1969 में चौथे राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस में मतभेद के कारण पार्टी का आधिकारिक उम्मीदवार हार गया था.
  • 1977 में छठे राष्ट्रपति चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष ने नीलम संजीव रेड्डी के नाम पर एकमत हो गए थे.
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नई दिल्ली:

केंद्र में सरकार चला रहे एनडीए गठबंधन ने सीपी राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाया है. वो अभी महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं. राधाकृष्णन के उम्मीदवारी की घोषणा रविवार देर शाम बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने की. उन्होंने कहा कि एनडीए में शामिल दलों की राय लेकर उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाया गया है. उन्होंने कहा कि वो अब विपक्ष के नेताओं से भी बात करेंगे, जिससे आमराय से उपराष्ट्रपति का चुनाव हो सके. नड्डा के बयान पर अभी विपक्ष के किसी नेता ने कुछ नहीं कहा है. माना जा रहा है कि विपक्ष भी अपना उम्मीदवार उपराष्ट्रपति का चुनाव में उतारे. इससे पहले कई मौके ऐसे आएं हैं, जब विपक्ष में शामिल कई दलों ने राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनाव में सत्ता पक्ष के उम्मीदवार को समर्थन दिया है. आइए जानते हैं ऐसे ही कुछ मौकों के बारे में जब इतने बड़े संवैधानिक पद के चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्षी की दलीय सीमाएं टूट गई थीं. 

कांग्रेस नेताओं ने ही अपने उम्मीदवार को वोट नहीं दिया

आइए सबसे पहले बात करते हैं देश के चौथे राष्ट्रपति चुनाव की. देश के तीसरे राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का तीन मई 1969 को निधन हो गया था. इसके बाद राष्ट्रपति पद पर चुनाव कराना पड़ा. उस वक्त देश में कांग्रेस की सरकार थी. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री और निजलिंगप्पा कांग्रेस अध्यक्ष थे. कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में इंदिरा गांधी ने अपनी ओर से दलित समाज के जगजीवन राम का नाम आगे किया. वहीं कांग्रेस अध्यक्ष ने नीलम संजीव रेड्डी का नाम आगे बढ़ाया. इससे इंदिरा गांधी अपनी ही पार्टी में अल्पमत में आ गईं और कांग्रेस की ओर से राष्ट्रपति पद के चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी का नाम फाइनल हो गया. इससे इंदिरा गांधी को अपनी कुर्सी खतरे में नजर आने लगी. उन्हें लगा कि इस तरह वो अपनी ही पार्टी में कमजोर पड़ जाएंगी. 

चौथे राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस दो फाड़ हो गई थी, इंदिरा गांधी ने अपने विधायकों सांसदों से अंतरआत्मा पर वोट की अपील की थी.

नीलम संजीव रेड्डी की उम्मीदवारी फाइनल होने के बाद तत्कालीन उपराष्ट्रपति वीवी गिरी ने निर्दलीय  उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. वहीं विपक्ष ने डॉक्टर चिंतामणी देशमुख को अपना उम्मीदवार बनाया. इससे मुकाबला त्रिकोणीय हो गया. जब मतदान की बारी आई तो इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के सदस्यों से अंतर आत्मा की आवाज पर मतदान करने की अपील कर दी. पहले चरण की मतगणना में किसी भी उम्मीदवार को बहुमत नहीं मिला. द्वितीय वरीयता के वोटों की गिनती में वीवी गिरी विजेता घोषित किए गए. इस तरह सत्तारूढ़ कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार को ही हार का सामना करना पड़ गया. इस हार जीत के साथ ही कांग्रेस में बड़े पैमाने पर बगावत की शुरूआत हुई.इसका परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी को ही कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से हाथ धोना पड़ गया.

