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Explainer: क्या है कच्चाथीवू आइलैंड मामला? इंदिरा गांधी सरकार के फैसले को आम नागरिक ने क्यों दी थी कानूनी चुनौती

तमिलनाडु के बीजेपी अध्यक्ष अन्नामलाई ने एक RTI फाइल की थी, जिसके जवाब आया है कि 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पाक जलसंधि के दौरान कच्चाथीवू आइलैंड को श्रीलंका को सौंप दिया था. RTI का जवाब आने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर निशाना साधा है.

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1974 में सामान्य नागरिक बृज खंडेलवाल ने कच्चाथीवू आइलैंड को श्रीलंकाई क्षेत्र के रूप में मान्यता देने के सरकार के फैसले को चुनौती दी थी.
नई दिल्ली/चेन्नई:

लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) 400 पार सीटें जीतने के लिए बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी का फोकस दक्षिण भारत के राज्यों पर है. दक्षिण भारत के अहम राज्य तमिलनाडु में कच्चाथीवू आइलैंड (Katchatheevu island Case)का मामला अब चुनावी मुद्दा बनता जा रहा है. 1974 में जब एक सामान्य नागरिक ने इस छोटे से कच्चाथीवू आइलैंड को श्रीलंकाई क्षेत्र के रूप में मान्यता देने के सरकार के फैसले को चुनौती दी थी. तब सरकार ने तर्क दिया था कि उसे इस मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है. अब इस 50 साल बाद कच्चाथीवू मामले में पहले याचिकाकर्ता बृज खंडेलवाल (Brij Khandelwal) का कहना है कि वह अभी भी इस बात पर कायम हैं कि किसी भी सरकार को देश के किसी हिस्से या क्षेत्र को कम करने का कोई अधिकार नहीं है.

करीब 1.6 किलोमीटर लंबा और 300 मीटर से ज्यादा चौड़ा यह निर्जन आइलैंड लोकसभा चुनाव से पहले सुर्खियों में आ गया है. दरअसल, तमिलनाडु के बीजेपी अध्यक्ष अन्नामलाई ने एक RTI फाइल की थी, जिसके जवाब आया है कि 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पाक जलसंधि के दौरान इस आइलैंड को श्रीलंका को सौंप दिया था. RTI का जवाब आने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर निशाना साधा है. वहीं, बीजेपी ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर इसे श्रीलंका को देने का आरोप लगाया है.

NDTV के साथ खास इंटरव्यू में याचिकाकर्ता बृज खंडेलवाल ने इस मामले पर कई सवालों के जवाब दिए. उन्होंने बताया कि उन्होंने कच्चाथीवू आइलैंड का मामला आखिर क्यों उठाया था.

बृज खंडेलवाल ने कहा, "मैंने यह याचिका 1974 में दायर की थी, क्योंकि दक्षिण में सिर्फ 200 एकड़ के एक छोटे से आइलैंड (द्वीप) को श्रीलंका को तोहफे के तौर पर दे दिया गया था. मुझे यह विचार पसंद नहीं आया, क्योंकि मुझे लगा कि किसी भी सरकार के पास भारत के किसी क्षेत्र को कम करने का कोई अधिकार नहीं है. बेशक सरकारें भारत के क्षेत्र को जोड़ सकते हैं, लेकिन इसके हिस्से को कम नहीं कर सकते."

उन्होंने कहा, "1974 में दिल्ली हाईकोर्ट में मैंने एक याचिका दायर की थी. मुझे इस बात की फिक्र थी कि भविष्य में दोनों देशों के संबंधों में खटास आने पर कच्चाथीवू आइलैंड का इस्तेमाल सैन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है."

बृज खंडेलवाल बताते हैं, "आज श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते अच्छे हो सकते हैं, लेकिन कल वे खराब या शत्रुतापूर्ण भी हो सकते हैं. 80 के दशक में ऐसा ही हुआ था. इसलिए मैं इसके बारे में बहुत फिक्रमंद था. मुझे डर है कि किसी दिन कोई शत्रुतापूर्ण सरकार बन जाएगी. क्योंकि हमारी ज़मीन के इस टुकड़े को पट्टे पर दे दिया गया है. हो सकता है कि आने वाले दिनों में दोनों देशों के रिश्ते खराब हो जाए और श्रीलंका इस आइलैंड का इस्तेमाल सैन्य उद्देश्यों के लिए करे... तब क्या होगा?" 

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सरकार ने तर्कों को किया खारिज
हालांकि, इमरजेंसी के दौरान मौलिक अधिकार भी सस्पेंड थे, लिहाजा बृज खंडेलवाल को अपने तर्कों के लिए तत्कालीन सरकार की तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा. 

