चांदीपुरा वायरस का मिला तोड़, वैज्ञानिकों ने इलाज के लिए तैयार की दवा

चांदीपुरा वायरस मच्छरों के माध्यम से फैलता है और कुछ ही घंटों में बच्चों में एन्सेफलाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) और मृत्यु का कारण बन सकता है.

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प्रतीकात्मक फोटो

चांदीपुरा वायरस से अब डरने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने इसका इलाज खोज लिया है और अगर सब सही रहा तो दवा भी जल्द दस्तक देगी. दरअसल, चांदीपुरा वायरस के चलते भारत के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में अब तक सबसे ज्यादा बच्चों की मौत हुई है. करीब 60 साल पुरानी इस जानलेवा बीमारी का अब तक कोई ठोस इलाज नहीं था, लेकिन भारत के वैज्ञानिकों ने चांदीपुरा वायरस की दवा की खोज कर ली है, जिसके जरिए मरीज की जान का जोखिम कम किया जा सकता है. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) के वैज्ञानिकों का कहना है कि यह वायरस सालों से भारत में एक 'खामोश हत्यारा' बना हुआ है. इसके खिलाफ संभावित एंटीवायरल उपचार की तलाश पूरी हुई. आईसीएमआर के पुणे स्थित राष्ट्रीय वायरोलॉजी संस्थान (NIV) ने अपने सेल और एनिमल मॉडल प्रयोगों में फेविपिराविर नामक दवा को इस घातक वायरस की वृद्धि को रोकने में सक्षम पाया है. यह पहली बार है जब इस जानलेवा वायरस के लिए किसी दवा के प्रभावी होने की पुष्टि वैज्ञानिक रूप से भारत में की गई है.

इंसानों पर जल्द शुरू होगा परीक्षण 

चांदीपुरा वायरस मच्छरों के माध्यम से फैलता है और कुछ ही घंटों में बच्चों में एन्सेफलाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) और मृत्यु का कारण बन सकता है. पिछले साल 2024 में गुजरात में इसका प्रकोप सामने आया जो बीते 20 वर्ष में सबसे बड़ा रहा. इस दौरान जून से अगस्त 2024 के बीच गुजरात सहित कई राज्यों में 82 लोगों की मौत हुई जबकि 245 से ज्यादा चपेट में आए. वैज्ञानिकों का कहना है कि अब फेविपिराविर दवा पर मानव परीक्षण जल्द ही शुरू किए जा सकते हैं. सरकार और स्वास्थ्य एजेंसियों को इस पर ध्यान केंद्रित कर राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में शामिल करना चाहिए. चांदीपुरा वायरस को अब अविकसित और उपेक्षित वायरस की श्रेणी से निकालकर प्राथमिकता सूची में शामिल करना आवश्यक है.

चांदीपुरा वायरस क्या है?

चांदीपुरा वायरस एक रैब्डोवायरस है, जिसकी खोज सबसे पहले 1965 में महाराष्ट्र के नागपुर जिले के चांदीपुरा गांव में हुई थी. इसलिए इसका नाम चांदीपुरा रखा गया. यह वायरस बालू मक्खी के काटने से फैलता है और बच्चों में तेजी से मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले एन्सेफलाइटिस का कारण बनता है, जिसे सामान्य भाषा में दिमागी बुखार कहते हैं. पांच से 15 साल तक के बच्चों को यह सबसे ज्यादा निशाना बनाता है. बुखार, उल्टी, बेहोशी जैसे लक्षण मिलने के साथ ही 24 से 48 घंटे के भीतर मरीज की मौत हो जाती है.

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अब तक सैकड़ों मरीजों की हुई मौत

वायरस का पहला बड़ा नुकसान 2003 में महाराष्ट्र और गुजरात में बच्चों के बीच देखा गया. 2003 से 2004 के बीच इस वायरस के कारण आंध्र प्रदेश में 329 लोग प्रभावित हुए जिनमें 183 लोगों की मौत हुई. वहीं महाराष्ट्र में 114 और गुजरात में 24 लोगों की मौत हुई. साल 2004 से 2011 के बीच गुजरात में 31 लोगों की मौत हुई जबकि 100 से भी ज्यादा लोग चपेट में आए हैं . 2009 से 2011 के बीच अन्य राज्यों में 16 मौत हुईं.

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कहां पर वायरस का सबसे ज्यादा प्रभाव?

महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों के अलावा छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के सीमावर्ती क्षेत्र, ओडिशा, बिहार और झारखंड के अलावा उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र को एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) बेल्ट कहा जाता है. यहां हर साल बच्चों में दिमागी बुखार के मामले मिलते हैं. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के चलते अब यह वायरस दक्षिण भारत के कर्नाटक और तमिलनाडु में भी प्रसारित होने की आशंका है.

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अब तक कोई प्रभावी वैक्सीन या इलाज उपलब्ध नहीं

एनआईवी के निदेशक डॉ. नवीन कुमार ने बताया कि फेविपिराविर को सेल कल्चर और चूहों पर किए गए प्रयोगों में असरदार पाया गया. इस दवा ने वायरस की प्रजनन दर को काफी हद तक कम किया, जिससे यह संभावित इलाज के रूप में उभरी है. अब रिसर्चर अन्य केमिकल्स की स्क्रीनिंग कर रहे हैं ताकि इससे भी अधिक प्रभावी दवाएं खोजी जा सकें. उन्होंने कहा कि यह खोज चांदीपुरा वायरस के इलाज में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है. अब तक इस वायरस के खिलाफ कोई प्रभावी वैक्सीन या इलाज उपलब्ध नहीं था और इसका असर विशेष रूप से आदिवासी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों पर होता रहा है.

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