जब शाम हो जाती है तब ख़त्म होता है मेरा काम जब काम ख़त्म होता है... तब शाम ख़त्म होती है

आज हम आपको साहित्य में रघुवीर सहाय संचयिता पुस्तक से उनकी चर्चित कविताओं में से एक 'कोई एक और मतदाता' की पंक्तियां लेकर आए हैं, जो राजनैतिक दलों के लिए आम आदमी केवल एक वोटर मात्र है, जिसकी कीमत उसे कई बार अपनी जान पर खेलकर भी चुकानी पड़ती है.  

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रोज़ कम खाते-खाते ऊबकर प्रेमी-प्रेमिका एक पत्र लिख दे गए सूचना विभाग को....

Hindi Kavita Raghuvir Sahay : आधुनिक हिंदी कविता के प्रमुख कवि, अनुवादक,अपनी पत्रकारिता और कहानियों के लिए भी प्रसिद्ध रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसंबर 1929 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ था. सहाय जी ने प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद मास्टर्स की डिग्री अंग्रेजी साहित्य में लखनऊ यूनिवर्सिटी से किया. आपको बता दें कि रघुवीर सहाय समकालीन हिंदी कविता के संवेदनशील ‘नागर' चेहरा माने जाते हैं. 

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आधुनिक कविता के प्रमुख सहाय लंबे समय से आकाशवाणी, नवभारत टाइम्स, दिनमान, प्रतीक, कल्पना, वाक आदि पत्र-पत्रिकाओं के साथ पत्रकारिता, साहित्यिक पत्रकारिता और संपादन से जुड़े रहे.

इनका प्रवेश कविता की दुनिया में 1951 में 'दूसरा सप्तक' से हुआ.  कविताओं के अलावे उन्होंने कहानी, निबंध और अनुवाद विधा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.  उनकी कविता कहानियों में खबरों की भाषा की झलक आपको जरूर मिलेगी. कविता-संग्रह ‘लोग भूल गए हैं' के लिए उन्हें 1984 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.

आज हम आपको साहित्य में रघुवीर सहाय संचयिता पुस्तक से उनकी चर्चित कविताओं में से एक 'कोई एक और मतदाता' की पंक्तियां लेकर आए हैं, जिसमें आम आदमी जो कि एक मतदाता भी है उसकी पीड़ा को दर्शाया गया है.

कोई एक और मतदाता

जब शाम हो जाती है तब ख़त्म होता है मेरा काम
जब काम ख़त्म होता है तब शाम ख़त्म होती है

रात तक दम तोड़ देता है परिवार
मेरा नहीं एक और मतदाता का संसार

रोज़ कम खाते-खाते ऊबकर
प्रेमी-प्रेमिका एक पत्र लिख दे गए सूचना विभाग को

दिन-रात साँस लेता है ट्रांजिस्टर लिए हुए ख़ुशनसीब ख़ुशीराम
फ़ुर्सत में अन्याय सहते में मस्त

स्मृतियाँ खँखोलता हकलाता बतलाता सवेरे
अख़बार में उसके लिए ख़ास करके एक पृष्ठ पर दुम

हिलाता संपादक एक पर गुरगुराता है।
एक दिन आख़िरकार दुपहर में छुरे से मारा गया ख़ुशीराम

वह अशुभ दिन था; कोई राजनीति का मसला
देश में उस वक़्त पेश नहीं था। ख़ुशीराम बन नहीं

सका क़त्ल का मसला, बदचलनी का बना, उसने
जैसा किया वैसा भरा

इतना दुख मैं देख नहीं सकता।
कितना अच्छा था छायावादी

एक दुख लेकर वह एक गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी

हर दुख का कारण वह पहचान लेता था
कितना महान था गीतकार

जो दुख के मारे अपनी जान लेता था
कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में

जहाँ सदा मरता है एक और मतदाता।

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