जीवन की सच्चाई बयां करती 'अज्ञेय' की कविता 'मन बहुत सोचता है...'

अज्ञेय जी ने अपने यात्रा वृतांत, अनुवाद, आलोचना, संस्मरण, डायरी, विचार-गद्य एवं नाटक से भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है.

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शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले, पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए!

Hindi Kavita : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' जी ने कवि-कथाकार और अनुवादक के रूप में हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. जिसके लिए उन्हें साल 1978 में भारतीय साहित्य जगत में दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया. आपको बता दें कि अज्ञेय जी को यह सम्मान उनकी कविता संग्रह ‘कितनी नावों में कितनी बार' के लिए दिया गया था. इससे पहले अज्ञेय जी को 'आँगन के पार द्वार' के लिए साल 1964 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका था. 

आपको बता दें कि अज्ञेय जी का जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई, जहां उन्हें संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, बांग्ला भाषा और साहित्य की शिक्षा प्राप्त की. हिंदी साहित्य में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन की बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कवि, संपादक, ललित-निबंधकार और उपन्यासकार के रूप में पहचान कायम है. इसके साथ ही उन्होंने अपने यात्रा वृतांत, अनुवाद, आलोचना, संस्मरण, डायरी, विचार-गद्य एवं नाटक से भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है. आज हम आपको उनकी कविता संकलन 'सन्नाटे का छंद' से कुछ पंक्तियां आपके लिए लेकर आए हैं जो जीवन की सच्चाई को बखूबी बयां करती हैं...

'मन बहुत सोचता है'

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाव सहा कैसे जाए!

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,
खुली घास में दौड़ती मेघ-छायाएँ,

पहाड़ी नदी : पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,

सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो—

इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो, न हो,

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए!

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