दो इस्लामी विद्वानों के विचार पाठ्यक्रम से हटाने पर विवाद, AMU ने पेश की सफाई

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने बीसवीं सदी के दो प्रमुख इस्लामी विद्वान अबुल आला मौदूदी और सैयद कुतुब के विचारों को पाठ्यक्रम से हटाया

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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने दो इस्लामिक विद्वानों के विचार सिलेबस से हटा दिए हैं.
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  • दक्षिणपंथी विचारधारा के 20 से ज्यादा विद्वानों ने जताई थी आपत्ति
  • इस्लामी विद्वानों के विचारों को आपत्तिजनक करार दिया था
  • विद्वानों ने कथित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा था
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अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश):

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) ने बीसवीं सदी के दो प्रमुख इस्लामी विद्वान अबुल आला मौदूदी और सैयद कुतुब के विचारों को पाठ्यक्रम से हटाए जाने को लेकर उठे विवाद पर सफाई पेश की है. विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि एएमयू ने यह कदम किसी भी तरह के अनावश्यक विवाद से बचने के लिए उठाया है. ज्ञातव्य है कि दक्षिणपंथी विचारधारा के 20 से ज्यादा विद्वानों ने एएमयू में इस्लामी विद्वानों अबुल आला मौदूदी और सैयद कुतुब के विचारों को आपत्तिजनक करार देते हुए इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) को कथित रूप से पत्र लिखा था.

एएमयू के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, 'हमने इस मामले पर उठे विवाद को और आगे बढ़ने से रोकने के लिए यह कदम उठाया है. इसे शैक्षणिक स्वतंत्रता के अतिक्रमण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.'

गौरतलब है कि अबुल आला मौदूदी (1903-1979) एक भारतीय इस्लामी विद्वान थे जो हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे. वह जमात-ए-इस्लामी नामक एक प्रमुख मुस्लिम धार्मिक संगठन के संस्थापक भी थे. उनकी कृतियों में 'तफहीम उल कुरान' भी शामिल है. मौदूदी ने वर्ष 1926 में दारुल उलूम देवबंद से स्नातक की डिग्री हासिल की थी. वह धार्मिक बहुलतावाद के पैरोकार थे.

एक अन्य इस्लामी विद्वान सैयद कुतुब, जिनके विचारों को एएमयू के पाठ्यक्रम से हटाया गया है, मिस्र के रहने वाले थे और इस्लामी कट्टरपंथी विचारधारा के पैरोकार थे. वह इस्लामिक ब्रदरहुड नामक संगठन के प्रमुख सदस्य भी रहे. उन्हें मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति गमल अब्दुल नासिर का विरोध करने पर जेल भी भेजा गया था. कुतुब ने एक दर्जन से ज्यादा रचनाएं लिखीं. उनकी सबसे मशहूर कृति 'फी जिलाल अल कुरान' थी जो कि कुरान पर आधारित है.

एएमयू के प्रवक्ता उम्र पीरजादा ने कहा कि इन दोनों इस्लामी विद्वानों की कृतियां विश्वविद्यालय के वैकल्पिक पाठ्यक्रमों का हिस्सा थीं, इस वजह से उन्हें हटाने से पहले एकेडमिक काउंसिल में इस पर विचार विमर्श करने की प्रक्रिया अपनाने की 'कोई जरूरत नहीं' थी.

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