मौत का तुंबाड... सेफ्टिक टैंक से सोना-चांदी का कण निकालने गए 4 मजदूरों के मौत की दर्दनाक कहानी

सेफ्टिक टैंक की सफाई करने उतरे मजदूरों की सुरक्षा के लिए सही इंतज़ाम थी या नहीं? इन सवालों के जवाब पूछे जा रहे हैं. लेकिन कंपनी की तरफ से कोई जवाब नहीं मिल रहा है. यहाँ के दरवाज़े सच की पड़ताल के लिए बंद है.

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जयपुर सेफ्टिक टैंक की सफाई के दौरान जान गंवाने वाले मजदूरों की फाइल फोटो.
जयपुर:

2018 में एक हिंदी हॉरर फिल्म रिलीज हुई थी. नाम था- 'मौत का तुंबाड' (Maut ka Tumbbad). इस फिल्म में एक लड़का अपनी गरीबी से छुटकारा पाने के लिए एक भूतिया खजाने की खोज करने जाता है. इस फिल्म की तरह ही जयपुर के सीतापुरा इलाके में मौत के कई तुंबाड हैं, जहां हाल ही में अपनी गरीबी मिटाने की लालच से उतरे 4 मजदूरों की दर्दनाक मौत हो गई. इन मजदूरों के अंत की कहानी बेहद दर्दनाक है. सभी मजदूर उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे. जो रोजी-रोटी की तलाश में अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर जयपुर में रहते थे. ये चारों मजूदर सेफ्टिक टैंक की सफाई करने उतरे थे. 

सेफ्टिक टैंक से जुड़े हादसों से अलग है इसकी कहानी

यूं तो सेफ्टिक टैंक की सफाई के दौरान जहरीली गैस की चपेट में आकर जान गंवाने की कई घटनाएं पहले भी आ चुकी है. लेकिन यह मामला औरों से अलग है. क्योंकि यहां के सेफ्टिक टैंक में सोने-चांदी के कण मिलते हैं, जाहिर है जब बात सोने-चांदी के कण की है तो उसके लिए कोई ज्यादा पैसा भी खर्च करने को तैयार होता है. अब इस ज्यादा पैसों की लालच में 4 परिवारों को कभी नहीं भूलने वाला दर्द मिल गया. 

जयपुर का सीतापुरा इलाका आभूषण निर्माण का हब

मालूम हो कि जयपुर का सीतापुरा इलाका आभूषण निर्माण का हब है. यहां के ज्वेलरी जोन में आभूषण निर्माण की 150 छोटी-बड़ी फैक्ट्रियां है. जहां हर रोज कई मजदूर नायाब आभूषण बनाने में जुटे रहते हैं. इन आभूषणों की चमक बहुत तेज होती है. इससे होने वाली कमाई से जयपुर को बड़ा आर्थिक संबल भी मिलता है. लेकिन इस चमक-धमक के पीछे एक घूप अंधेरा भी है. उसी अंधेरे में यूपी के 4 मजदूरों की दर्दनाक मौत हो गई. 

ग्राउंड जीरो पर पहुंची NDTV की टीम

4 मजदूरों की दर्दनाक मौत से जुड़ी खबर आने के बाद NDTV जब यहां ग्राउंड जीरो पर पहुंची तो पता चला कि सीतापुरा इंडस्ट्रियल एरिया के ज्वैलरी जोन में मौजूद 150 से ज्यादा फैक्ट्रियां हैं. इन सभी फैक्ट्रियों में सेप्टिक टैंक हैं, जिनमें जेवर बनाने के दौरान निकलने वाला कचरा इकट्ठा किया जाता है. इनकी सफाई के लिए ठेके पर करीब 250 कर्मचारी काम करते हैं.

