सिकल सेल एनीमिया की 50 रुपए से भी सस्ती देशी जांच से होगी पहचान, 10 मिनट में आएगा परिणाम 

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि आईसीएमआर के इस सीआरएमसीएच को सरकार ने आधिकारिक तौर पर किट्स की जांच और मंजूरी के लिए अधिकृत किया है.

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नई दिल्ली:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लक्ष्य है देश को सिकल सेल एनीमिया से मुक्त करना है और उनकी इस लड़ाई में हथियार बन रही है देशी तकनीक और सस्ती जांच. इसके जरिये ना सिर्फ 50 रूपए से कम में सिकल सेल एनीमिया की पहचान हो रही बल्कि 10 मिनट में नतीजे भी सामने आ रहें हैं.

नई तकनीक से कैसे रहें जांच के नतीजे?

नई दिल्ली स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) के सेंटर फॉर रिसर्च इन मेडिकली कंप्लीकेटेड हीमोग्लोबिन पैथी (CRMCH) के वैज्ञानिकों ने 50 रुपये से भी सस्ती जांच के जरिए सिकलसेल एनीमिया की पहचान करना शुरू किया है. यह जांच सरल और तेज है. सीआरएमसीएच के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. प्रभाकर केदार ने एनडीटीवी को बताया कि देश में अब तक 35 कंपनियों की जांच किट्स का परीक्षण किया गया जिनमें से 23 किट्स ने 100 प्रतिशत सटीकता दिखाई है जबकि 12 किट्स 95 फीसदी तक प्रभावी पाई गईं. इनमें से जिस तकनीक को वैज्ञानिकों ने मंजूरी दी है उसके जरिए सिर्फ 10 मिनट में जांच परिणाम पता चल जाता है और इसके लिए संदिग्ध रोगी के सिर्फ एक बूंद खून पर्याप्त है. 

सिकल सेल एनीमिया की कैसे हो रही जांच?

डॉ. प्रभाकर केदार ने बताया कि एक उंगली की सुई से लिए ब्लड की एक बूंद को बफर सॉल्यूशन में मिलाकर जब स्ट्रिप पर डाला जाता है तो कुछ ही मिनट में परिणाम मिल जाता है. यह बिलकुल वैसी प्रक्रिया है जैसी कि गर्भावस्था की पहचान करने के लिए जांच किट्स होती हैं. इससे अलग-अलग हीमोग्लोबिन प्रकार जैसे एचबीए (सामान्य), एचबीएस (सिकल) और कंट्रोल बैंड की पहचान करने के लिए एंटीबॉडी का स्तर पता चलता है. उन्होंने बताया कि प्रत्येक किट के परीक्षण के लिए वैज्ञानिकों ने 50-50 सिकल होमोजाइगस, हीटेरोजाइगस और सामान्य रक्त नमूनों का उपयोग किया.

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300 करोड़ रुपए की हुईं बचत 

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया कि आईसीएमआर के इस सीआरएमसीएच को सरकार ने आधिकारिक तौर पर किट्स की जांच और मंजूरी के लिए अधिकृत किया है. चंडीगढ़ पीजीआई के साथ मिलकर इन वैज्ञानिकों ने सिकलसेल एनीमिया की जांच करने वाली सभी किट्स का जब मूल्यांकन किया तो उसमें यह पता चला कि इसकी कीमत अधिकतम 50 रुपये हो सकती है जबकि प्राइवेट कंपनियों ने निविदा में 300 रुपए से अधिक कीमत का प्रस्ताव दिया था. हालांकि, कंपनियों ने सस्ती कीमत में किट्स का उत्पादन करने पर सहमति जताई है. इस तरह वैज्ञानिकों ने तकरीबन 300 करोड़ रुपए से भी ज्यादा की बचत की है.

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