अमेरिका के ओरेगॉन में रहने वाले डॉ संदीप सोनी का कविता संग्रह 'पटना टू पोर्टलैंड एक बटोही' हिंदी के जाने-माने हिंद युग्म प्रकाशन से छप कर आया है. यह संग्रह एक बार फिर याद दिलाता है कि हिंदी का प्रवासी साहित्य लगातार समृद्ध हो रहा है और भारत से दूसरी जगहों पर जाकर बस रहे लोग अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए साहित्य की मदद ले रहे हैं. हिंदी में कविता संग्रह आसानी से नहीं छप पाते, इस तथ्य के बावजूद संदीप सोनी के इस संग्रह का प्रकाशन बताता है कि भारत में भी विदेशी पते हाथों-हाथ लेने का चलन बना हुआ है.
बहरहाल, संग्रह की कविताओं पर आएं. इन कविताओं में बीते दिनों की याद है, छूटे हुए घर-परिवार, रिश्तों की कोमल स्मृति है, उन लम्हों को फिर से जीने की ललक है जो ज़िंदगी की आपाधापी में छूटते चले गए, और देश और दुनिया से जुड़े बहुत सारे आदर्शों का भावुक बयान है. चार खंडों में बंटे इस संग्रह का पहला खंड है- भूलती यादें. कहने की ज़रूरत नहीं कि इस खंड की कविताएं पुराने दिनों को याद करती हैं- ‘जाओ / तुम घूमने ज्यूरिख की वादियां / और इटली की गलियां मुझे तो / हर साल / गर्मी की छुट्टियों में / है ननिहाल जाना.‘ कुछ कविताओं में विस्थापन से पैदा होने वाली कचोट और दुविधा भी है जो अच्छे ढंग से व्यक्त हुई है- ‘मैं एक अजीब मिश्रण / पूरब और पश्चिम का / यहां घर वहां घर / यहां बेघर वहां बेघर / हर घर में बेचैन मैं / हर मकान में घर ढूंढ़ता.‘
दूसरा खंड है, ‘सफ़र', तीसरा खंड ‘एक तस्वीर' और चौथा खंड ‘मेरा घर मेरे लोग'. इन अलग-अलग खंडों में कविताओं का मिज़ाज कुछ बदलता है, मगर बुनियादी तौर पर ये अतीत से बंधी भावुक कविताएं हैं.
निश्चय ही ऐसी कविताएं अच्छी लगती हैं, लेकिन ये बहुत प्राथमिक स्तर की कविताएं हैं- ऐसी कविताएं जो शायद हर भावुक हृदय में होती हैं, वह उसे लिखे या न लिखे. बल्कि यह कविता इतनी बार लिखी जा चुकी है कि इसमें कुछ नयापन नहीं लगता. जबकि आज की कविता को स्मृतियों की इस जुगाली से या आदर्शों के ऐसे बखान से आगे जाना होगा. लेकिन आगे जाने का रास्ता क्या है? यह रास्ता कविता के मर्मज्ञ हमेशा बताते रहे हैं. कविता भावनाओं का पहला प्रगटीकरण नहीं है कभी रही होगी, लेकिन वह उससे आगे जा चुकी है. निश्चय ही जब हमारे समय में विस्थापन लगभग वैश्विक प्रक्रिया है और सबकी जड़ें कहीं पीछे छूटती जा रही हैं तो इस पर कविता लिखी जाएगी- लेकिन वह कविता स्मृतियों की जुगाली से भिन्न होगी- या फिर वह कहीं ज़्यादा ठोस होकर अपनी स्थानिकता और अपने बदलाव को अभिव्यक्त करेगी. कवि को ठहर कर कुछ और गहराई से विचार करना होगा- अपनी वेदना का एक सार्वजनिक पक्ष खोजना होगा और यह करते हुए उसे समकालीन और प्रासंगिक भी बनाए रखना होगा.
निस्संदेह इस संग्रह की कविताओं में बयान की ईमानदारी है- कहीं-कहीं मार्मिकता भी. बहुत सारे समकालीन संदर्भ भी हैं. जॉर्ज फ़्लायड की हत्या पर कविता है. झारखंड में तीन साल की बच्ची से हुए रेप की चीख आप इस संग्रह में सुन सकते हैं. मॉब लिंचिंग पर कई कविताएं हैं. सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर दुख भरी कविता है- आत्महत्या के पहले की सिहरन को महसूस करने की कोशिश करती हुई. होली-दशहरा भी इन कविताओं में आते हैं.
लेकिन फिर दुहराना होगा कि ये बिल्कुल प्राथमिक अभिव्यक्तियां हैं जो किसी भी कवि हदय इंसान में संभव हैं. बहुत गहरी तकलीफ़ों को तत्काल बयान नहीं करना चाहिए. उन्हें उलट कर, पलट कर, कुछ
रुककर देखना चाहिए. इससे हम पाते हैं कि कविता की एक और परत उनके भीतर से निकल आई है जो दरअसल ज़िंदगी की परत है जिसे हम अनदेखा करते रहे हैं. कुछ कविताओं में भाषा की बुनियादी चूकें खलती हैं. उम्मीद करें कि संदीप सोनी का अगला संग्रह इससे बेहतर होगा.
किताब : पटना टू पोर्टलैंड एक बटोही
लेखक : डॉ संदीप सोनी
प्रकाशक : हिंद युग्म प्रकाशन
मूल्य : 150 रुपये