रवीश कुमार (Ravish Kumar) ने अपने शो 'Prime Time With Ravish Kumar' के ताजा एपिसोड (22 जुलाई, 2021) में आयकर विभाग द्वारा दो मीडिया संस्थानों (दैनिक भास्कर समूह और यूपी का टीवी चैनल भारत समाचार) पर सच छापने और सच दिखाने पर छापेमारी किए जाने की घोर आलोचना की है और पूछा है कि कहां तक लिखें कि छापा नहीं पड़ेगा? उन्होंने कहा कि अभी तक चुनावों के समय विपक्षी दलों के नेताओं और उनसे जुड़े लोगों के यहां छापेमारी होने लग जाती थी लेकिन अब ख़बर छापने और दिखाने के कारण भी छापेमारी होने लगी है.
रवीश ने तंज कसा, "आपातकाल शब्द इतना घिस चुका है कि आप इसके इस्तमाल से कुछ भी नहीं कह पाते हैं. काल के नए नए रूप आ गए हैं." उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान हिन्दी ही नहीं अंग्रेज़ी अखबारों में भी भास्कर अकेला ऐसा अख़बार रहा है जिसने नरसंहार को लेकर सरकार से असहज सवाल पूछे. उन बातों से पर्दा हटा दिया जिन्हें ढंकने की कोशिश हो रही थी.. इस दौरान भास्कर के पत्रकारों ने केवल अच्छी रिपोर्टिंग नहीं की बल्कि महामारी की रिपोर्टिंग में नए-नए पहलू भी जोड़े.
रवीश ने बताया कि भास्कर समूह के गुजराती अख़बार दिव्य भास्कर ने जब कोरोना की दूसरी लहर में मरने वालों की सरकारी संख्या के सामने नए-नए दस्तावेज़ पेश किए तो न्यूयार्क टाइम्स से लेकर कई अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने भास्कर की तरफ देखा. रिसर्चरों ने भास्कर के इस्तमाल किए गए डेटा के आधार पर भारत में मरने वालों की संख्या का आंकलन किया. बताया कि जो संख्या बताई जा रही है उससे कई गुना लोगों की मौत हुई है. रवीश ने पूछा कि क्या ऐसा करने की कीमत यह होगी कि आयकर और प्रत्यर्पण विभाग का छापा पड़ेगा?
उन्होंने कहा कि पेगासस जासूसी कांड की खबर पहले दिन कई हिन्दी अख़बारो से नदारद थी लेकिन भास्कर के पहले पन्ने पर पूरे विस्तार से मौजूद थी. उसके बाद भी भास्कर ने इस खबर को पहले पन्ने से नहीं हटाया. रवीश ने बताया कि दूसरी लहर में भास्कर की आक्रामक हेडलाइन को अनदेखा नहीं कर सकते हैं. सूरत के सांसद सी आर पाटिल ने कहा कि उनके पास रेमडिसिवर हैं और जनता इस दवा के लिए त्राही त्राही कर रही थी, तब भास्कर ने सांसद का नंबर ही प्रकाशित कर दिया कि उन्हें फोन कर लें. इस तरह के साहसिक प्रयोग भास्कर ने खूब किए, जो कि उस दौरान या कभी भी किसी मीडिया संस्थान को करना ही चाहिए था.
रवीश ने बताया कि भास्कर की रिपोर्टिंग किसी एक सरकार तक सीमित नहीं रही. सूरत से लेकर जयपुर, भोपाल से लेकर प्रयागराज और लखनऊ से लेकर पटना तक में फैले उसके संवाददाताओं ने श्मशान, मुर्दाघरों और मृत्यु पंजीकरण की व्यवस्था को खंगाल दिया. राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है लेकिन वहां भी भास्कर ने सरकार के खिलाफ लिखना नहीं छोड़ा. पटना में भास्कर के संवाददाताओं ने कई श्मशान घाटों और गांवों का दौरा कर बताया कि मरने वालों की संख्या सरकारी आंकड़े से कई गुना ज्यादा है.
रवीश ने कहा, "भास्कर की इस साहसिक रिपोर्टिंग के सामने हिन्दी के कई अखबार पिछड़ने लगे. पाठकों के संसार में एक अंतर प्रमुखता से दिखने लगा कि कोरोना को लेकर क्या हुआ है? कुछ और हिन्दी अखबारों ने भी रिपोर्टिंग की लेकिन डर कर और बच-बचा कर. शायद इसी वजह से भास्कर के संस्थानों पर छापे पड़े हैं. सरकार बेशक छापों को सही ठहराने के लिए सौ तर्क बता देगी लेकिन यह केवल संयोग नहीं है. आज भी भोपाल भास्कर की यह खबर देख सकते हैं, जिसमें बताया गया है कि सरकार कहती है ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा लेकिन लेकिन मध्य प्रदेश में ही 15 हादसों में 60 लोगों की मौत ऑक्सीजन की कमी से हुई है."
रवीश ने कहा, "इस तरह की रिपोर्टिंग से लोग यह भी चर्चा कर रहे थे कि जल्दी ही भास्कर के संस्थानों में छापे पड़ेंगे और छापे पड़ भी गए." उन्होंने कहा कि एक दलील दी जाती है कि काले कारनामे होंगे तो छापे पड़ेंगे तो यह छापे तभी क्यों पड़ते हैं जब कोई मीडिया हाउस सवाल करने लगता है? सरकार के झूठ को चुनौती देने लगता है. उन्होंने पूछा कि क्या इसी तर्क से यह भी माना जाए कि गोदी मीडिया इसलिए बना क्योंकि उसके अपने काले कारनामे हैं और छापे पड़ सकते हैं.
उन्होंने पूछा, "जब रफाल विमान सौदे में भ्रष्टाचार की खबर छपती है तब तो सरकार जांच नहीं करती, जब पीएम केयर्स के वेंटिलेटर के खराब होने को लेकर डॉक्टर सवाल उठाते हैं तब तो जांच नहीं करती और न कोई एजेंसी अपना काम करती है. जब पत्रकारों की जासूसी होती है तब तो सरकार जांच नहीं करती. जब सरकार खुद भ्रष्टाचार के मामलों का अपना राजनीतिक इस्तमाल करती है तब तो जांच एजेंसियां अपना काम नहीं करती है. ये जांच एजेंसियां तभी क्यों काम करती हैं जब कोई अखबार या चैनल थोड़ा सा काम करने लगता है?" यूपी में भारत समाचार चैनल भी कोरोना काल में गंगा में बहती लाशों और योगी सरकार के कारनामों का लगातार खुलासा कर रहा था.
रवीश ने पूछा, "क्या यह सही नहीं है कि विपक्ष के विधायकों को तोड़ने के लिए भी एजेंसियों का इस्तमाल हुआ है? मुकुल रॉय का उदाहरण सबसे बड़ा है. पहले उन पर घोटाले का आरोप लगाया गया फिर बीजेपी में लाकर उपाध्यक्ष बनाया गया. इसलिए कारनामों को पकड़ने की यह डिज़ाइन कारनामों से ज़्यादा आवाज़ दबाने की ही लगती है. जिस समय सरकार पत्रकारों और विपक्षी नेताओं के फोन की जासूसी के आरोप से घिरी हो उसी समय ये छापे बता रहे हैं कि वह इस दिशा में कितना आगे बढ़ चुकी है?"