कोरोना काल में गया में कफन बनाने का काम हुआ दोगुना, चार राज्यों में आपूर्ति

कफन बनाने वाले पटवा टोला मुहल्ला निवासी चंदन प्रसाद पटवा कहते हैं कि कोरोना के कारण गमछा और चादर बनाने का काम बंद पड़ गया. मांग भी नहीं थी. ऐसे में जीवकोपार्जन की समस्या उत्पन्न हो गई थी लेकिन विगत कई महीनों से कफन की मांग बढ़ गई है. ऐसे में हमारा पूरा परिवार कफन बनाने में दिन-रात लगा हुआ है

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बिहार के गया जिले के मानपुर में कफन बनाते कारीगर.

गया:

कोरोना महामारी (Coronavirus Pandemics) ने पूरी दुनिया में कोहराम मचा रखा है. देशभर में भी कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. वहीं कोरोना से मरनेवाले लोगों की संख्या में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इसे लेकर बिहार के गया जिले के मानपुर प्रखंड के पटवा टोली मोहल्ले में बड़े पैमाने पर कफन और पितांबरी का निर्माण हो रहा है. कफन बनाने के काम में 15 से 20 परिवार लगातार लगे हुए हैं. लोगों का कहना है पूर्व में मांग बहुत कम थी लेकिन अब कोरोना के कारण मौतों के आंकड़ों में हुई वृद्धि के बाद यह मांग दोगुनी हो गई है. पूरे परिवार के साथ दिन-रात कफन बनाने में लगे हुए हैं.

गया के मानपुर का पटवाटोली 'बिहार का मैनचेस्टर' के रूप में विख्यात रहा है. मानपुर के पटवाटोली में 10 हजार से भी ज्यादा पावरलूम मशीने लगी हुई हैं जो मुख्य रूप से चादर और गमछा बनाने का कार्य करती हैं. इनके बनाए गमछा और चादर बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा सहित देश के कई राज्यों में निर्यात होते हैं लेकिन अब पावरलूम बंद पड़ गया है. कोरोना के कारण ना तो व्यापारी यहां चादर गमछा खरीदने आ रहे हैं और ना ही यहां निर्माण हो पा रहा है. यहां की अधिकतर मशीनें बंद है और पूरा मोहल्ला सुनसान पड़ा हुआ है लेकिन इसी पटवाटोली के 15 से 20 घर ऐसे हैं जहां पावरलूम की मशीनें चालू हैं. इन मशीनों पर चादर, गमछा के बजाय अब कफन बनाया जा रहा है.

कफन बनाने वाले पटवा टोला मुहल्ला निवासी चंदन प्रसाद पटवा कहते हैं कि कोरोना के कारण गमछा और चादर बनाने का काम बंद पड़ गया. मांग भी नहीं थी. ऐसे में जीवकोपार्जन की समस्या उत्पन्न हो गई थी लेकिन विगत कई महीनों से कफन की मांग बढ़ गई है. ऐसे में हमारा पूरा परिवार कफन बनाने में दिन-रात लगा हुआ है. लगातार हम लोग 15 घंटे तक मेहनत कर रहे हैं. व्यापारियों के द्वारा बड़े पैमाने पर कफन की मांग की जा रही है. ऐसे में हमलोग का पूरा परिवार कफन बनाने में लगा हुआ है.

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पटवा कहते हैं, 'कफन बनाने से मिले पैसों से हमारे घर की जीविका चल रही है.' उन्होंने बताया कि पहले तो 15 से 20 हजार पीस कफन हमलोग बनाते थे लेकिन अब 40 से 50 हजार पीस बना रहे हैं. लगातार कफन की डिमांड बढ़ती जा रही है. उन्होंने बताया कि हमलोग छोटे व्यवसायी हैं, इसलिए अपने हाथों से कफन बनाते हैं जबकि बड़े व्यवसाई पावरलूम का इस्तेमाल कर रहे हैं. उनके द्वारा बड़े पैमाने पर कफन बनाने का कार्य किया जा रहा है.

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स्थानीय निवासी द्वारिका प्रसाद पटवा बताते हैं कि कभी इस क्षेत्र में गमछा और चादर बनाने के लिए पावर लूम की मशीनें चलती थीं. पटवा मोहल्ले को आईआईटीएन का गांव के रूप में भी लोग जाने जाते थे लेकिन कोरोना के कारण परीक्षाएं बंद है. गमछा चादर बनाने का काम भी ना के बराबर है लेकिन आसपास के राज्यों एवं बिहार के कई जिलों से कफ़न बनाने की मांग बढ़ती जा रही है. इसे लेकर पटवा मोहल्ले के 15 से 20 परिवार कफन बनाने का कार्य दिन-रात कर रहे हैं. कफन पर रामनामा लिखा जाता है. बंगाल भेजने वाले कफन पर बंगाली भाषा में रामनामा लिखते हैं और इसके बाद उसे भेज देते हैं. बिहार, झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल तक पटवा टोली के कफन का निर्यात हो रहा है.

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