फैकल्टी मेंबर के रिसर्च पेपर को लेकर राजनीतिक विवादों में घिरी अशोक यूनिवर्सिटी

बीजेपी के झारखंड से सांसद निशिकांत दूबे ने इस पेपर पर सवाल खड़े कर दिए हैं. उन्होंने लिखा कि बीजेपी से किसी बात को लेकर सहमत ना होना तो फिर भी ठीक है लेकिन इस पेपर में जिस तरह की बात की गई है ये तो समझ से ही परे है.

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नई दिल्ली:

अशोक यूनिवर्सिटी इन दिनों में अपने ही फैकल्टी मेंबर के रिसर्च पेपर को लेकर विवादों में है. इस रिसर्च पेपर को लेकर राजनीतिक बयानबाजी भी शुरू हो गई है. कांग्रेस और बीजेपी अब इसे लेकर आमने सामने दिख रहे हैं. सारा विवाद पेपर, 'डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी' को लेकर है. इस पेपर को यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर सब्यासाची दास ने लिखा है.  

दास ने अपने इस पेपर में लिखा है कि करीबी मुकाबले वाले निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा की असंगत जीत चुनाव के समय पार्टी द्वारा शासित राज्यों में काफी हद तक केंद्रित है. इस तथ्य को लेकर यह तर्क दिया गया है कि मौजूदा पार्टी के जीत मार्जिन वैरिएबल ने शून्य की सीमा मूल्य पर एक असंतत छलांग प्रदर्शित किया है. उन्होंने लिखा कि इसका साफ मतलब यह है कि भाजपा ने उन निर्वाचन क्षेत्रों में असंगत रूप से अधिक जीत हासिल की, जहां वह मौजूदा पार्टी थी या जहां करीबी मुकाबला था.

बता दें कि यह पेपर मुख्य रूप से चुनाव में हेरफेर की आशंकाओं के पक्ष में सबूतों की तलाश करता है. साथ ही यह भी कहा गया है कि चुनाव में होने वाला यह हेरफेर बूथ स्तर पर है. और इसका अर्थ यह भी है कि हेरफेर उन निर्वाचन क्षेत्रों में केंद्रित हो सकता है जहां पर्यवेक्षकों की एक बड़ी हिस्सेदारी है, जो भाजपा शासित राज्यों में सिविल सेवा अधिकारी हैं. 

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इस पेपर को लेकर राजनीतिक बयानबाजी उस वक्त शुरू हो गई जब कांग्रेस एमपी शशि थरूर ने इसे लेकर एक ट्वीट किया और लिखा कि चुनाव आयोग और भारत सरकार के पास क्या कोई जवाब है जो इन तथ्यों का खंडन कर सके. पेश किए गए सबूत किसी स्कॉलर पर राजनीतिक हमले के लिए उपयुक्त नहीं है. ये ठीव वैसे ही है जैसे वोटों की संख्या में विसंगति को स्पष्ट करने की जरूरत है, क्योंकि इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

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उधर, बीजेपी ने इस पूरे रिसर्च पेपर की वैधता पर ही सवाल उठाया है. पार्टी के झारखंड से सांसद निशिकांत दूबे ने इस पेपर को लेकर एक ट्वीट भी किया है. उन्होंने लिखा कि बीजेपी से किसी बात को लेकर सहमत ना होना तो फिर भी ठीक है लेकिन ये जिस तरह की बात की जा रही है ये तो समझ से परे है...कैसे कोई अपने आधे-अधूरे रिसर्च को लेकर देश की चुनाव प्रक्रिया पर ही सवाल खडे़ कर सकता है ? कोई यूनिवर्सिटी से ये कैसे करने दे सकती है ? हमें इसमें जवाब चाहिए ये कोई अच्छा रिस्पांस नहीं है. 

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इस पूरे मामले को लेकर अब यूनिवर्सीट ने एक स्टेटमेंट जारी किया है. इसे अभी तक पूरा नहीं किया गया है. इसे किसी अकादमिक जर्नल में प्रकाशित भी नहीं किया गया है, और अशोक फैकल्टी, छात्रों या कर्मचारियों द्वारा अपनी व्यक्तिगत क्षमता में सोशल मीडिया गतिविधि या सार्वजनिक सक्रियता यूनिवर्सिटी के रुख तो निर्धारित नहीं करती है. 

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यूनिवर्सिटी द्वारा जारी स्टेटमेंट में कहा गया है कि अशोक यूनिवर्सिटी अपने एक फैकल्टी सदस्य के हालिया पेपर और उसकी सामग्री पर विश्वविद्यालय की स्थिति के बारे में अटकलों और हो रही बहस से निराश है. रिकॉर्ड के तौर पर, अशोक यूनिवर्सिटी भारत के बेहतरीन विश्वविद्यालय के निर्माण, सामाजिक प्रभाव पैदा करने और राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के दृष्टिकोण के साथ कई विषयों में शिक्षण और अनुसंधान में उत्कृष्टता पर केंद्रित है.

विश्वविद्यालय अपने 160 से अधिक फैकल्टी सदस्यों को अनुसंधान करने के लिए प्रोत्साहित करता है, लेकिन व्यक्तिगत फैकल्टी सदस्यों द्वारा विशिष्ट अनुसंधान परियोजनाओं को निर्देशित या अनुमोदित नहीं करता है. अशोक यूनिवर्सिटी उस शोध को महत्व देते हैं जिसकी समीक्षकों द्वारा समीक्षा की गई हो और जिसे प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया हो.

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