बालटाल (जम्मू-कश्मीर): दक्षिण कश्मीर के हिमालयी क्षेत्र में स्थित पवित्र गुफा मंदिर के लिए वार्षिक अमरनाथ यात्रा हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के एक जीवंत उदाहरण के रूप में नजर आ रही है, जहां स्थानीय लोगों ने न सिर्फ शिव भक्तों का स्वागत किया बल्कि हजारों की तादाद में पहुंचे श्रद्धालुओं की यात्रा में मदद भी कर रहे हैं.
जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक माहौल और शेष हिस्सों में सुरक्षा परिदृश्य से इतर साल दर साल स्थानीय मुसलमानों का श्रद्धालुओं की सुगम यात्रा में सहयोग महत्वपूर्ण रहा है. मुसलमान, यात्रियों के रुकने के लिए तंबू लगाते हैं और जो लोग बाबा बर्फानी (प्राकृतिक रूप से बनने वाले बर्फ के शिवलिंग) के 3888 मीटर ऊंचाई पर बने मंदिर के मुश्किल पथ की यात्रा नहीं कर सकते हैं उनके लिए पालकी और खच्चर सेवा मुहैया कराते हैं. इसके अलावा किसी भी आपात स्थिति में मदद के लिए सबसे पहले पहुंचने वाले लोगों में यह (स्थानीय मुसलमान) शामिल होते हैं.
यह सेवाएं आर्थिक पहलू के लिहाज से कही ज्यादा पारंपरिक सामुदायिक सद्भाव को दर्शाती हैं. यात्रा कर रहे साधु नागराज ने यहां कहा, “जरूरी इंतजाम और दूसरी चीजें, जिनकी हमें जरूरत होती है, उसका ध्यान हमारे मुस्लिम भाइयों द्वारा रखा जाता है. साफ-सफाई से लेकर प्रसाद, खच्चर, पालकी सभी तरह की मदद स्थानीय मुस्लिमों द्वारा की जाती है. यह दुनिया के लिए भाईचारे का एक उदाहरण है.”
उन्होंने कहा, “मुझे दुनिया के किसी कोने में इससे अच्छा भाईचारे का उदाहरण नहीं दिखा और मैं पूरे भारत की यात्रा कर चुका हूं.” श्रद्धालुओं के सामान की देखभाल करने वाले एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा कि वह बरसों पुराने इस भाईचारे की खातिर बिल्कुल मुफ्त सेवाएं मुहैया कराते हैं. उन्होंने कहा, “हम यहां यात्रियों के लिए आते हैं. हम यहां उनके बैग, कैमरा, मोबाइल फोन को अपने पास रखते हैं और मुफ्त में उनकी देखभाल करते हैं. यह हमारा भाईचारा है. हम कश्मीरियत को जिंदा रखे हुए हैं.”
मुसलमानों से मिल रहे सहयोग पर संतुष्टि जाहिर करते हुए एक श्रद्धालु ने कहा कि यात्रा को सफल बनाने में स्थानीय लोगों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. यात्री ने कहा, “स्थानीय लोगों ने व्यापक सहयोग दिया है. उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. अगर हम उनसे कोई एक चीज मांगते हैं तो वह दो देते हैं.”
स्थानीय लोगों के लिए यात्रा उनके जीवनयापन का एक अवसर भी है. इस 25 किलोमीटर की यात्रा में एक श्रद्धालु का बैग पिट्ठू पर टांगकर साथ चलने वाले व्यक्ति ने कहा, “हम यहां तब आते हैं, जब यात्रा शुरू होती है. हम पवित्र मंदिर तक यात्रियों का बैग लेकर अपनी महीने की आजीविका कमाते हैं और वापस आ जाते हैं. यात्री भारी भरकम बैग लेकर नहीं चल सकते तो हम उनके लिए ये भार उठाते हैं.”
पालकी पर यात्रियों को ले जाने वाले एक और सेवादार ने कहा, “हम श्रद्धालुओं को खासतौर पर बुजुर्गों को पालकी में ले जाते हैं. हम उन्हें अपने कंधे पर उठाते हैं. यह हमारे लिए आजीविका कमाने का एक अवसर भी है.” बहुत से स्थानीय निवासी यात्रा को हिंदू-मुस्लिम एकता का भी संकेत मानते हैं. एक स्थानीय व्यक्ति का कहना है, “हम मुसलमान, हिंदू समुदाय के लोगों की मदद करते हैं. ये हमारी एकता का प्रतीक है.”
एक और स्थानीय निवासी ने देशभर के हिंदुओं से यात्रा के लिए आने का आह्वान किया और कहा कि कश्मीर में किसी प्रकार का खतरा या परेशानी नहीं है. उसने कहा, “हम आपके स्वागत के लिए तैयार हैं और हर संभव मदद करेंगे.”