harishankar parsai ki kavita: हरिशंकर परसाई की कविता, जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूं मैं ?

Harishankar Parsai ki Kavita: हरिशंकर परसाई का लेखन व्यंग्य को एक साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ.

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नई दिल्ली:

Harishankar Parsai ki Kavita: हरिशंकर परसाई का लेखन व्यंग्य को एक साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ. सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक गलतियां पर आधारित उनकी रचनाएं व्यंग्य साहित्य की दिशा में बढ़ते गए. समाज में व्याप्त पाखंड, भ्रष्टाचार और बेईमानी जैसे मुद्दों पर परसाई के व्यंग्य लेख साहित्य को एक प्रखर सामाजिक माध्यम के रूप में प्रस्तुत करते हैं. उनके व्यंग्य केवल हास्य पैदा नहीं करते, बल्कि गलतियों के विरुद्ध चेतना जागृत करते हैं. उनकी विविध रचनाएं बदलाव की भावना को जन्म देती हैं और आदर्श मूल्यों की स्थापना का प्रस्ताव करती हैं.

किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको
नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको
ले निराला मार्ग उस पर सींच जल कांटे उगाता
और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता

शूल से है प्यार मुझको,फूल पर कैसे चलूं मैं?
बांध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो
और तम से हारकर चुपचाप सिर धुनता रहे जो
जगत को उस दीप का सीमित निबल जीवन सुहाता
यह धधकता रूप मेरा विश्व में भय ही जगाता

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प्रलय की ज्वाला लिए हूं, दीप बन कैसे जलूं मैं?
जग दिखाता है मुझे रे राह मंदिर और मठ की
एक प्रतिमा में जहां विश्वास की हर सांस अटकी
चाहता हूँ भावना की भेंट मैं कर दूं अभी तो
सोच लूँ पाषान में भी प्राण जागेंगे कभी तो

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पर स्वयं भगवान हूँ, इस सत्य को कैसे छलूं मैं?

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