आजम खान की रिहाई से क्या नया मोड़ लेगी यूपी की सियासत

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संजीव कुमार मिश्र

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव आजम खान 23 महीने बाद सीतापुर जेल से रिहा हुए. आजम खान की रिहाई यूपी की राजनीति के लिहाज से बड़ा घटनाक्रम है. यह राजनीतिक क्षितिज पर एक बड़े बदलाव का संकेत है. इलाहाबाद हाईकोर्ट से सभी 95 मामलों में जमानत मिलने के बाद हुई रिहाई ने कार्यकर्ताओं में तो जोश भरा ही है सूबे की राजनीति में हलचल भी पैदा कर दी है. आजम खान की रिहाई एक कानूनी प्रक्रिया से आगे जाकर प्रदेश की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत है. इसकी गूंज 2027 के विधानसभा चुनाव में सुनाई देगी.

यूपी की राजनीति में आजम खान का कद

आजम खान दशकों तक उत्तर प्रदेश की मुस्लिम राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा रहे हैं. उनका सियासी सफर 1976 में जनता पार्टी (सेक्युलर) से शुरू हुआ था. साल 1980 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद, उन्होंने रामपुर को अपना अभेद्य राजनीतिक गढ़ बना लिया. वहां से वे 10 बार विधायक चुने गए. वो उत्तर प्रदेश सरकार में पांच बार कैबिनेट मंत्री बने. समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य आजम खान ने संस्थापक मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर 'मुस्लिम-यादव' (MY) समीकरण को मजबूत किया. आजम खान की मुखर और तीखी बयानबाजी ने उन्हें मुस्लिम समुदाय के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक बना दिया, लेकिन यही मुखरता अक्सर विवादों का कारण भी बनी. एक समय था जब रामपुर में आजम खान की 'तूती बोलती' थी और उनका वर्चस्व निर्विवाद था. 

योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार के आने के बाद आजम खान के राजनीतिक प्रभाव पर ग्रहण लगना शुरू हो गया. उन पर एक के बाद एक मामले दर्ज किए गए. अकेले रामपुर में उन पर 90 से अधिक मामले दर्ज हैं. इन मुकदमों का दायरा जमीन हड़पने, सरकारी संपत्ति पर कब्जा, फर्जीवाड़े से लेकर बकरी और भैंस चोरी जैसे आरोपों तक फैला हुआ था. खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इन कार्रवाइयों को 'गंदगी साफ करने' और 'वायरस' को खत्म करने जैसा बताया था. 

यूपी में आजम की सियासी जमीन 

यह भी सच है कि रामपुर की राजनीति में आजम खान और उनके परिवार की पकड़ अब पहले के मुकाबले काफी कमजोर हो गई है. कभी यहां उनकी तूती बोलती थी, लेकिन कानूनी शिकंजे और परिवार के जेल जाने के बाद सब कुछ बदल गया है. अब न आजम खान, न उनके बेटे अब्दुल्ला आजम और न ही उनकी पत्नी तंजीम फातिमा किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं. आजम खान के जेल जाने से रामपुर की पूरी सियासत पर से उनका नियंत्रण खत्म हो गया है. एक समय था जब रामपुर में आजम खान की मर्जी के बिना समाजवादी पार्टी (सपा) का पत्ता तक नहीं हिलता था. वह खुद रामपुर से विधायक थे, उनके बेटे अब्दुल्ला आजम स्वार टांडा से विधायक थे और तंजीम फातिमा राज्यसभा सांसद थीं, लेकिन अब स्थितियां बिल्कुल उलट हैं.

मौजूदा हालात में रामपुर के सांसद मोहबुल्लाह नदवी जरूर सपा से हैं, पर उन्हें आजम खान के विरोधी खेमे का माना जाता है. दरअसल, सपा चाहती थी कि आजम के किसी करीबी को टिकट दिया जाए, लेकिन अखिलेश यादव ने नदवी को मौका दिया. आजम खान की अपनी रामपुर विधानसभा सीट पर बीजेपी का कब्जा है, वहीं स्वार टांडा पर अपना दल (एस) ने जीत दर्ज की थी.

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आजम खान की रिहाई की खबर ने तत्काल सियासी हलचल पैदा कर दी. सीतापुर जेल के बाहर और रामपुर में उनके समर्थक ढोल-नगाड़ों के साथ जश्न मनाने को तैयार थे. यह उत्साह इस बात का सबूत है कि उनके समर्थक उन्हें अब भी मुसलमानों का 'मसीहा' मानते हैं. 