10 फीट गहरे टैंक, मजदूरों को नहीं मिलती कोई सुविधा

फैक्ट्रियों में मौजूद सेफ्टिक टैंक की गहराई करीब 10 फीट है. जहां फैक्ट्री का कचरा जमा होता है. लेकिन हैरत की बात यह है कि जिस टैंक से सोना-चांदी के कण निकलते हो, उसकी सफाई में भी मजूदरों को बिना बुनियादी सुविधाओं के उतार दिया जाता है. इन सेप्टिक टैंक में उतरने के लिए सीढ़ी तक नहीं थी.

बताया गया कि जब मजदूर अचेत हुए तो उन्हें बचाने के लिए दो अन्य मज़दूर नीचे उतरे. वो भी ज़हरीले गैस की वजह से अचेत हो गए. उन्हें बचाने के लिए जो आखिर में दो लोग उतरे, वो सबको बाहर निकाल के लाए, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मरने वालों की पहचान संजीव पाल, हिमांशु सिंह, रोहित पाल और अर्पित यादव के रूप में हुई. ये सभी यूपी के रहने वाले थे. 

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जब एनडीटीवी मौके पर पहुंची तो देखा कि फैक्ट्री के गेट बंद है. वहां जाने की किसी को इजाजत नहीं है. फैक्ट्री के गेट पर बाउंसर बिठा दिए गए हैं. NDTV की टीम जब रियलिटी चेक करने पहुंची तो उन्हें रोका गया.

सेफ्टिक टैंक की सफाई करने उतरे मजदूरों की सुरक्षा के लिए सही इंतज़ाम थी या नहीं? इन सवालों के जवाब पूछे जा रहे है. लेकिन कंपनी के तरफ से कोई जवाब नहीं मिल रहा है. यहाँ के दरवाज़े सच की पड़ताल के लिए बंद है.

मृतक के परिजनों से मोटी रकम में सेटलमेंट की बात

मज़दूर भी बोलने से डर रहे हैं. बताया गया है कि मृतक के परिवार वालों से मोटी रकम में सेटलमेंट हुआ है. पुलिस ने भी पहले सिर्फ मर्ग रिपोर्ट दर्ज की. लेकिन जब मानवाधिकार आयोग से दबाव आया तो देर रात FIR हुई.

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आस-पास में मौजूद दूसरे मजदूर बताते हैं कि इन बंद दरवाजों के पीछे क्या होता है? इन लोगों ने बताया कि ज़्यादातर श्रमिक यहाँ उत्तर प्रदेश, बिहार और बाहरी राज्यों से आते हैं. पैसों के लिए और परिवार के पालन पोषण के लिए जोखिम उठाने को मजबूर हैं. सीतापुरा में सिर्फ आभूषण और रत्न ही नहीं, और भी अलग-अलग फैक्ट्रियां हैं. लेकिन यहाँ मजदूरों की सुरक्षा के लिहाज़ से कहीं भी नियमों की पलना नहीं हो रही है.

इस फैक्ट्री में मज़दूर बोरवेल पर काम कर रहे रहे थे. लेकिन किसी ने भी सुरक्षा उपकरण नहीं पहने थे. ज़्यादातर श्रमिक ठेके पर काम करते हैं.


फैक्ट्री मालिक सीधा ठेकेदार से सौदा करता है. और ठेकेदार मज़दूरों को यहाँ लाकर काम करवाता है. सुविधाएं सिर्फ काग़ज़ाओं पर है. यहाँ मजूदरों की सुरक्षा का अभाव है. यदि कोई ठेकेदार के खिलाफ आवाज उठता है तो उसकी आवाज को कुचल दिया जाता है. 

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घर से कोसों दूर परिवार और पेट को सँभालने के लिए मजदूर यहाँ आते हैं. कई ठेके पर काम करते हैं और कई दिहाड़ी मज़दूर हैं.  यहाँ संगठित होकर अपनी हक़ की लड़ाई लड़ना नामुमकिन है. परिवार को पालना है इसलिए खतरे से खेलने पर मजबूर होना पड़ता है. अब देखना है कि मानवाधिकार आयोग द्वारा स्वतं सज्ञान लेने पर इन मजदूरों के परिवारों को न्याय मिलता है या नहीं?

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