खंडेलवाल ने बताया, "सरकार ने तर्क दिया कि इस मामले में हमारा सवाल पूछने का कोई अधिकार नहीं है. कच्चाथीवू आइलैंड से हमारा सीधा-सीधा कोई लेनादेना नहीं है. इसलिए हमारी बात नहीं सुनी जानी चाहिए. लेकिन एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में मेरे सभी मौलिक अधिकार बरकरार हैं." खंडेलवाल आगे कहते हैं, "इस मुद्दे में दखल देना या सवाल उठाना मेरा काम था. मुझे भारतीय क्षेत्र के किसी भी हिस्से में स्वतंत्र रूप से घूमने का पूरा अधिकार है. मैं समझता हूं कि किसी भी सरकार के पास जमीन के किसी भी हिस्से को काटने या उसे कम करने का कोई अधिकार नहीं है."

खंडेलवाल के तर्कों से दिल्ली हाईकोर्ट भी संतुष्ट नहीं थी. खंडेलवाल ने कहा, "दिल्ली हाईकोर्ट ने शायद फैसला किया कि मेरे पास इस मामले में बात करने का वास्तव में कोई अधिकार नहीं है. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इमरजेंसी प्रॉविजेंस (आपातकालीन प्रावधान) लागू किए गए थे. मेरे पास कोई मौलिक अधिकार नहीं था. इसलिए मैं उस आधार पर दलील नहीं दे सका."

खंडेलवाल ने कहा, "इमरजेंसी हटने के बाद मैंने इस मामले को बहुत मजबूती से आगे नहीं बढ़ाया. क्योंकि किसी भी सरकार की इसमें दिलचस्पी नहीं थी." उन्होंने कहा, "1977 के बाद जब इमरजेंसी हटा लिया गया और जनता पार्टी केंद्र की सत्ता में आई, तो मैंने इस मामले के बारे में बताया. लेकिन उन्होंने मुझसे दोनों देशों के संबंधों में गैर-जरूरी दखल नहीं देने की हिदायत दी. इसलिए मैं चुप रहा."

खंडेलवाल बताते हैं, "कच्चाथीवू आइलैंड 1947 तक भारतीय क्षेत्र का हिस्सा था. लेकिन पूरे मामले की वैधता पर कोई विवाद नहीं था. यह इंदिरा गांधी सरकार की उदारता के बारे में था, जिसने शायद उन्हें यह निर्णय लेने के लिए मजबूर किया होगा. इंदिरा गांधी श्रीलंका के साथ अच्छे रिश्ते चाहती थीं, जो संभव नहीं हुआ. इंदिरा बाद इसके बाद चुनाव में हार गईं."

उन्होंने कहा कि सरकार के पास इस मामले का विरोध करने का कोई ठोस कारण नहीं था, लेकिन इमरजेंसी के कारण अदालतें दबाव में थीं.

बृज खंडेलवाल बताते हैं, "जो सवाल मैंने 1974 में उठाया था. वो सवाल आज भी प्रासंगिक हैं. आज भी मेरा विश्वास है कि किसी भी सरकार को किसी दूसरे देश को भारत के किसी भी हिस्से को गिफ्ट में देने का कोई हक नहीं है. मुझे लगता है कि यह आइलैंड हमारा है."

कच्चाथीवू आइलैंड का इतिहास
बता दें कि कच्चाथीवू आइलैंड हिंद महासागर के दक्षिणी छोर पर स्थित है. भारत के लिहाज से देखें, तो ये रामेश्वरम और श्रीलंका के बीच स्थित है. 285 एकड़ में फैला ये आइलैंड 17वीं सदी में मदुरई के राजा रामानंद के राज्य का हिस्सा हुआ करता था. अंग्रेजों के शासन में ये मद्रास प्रेसीडेंसी के पास आ गया. फिर साल 1921 में भारत और श्रीलंका दोनों देशों ने मछली पकड़ने के लिए इस द्वीप पर दावा ठोका. भारत की आजादी के बाद समुद्र की सीमाओं को लेकर 1974 से 1976 के बीच 4 समझौते हुए.

श्रीलंका को कैसे मिला ये आइलैंड?
1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति श्रीमावो भंडारनायके के बीच इस कच्चाथीवू  आइलैंड को लेकर एक समझौता हुआ. कुछ शर्तों पर तत्कालीन भारत सरकार ने इस आइलैंड को श्रीलंका को सौंप दिया था. इसमें एक शर्त ये भी थी कि भारतीय मछुआरे जाल सुखाने के लिए इस आइलैंड का इस्तेमाल करेंगे.  

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