आजम खान और सपा के रिश्ते

वरिष्ठ पत्रकार संतोष कुमार पांडेय कहते हैं कि आजम खान उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के चर्चित नेता हैं. खान 23 महीने बाद जेल से बाहर आए हैं. योगी सरकार यह संदेश देना चाहती है कि उत्तर प्रदेश में कुछ भी मनमानी नहीं हो रही है बल्कि सब कुछ कानून के तहत हो रहा है. आजम खान के साथ सपा कितना करीब दिखेगी इस पर सब की नजरें टिकी हुई हैं. आजम खान का परिवार राजनीतिक तौर पर क्या रणनीति बनाता है, यह तस्वीर अभी साफ नहीं है. आजम खान बाहर तो आ गए हैं लेकिन सियासत अभी बाहर आनी बाकी रह गई है.

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आजम खान के जेल में रहने के दौरान सपा नेतृत्व से उनकी कथित नाराजगी की खबरें भी सामने आईं. उनके समर्थकों का आरोप है कि अखिलेश यादव ने उनकी रिहाई के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए. आजम खान ने जेल से एक 'लेटर बम' भी जारी किया था, जिसमें उन्होंने 'इंडिया गठबंधन' पर मुस्लिम समुदाय को केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था. हालांकि, अखिलेश यादव ने भी रिश्तों को साधने की कोशिश की थी. उन्होंने मुरादाबाद उपचुनाव के दौरान आजम से मुलाकात की थी. आजम खान के दबाव में ही उन्होंने अपने मौजूदा सांसद एसटी हसन का टिकट काटकर उनकी पसंद की उम्मीदवार रुचि वीरा को टिकट दिया था. वहीं, सपा नेता शिवपाल यादव ने रिहाई के बाद जोर देकर कहा कि आजम खान कहीं नहीं जाएंगे और सपा पूरी तरह से उनके साथ खड़ी है. आजम की वापसी से सपा की हालिया 'पीडीए' (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) रणनीति को और मजबूती मिल सकती है.

बसपा की बेकरारी क्या कह रही है

बसपा के एकमात्र विधायक उमाशंकर सिंह की ओर से आजम खान को अपनी पार्टी में शामिल होने का न्योता देना एक सोची-समझी रणनीतिक चाल है. 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर 10 फीसदी से नीचे चला गया था. वह एक भी सीट नहीं जीत पाई. इस निराशाजनक प्रदर्शन के बाद, बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपनी पार्टी के जनाधार को वापस लाने के लिए 13 साल बाद 'भाईचारा कमेटियां' फिर से शुरू की हैं. इन कमेटियों का उद्देश्य दलितों, अति पिछड़ी जातियों और मुसलमानों को एकजुट करना है. आजम खान को दिया गया यह न्योता सपा के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने और सपा के भीतर कलह पैदा करने का एक सीधा प्रयास है.

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उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय की आबादी लगभग 19 फीसदी है, जो उन्हें चुनावी रूप से एक निर्णायक शक्ति बनाता है. पारंपरिक रूप से, मुस्लिम मतदाता उस पार्टी को वोट देते थे जो बीजेपी को हराने के लिए सबसे मजबूत मानी जाती थी. आजम खान की वापसी निश्चित रूप से उनके कोर वोट बेस को एकजुट करेगी. हालांकि, यह संभावना अधिक है कि उनकी वापसी से मुस्लिम वोट एकजुट होने के बजाय, सपा और बसपा के बीच बंट सकते हैं. बसपा द्वारा आजम को दिया गया न्योता और सपा के साथ उनके मतभेद, दोनों दलों के बीच मुस्लिम वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा को बढ़ाएंगे. इस बिखराव का सीधा लाभ बीजेपी को होगा, जो अपने हिंदू वोट बैंक और गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक को और मजबूत कर सकती है.

अब क्या होगी बीजेपी की रणनीति

आजम खान पर लगे 100 से अधिक मुकदमों को योगी सरकार ने अपने 'माफिया-विरोधी' अभियान का हिस्सा बताया था. अब उनकी रिहाई बीजेपी के लिए एक दोहरी धार वाली तलवार है. एक ओर, यह विपक्षी वोटों के बिखराव का कारण बन सकता है, इससे बीजेपी को लाभ होगा. दूसरी ओर, आजम खान की वापसी बीजेपी को राजनीतिक ध्रुवीकरण को फिर से बढ़ाने का एक अवसर भी मिलेगा. उनके भड़काऊ बयानों का इतिहास, जैसे सूर्य नमस्कार पर टिप्पणी या मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित बयान, बीजेपी को अपने 'राष्ट्रवाद' के एजेंडे को और मजबूत करने का मौका देंगे.

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कुल मिलाकर, आजम खान की रिहाई ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अनिश्चितता और बेचैनी का एक नया दौर शुरू कर दिया है. यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या आजम एक बार फिर अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस पाएंगे या उनका प्रभाव केवल रामपुर तक ही सीमित रहेगा. क्या सपा-बसपा की लड़ाई का लाभ बीजेपी को मिलेगा?

अस्वीकरण: लेखक देश की राजनीति पर पैनी नजर रखते हैं. वो राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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