जब सत्ता पक्ष और विपक्ष एक नाम पर हुआ सहमत

देश के छठवें राष्ट्रपति का चुनाव इस मामले में महत्वपूर्ण था कि इस चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष एक नाम पर सहमत हो गया था. दरअसल उस समय जनता पार्टी की सरकार थी. उस सरकार की मंशा थी कि राष्ट्रपति पद का चुनाव में ऐसे व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जाए, जिसके नाम पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों सहमत हों. इसके बाद अलग-अलग दलों और लोगों ने अलग-अलग लोगों के नाम सामने रखे. अंत में जनता पार्टी में नीलम संजीव रेड्डी के नाम पर सहमति बनी. उस समय नेता विपक्ष यशवंत राव चव्हाण ने भी रेड्डी के नाम पर अपनी सहमती दे दी. इसके बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष की इच्छा से जुलाई 1977 में नीलम संजीव रेड्डी सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुने गए. 

अकाली दल ने अपनी विरोधी पार्टी को दिया वोट

साल 1982 में सातवें राष्ट्रपति के चुनाव का अवसर आया. इससे पहले छठे राष्ट्रपति के चुनाव में सर्वसम्मति से राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था. इसलिए विपक्ष को उम्मीद थी कि कांग्रेस सरकार किसी सर्वमान्य व्यक्ति का नाम राष्ट्रपति चुनाव के लिए आगे बढ़ाएगी. लेकिन कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की कैबिनेट में गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित कर दिया. इसके जवाब में 9 विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज हंसराज खन्ना को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया. इंदिरा गांधी के प्रति निष्ठा की वजह से ही ज्ञानी जैल सिंह को उम्मीदवार बनाया गया था. उन्होंने अपने एक बयान से इसे सिद्ध भी कर दिया. उम्मीदवारी की घोषणा के बाद ज्ञानी जैल सिंह ने कह दिया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अगर मुझे झाड़ू लेकर सफाई करने के लिए कहें तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा. उनके इस बयान की काफी आलोचना हुई. लेकिन ज्ञानी जैल सिंह ने कोई अफसोस नहीं जताया. उन्होंने राष्ट्रति के चुनाव में पूर्व जस्टिस हंसराज खन्ना को बड़े अंतर से मात देकर भारत के सातवें राष्ट्रपति बने. उस समय शिरोमणी अकाली दल विपक्षी खेमे में थी, लेकिन उसने ज्ञानी जैल सिंह को अपना समर्थन दिया था, जबकि पंजाब की राजनीति में अकाली दल और कांग्रेस कट्टर दुश्मन हुआ करते थे. 

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एपीजे अब्दुल कलाम को विपक्ष में शामिल कांग्रेस, सपा, टीएमसी समेत कुछ और दलों ने भी समर्थन किया था.

कैसे चुना गया 'जनता का राष्ट्रपति'

भारत के राजनीतिक इतिहास में अवुल पकिर जैनुल्लाब्दीन अब्दुल कलाम या एपीजे अब्दुल कलाम का राष्ट्रपति चुना जाना एक परिवपक्व लोकतंत्र का उदाहरण है. यह एक ऐसा मौका था, जब हिंदुत्व की राजनीति करने वाले बीजेपी ने मुस्लिम समाज के एपीजे अब्दुल कलाम को अपना उम्मीदवार बनाया था. साल 2002 में हुए 11वें राष्ट्रपति के चुनाव में कलाम सत्तारूढ़ एनडीए के उम्मीदवार थे. उन्हें उस समय की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस, सपा, बसपा और एआईडीएमके तक का समर्थन हासिल हुआ था. उस समय एनडीए में शामिल तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने अब्दुल कलाम का नाम आगे बढ़ाया था. उनके प्रस्ताव का मुलायम सिंह यादव की सपा और शरद पवार की एनसीपी ने भी समर्थन किया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी से बात कर उन्हें भी अब्दुल कलाम के नाम पर सहमत कर लिया था. इस तरह से अब्दुल कलाम राष्ट्रपति बने.उन्होंने वाम दलों की उम्मीदवार कैप्टन लक्ष्मी सहगल को हराया था. अपने कामकाज की शैली की वजह से वो जनता का राष्ट्रपति कहलाए.

