क्या Tool Kit से डिजिटल स्टार्म पैदा करने के आरोप साबित हो पाएंगे, साइबर विशेषज्ञ ने उठाए सवाल

Tool Kit केस पुलिस के लिए बड़ी चुनौती, साइबर विशेषज्ञ ने कहा, एक फीसदी मामलों में भी सजा नहीं हो पाती.

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नई दिल्ली:

किसान आंदोलन से जुड़ी Tool Kit क्या भारत में डिजिटल स्टार्म पैदा करने, हिंसा और अलगाववाद को बढ़ावा देने की कोशिश थी. विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली पुलिस (Delhi Police) के इन दावों पर यकीन करें तो यह 2008 के मुंबई हमले (Mumbai Attack 2008) के बाद भारत के लिए साइबर क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौती और नींद से जगाने वाली घटना है. साइबर लॉ (Cyber Law) और सुरक्षा विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वकील पवन दुग्गल (Pawan Duggal) ने NDTV से बातचीत में कहा कि डिजिटल साक्ष्यों के आधार पर दोषियों को सजा दिलाने के मामले में भारत का रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है. एक फीसदी मामलों में भी हम सजा दिलाने की दर एक फीसदी भी नहीं है. पेश है बातचीत के प्रमुख अंश.

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प्रश्न: Toolkit Case भारत, कनाडा और फ्रांस समेत कई देशों में फैला है. इन देशों में बैठे आरोपियों से पूछताछ या इन्हें भारत लाना कितना मुश्किल है?

उत्तर: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र या किसी अन्य एजेंसी के स्तर पर ऐसा विशिष्ट साइबर कानून (Cyber Expert) नहीं है, जो सभी देशों पर लागू हो या उन्हें सहयोग करने को विवश करे . इस कारण इंटरनेट से जुड़े मामलों और अपराधों में आरोपियों पर शिकंजा कस पाना, उनका प्रत्यर्पण कर प्रभावित देश में लाना नामुमकिन सा है. भारत साइबर क्राइम से जुड़ी किसी अंतरराष्ट्रीय संधि का सदस्य देश नहीं है. ऐसे मामलों में सदस्य साइबर अपराध (Cyber Crime) से संबंधित सूचनाओं के त्वरित आदान-प्रदान और अपराधियों पर कार्रवाई में परस्पर सहयोग देते हैं.

प्रश्न: तो क्या दुनिया के किसी कोने से कोई भी दूसरे देश में सोशल मीडिया जैसे माध्यमों से बिना किसी कानूनी शिकंजे के हिंसा-उन्माद भड़का सकता है? 

उत्तर: साइबर मामलों में कानूनी सहयोग, जांच और सूचनाओं के आदान-प्रदान में सहयोग के लिए कन्वेंशन ऑफ साइबर क्राइम (बुडापेस्ट कन्वेंशन) संधि हुई थी. इसमें 67 देश हैं, लेकिन भारत उनमें शामिल नहीं हैं. भारत इसका सदस्य होता तो साइबर क्राइम के केस में डिजिटल डेटा का आदान-प्रदान, आरोपियों की पहचान, पूछताछ और उनका प्रत्यर्पण आसान होता.

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प्रश्न: साइबर मामलों में अपराधियों पर शिकंजा कसने के मामले में भारतीय पुलिस कितनी तैयार है?

उत्तर: भारत में साइबर मामलों में अभियोजन (कनविक्शन रेट) की दर 1 फीसदी से भी कम है. मुकदमे लंबे चलने से डिजिटल रिकॉर्ड नष्ट हो जाते हैं या फिर पुलिस उन्हें प्रमाणित कर पाने में सफल नहीं हो पाती. आम जनता के मामलों में तो सुनवाई बेहद लचर है. हमने साइबर स्पेस में अपराधों पर मुकदमे तो दर्ज करने शुरू कर दिए हैं, लेकिन इन मुकदमों का अंत कहां हो पाएगा, यह अनिश्चित है.

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प्रश्न: भारत में साइबर अपराधों के लिए स्पेशल पुलिस यूनिट या फास्टट्रैक कोर्ट क्या है?

उत्तर:  साइबर मामलों के लिए हमारे देश में कोई स्पेशलाइज्ड फोर्स नहीं है. कुछ महानगरों में ही साइबर सेल हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं. कोरोना काल के बाद से ही साइबर अपराध में कई गुना वृद्धि देखी गई है, फिर भी हम जागे नहीं हैं.

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प्रश्न: साइबर अपराधों में डिजिटल या इलेक्ट्रानिक रिकॉर्ड कितनी बड़ी भूमिका होती है ?

उत्तर: आईटी ऐक्ट के तहत डिजिटल रिकॉर्ड मान्य हैं, लेकिन कोर्ट में पुलिस को यह साबित करना पड़ता है कि इनसे छेड़छाड़, बदलाव नहीं हुआ है.इन्हें प्रमाणित करना पड़ता है. आरोपी इसे भी चुनौती दे सकते हैं. लिहाजा डिजिटल रिकॉर्ड के आधार पर अभियोजन बड़ी चुनौती है.

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प्रश्न: इलेक्ट्रानिक रिकॉर्ड को लेकर अदालत ने क्या कोई अहम आदेश दिया है ?

उत्तर: इविडेंस एक्ट की धारा 65बी के तहत डिजिटल रिकॉर्ड मान्य हैं. अर्जुन पंडित राव केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इलेक्ट्रानिक रिकॉर्ड को साक्ष्य मानने के लिए कई शर्तों को पूरा करना होगा. 65बी कहती है कि आईटी ऐक्ट 2000 के तहत इलेक्ट्रानिक रिकॉर्ड, कंप्यूटर, कंप्यूटर से निकली प्रिंट आउट, ईमेल, इलेक्ट्रानिक फाइल मान्य हैं, लेकिन अदालत में आपको सर्टिफिकेट देना होगा कि कोई फेरबदल, छेड़छाड़ तो नहीं हुआ और उसे सुरक्षित रखा गया है. दूसरी पार्टी फिर आपके ई-रिकॉर्ड को चुनौती दे सकती है. आपको फिर साबित करना पड़ेगा कि टेंपरिंग, मैनिपुलेशन नहीं हुआ है.

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प्रश्न: भारत में आईटी ऐक्ट 2000 साइबर अपराधों से निपटने में कितना सक्षम है?

उत्तर: भारत का आईटी ऐक्ट वर्ष 2000 में यानी 21 साल पहले बना था, इसमें मुंबई हमले के बाद 2008 में एक संशोधन हुआ था. पिछले 13 साल से यह जस का तस है, जबकि इन 13 सालों में ही डिजिटल क्रांति के साथ खतरा कई गुना बढ़ गया है. सोशल मीडिया बड़ी ताकत और खतरा बनकर उभरा है.

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