देश की पहली महिला राष्ट्रपति का चुनाव

प्रतिभा देवी सिंह पाटील देश की पहली महिला राष्ट्रपति थीं. उनका चुनाव 2007 में हुआ था. उस समय केंद्र में कांग्रेस यूपीए की सरकार का नेतृत्व कर रही थी. 12वें राष्ट्रपति के चुनाव में पाटील यूपीए और वाम दलों की साझा उम्मीदवार थीं. वहीं विपक्षी एनडीए ने भैरो सिंह शेखावत को अपना उम्मीदवार बनाया था. लेकिन उस समय एनडीए की प्रमुख साझीदार रही शिवसेना ने पाटील का समर्थन किया था. इसको लेकर बीजेपी और शिवसेना के रिश्चे भी खराब हो गए थे. यहां तक कि गठबंधन टूटने की भी नौबत आ गई थी. लेकिन शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने मराठी अस्मिता के नाम पर पाटील को समर्थन देने का फैसला किया था. उस वक्त शिवसेना के मुखपक्ष 'सामना' ने लिखा था,मराठी मूल की प्रतिभा देवी सिंह पाटील को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाना गर्व की बात है. वहीं पार्टी प्रमुख बाल ठाकरे ने कहा था कि यह अच्छा संकेत है कि देश की पहली महिला राष्ट्रपति महाराष्ट्र से होंगी.यह महाराष्ट्र का सौभाग्य है कि एक मराठी महिला पहली बार राष्ट्रपति बनने जा रही है.

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मराठी होने की वजह से शिव सेना ने एनडीए में रहते हुए कांग्रेस उम्मीदवार प्रतिभा देवी सिंह पाटील का समर्थन किया था.

कांग्रेस ने लगाई विपक्षी खेमे में सेंध

कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे प्रणब मुखर्जी देश के 13वें राष्ट्रपति चुने गए थे. उस चुनाव में उन्होंने एनडीए उम्मीदवार पीए संगमा को हराया था. इस चुनाव में भी विपक्षी खेमे के दलों ने सत्ता पक्ष के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था. प्रणब मुखर्जी को समर्थन करने वालों में एनडीए में शामिल ममता बनर्जी और बाल ठाकरे की शिवसेना प्रमुख थी. उस समय मुखर्जी को समर्थन देते हुए ममता ने कहा था,"गठबंधन को ध्यान में रखते हुए हमने राष्ट्रपति चुनाव में प्रणब मुखर्जी का समर्थन करने का फैसला किया है.हमने इस फैसले से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पहले ही अवगत करा दिया था. मैंने उनसे कहा कि आपको यह जानकर खुशी होगी कि हमने प्रणब मुखर्जी को समर्थन करने का फैसला किया है.हमने सर्वसम्मति से अपना फैसला लिया है. लोकतंत्र और जनता के हित में हमने मुखर्जी को समर्थन देने का फैसला किया है.'' ममता ने यह भी कहा था कि निर्णय लेना मुश्किल था, यदि पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम चुनाव लड़ने को तैयार हो जाते तो हम उनका ही समर्थन करते. हालांकि राजनीतिक हलके में यह माना जाता है कि बंगाली मूल को देखते हुए टीएमसी ने प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया था. 

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आदिवासी अस्मिता के नाम पर झामुमो ने दिया मुर्मु को समर्थन

देश के 15वें और वर्तमान राष्ट्रपति के चुनाव में भी बीजेपी ने बड़ा दांव खेला. मुसलमान और दलित को राष्ट्रपति पद पर बिठा चुकी बीजेपी ने इस चुनाव में आदिवासी समाज की द्रौपदी मुर्मु को उम्मीदवार बनाया. उस समय वो झारखंड की राज्यपाल थीं. विपक्ष ने उनके सामने पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बनाया. राष्ट्रपति चुनाव के समय झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार थी. मुर्मु की आदिवासी पहचान को देखते हुए झामुमो ने उन्हें समर्थन देने का फैसला लिया.पार्टी प्रमुख शिबू सोरेन ने उस समय अपने विधायकों और सांसदों को लिखे पत्र में कहा था कि झारखंड की पूर्व राज्यपाल और आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार हैं. आजादी के बाद पहली बार किसी आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त होने वाला है, ऐसे में पार्टी ने द्रौपदी मुर्मु के पक्ष में मतदान करने का निर्णय लिया है.उन्होंने सभी सांसदों और विधायकों को द्रौपदी मुर्मु के पक्ष में मतदान करने का आदेश दिया था. इस तरह से 64.03 फीसदी वोट हासिल कर द्रौपदी मुर्मु देश की 15वीं राष्ट्रपति चुनी गईं. 

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