NEET के रिजल्ट में कथित गड़बड़ी को लेकर देशभर में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं. स्टूडेंट कई स्तरों पर गड़बड़ियों का आरोप लगाते हुए फिर से एग्जाम लेने की मांग कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी इससे जुड़ी याचिका पर सुनवाई के दौरान सख्त टिप्पणी की. सवाल है कि आज परीक्षाओं में 100% शुचिता की बात क्यों की जा रही है?
क्या चल रहा है?
देशभर में अभी जैसा माहौल है, वह आंखें खोलने वाला है. छोटे-बड़े हर न्यूज चैनल पर NEET के रिजल्ट की चर्चा. टेस्ट लेने वाली एजेंसी- NTA की ओर उठती अनगिनत अंगुलियां. फिलहाल मामला देश की सबसे बड़ी अदालत में है. लेकिन कोर्ट की टिप्पणी गौर करने लायक है. अदालत ने कहा कि अगर किसी की ओर से 0.001% भी लापरवाही हुई है, तो इससे पूरी तरह निपटा जाना चाहिए. यह भी कहा कि बच्चों ने परीक्षा की तैयारी की है, हम उनकी मेहनत को नहीं भूल सकते. लेकिन ये सारी एकदम बुनियादी बातें हैं. कोर्ट को यह सब याद क्यों दिलाना पड़ रहा है?
बच्चों की मेहनत का सवाल
जहां तक मेहनत का सवाल है, वह तो आज के दौर में नर्सरी और केजी से ही शुरू जाती है. गर्दन और कमर पर बोझ डालने वाला, लगातार भारी होता बस्ता. एक दिन में 8-8 पीरियड तक झेलने का दबाव. समर वेकेशन में भी दुनियाभर के असाइनमेंट और प्रोजेक्ट वर्क का लोड. सारी कवायद सिर्फ इसलिए कि ज्यादातर मां-बाप को यकीन होता है कि बच्चे को कामयाब बनाना है, तो इन्हें अभी से रेस में झोंकना होगा. ये जाने-समझे बिना कि कामयाबी कहते किसे हैं.
बड़े बच्चों की रेस तो और ज्यादा भयावह होती जा रही है. न जाने हमारी शिक्षा-व्यवस्था में कहां कमी रह गई है कि बच्चों को करियर बनाने के लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट का सहारा लेना पड़ता है! आज कोटा एक सिंबल बन चुका है- एक 'फैक्टरी' का. क्षमताओं और महत्त्वाकांक्षाओं के बीच जोर-आजमाइश का. सपनों में रंग भरने या इसके टूटकर बिखरने का. यहां तक कोई दिक्कत नहीं. दिक्कत तब शुरू होती है, जब इतनी कच्ची उमर में बच्चे अपने या अपनों के सपनों को सांसों की डोर से बांधने पर आमादा हो जाते हैं!
यही वजह रही होगी कि आज अदालत को याद दिलाना पड़ रहा है कि बच्चों की मेहनत के मायने क्या हैं. एक नंबर कम या ज्यादा, एक रैंक नीचे या ऊपर का मतलब क्या है.
नंबर-गेम और ग्रेडिंग सिस्टम
बच्चों के बीच स्वस्थ स्पर्धा तो हो, पर गैरजरूरी होड़ा-होड़ी न हो. एक-दूसरे से आगे निकलने की ललक हो, पर दिमाग पर इसका बोझ हावी न हो. मोटे तौर पर इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर कई बोर्डों में ग्रेडिंग सिस्टम लाया गया. क्लास में रैंक क्या है, यह भी रिपोर्ट कार्ड में छुपाया जाने लगा. सबकुछ इसलिए कि नंबर-गेम के बीच कहीं पढ़ाई-लिखाई का असली मकसद खो न जाए.
हां, आगे चलकर एक ऐसी स्थिति जरूर आती है, जहां एक-एक अंक पर हजारों-हजार उम्मीदवार खड़े होते हैं. एक-एक रैंक पर भविष्य बनने या बिगड़ने की संभावना मौजूद होती है. इसी को कॉम्पिटिशन कहते हैं. और अगर किसी बड़ी प्रतियोगिता में, किसी प्रतिष्ठित परीक्षा में गड़बड़ी की आशंका पैदा हो जाए तो? ऐसी स्थिति में ही कोर्ट को कहना पड़ता है कि अगर 0.001% भी लापरवाही हुई है, तो इससे निपटा जाना चाहिए.
क्या टेस्ट लेने वाली किसी एजेंसी से इतनी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वह टेस्ट और इसके रिजल्ट की गंभीरता को समझकर अपना काम करे?
पेपर लीक का शोर
प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक होने की खबरें अक्सर दिख जाती हैं. कोई जरूरी नहीं कि हर बार पेपर लीक की बात सच ही निकले. लेकिन ऐसा भी नहीं कि हर परीक्षा फुलप्रूफ हो गई हो. ताजा मामला UGC NET का है. 18 जून को परीक्षा हुई और 19 जून को रद्द. वजह वही- पेपर लीक. आगे की जांच का जिम्मा CBI को सौंपा गया है. NEET का मामला फिलहाल कुछ राज्यों की पुलिस और कोर्ट के बीच है. सबकुछ इस पर निर्भर करता है कि जांच करने वाली एजेंसी अदालत में किस स्तर का सबूत पेश कर पाती है.
पेपर लीक की बीमारी तब और ज्यादा घातक हो जाती है, जब परीक्षा आयोजित करने वाला संस्थान अपनी किरकिरी से बचने के लिए, जान-बूझकर सबूतों की अनदेखी करता नजर आता है. ऐसे में परीक्षार्थियों को अदालत का रुख करना पड़ता है. छात्रों का जो समय पढ़ाई में लगना चाहिए, वह मुकदमेबाजी और जहां-तहां विरोध प्रदर्शनों में चला जाता है.
इसी चरम बिंदु पर आकर अदालत को परीक्षाओं में 'शुचिता' बरतने की बात कहनी पड़ती है. उसे यह कहना पड़ता है कि अगर कहीं रंचमात्र की भी कमी रह गई है, तो उसे सुधारिए.
अनुभवों की पाठशाला
हालांकि किसी स्टूडेंट के साथ किस-किस स्तर पर भेदभाव हो सकता है, इसका अंदाजा उसे 10वीं की परीक्षा पास करते-करते हो जाया करता है. किस टीचर ने साइड से ट्यूशन लेने वाले अपने चहेते छात्रों को गलत तरीके से ज्यादा नंबर दिए, किसने अपने करीबी छात्रों को परीक्षा से पहले ही 'प्रसाद' बांट दिए, किसने रिजल्ट तैयार करते समय 'बाजीगरी' दिखला दी, बच्चे इसे ताउम्र भूलते नहीं.
आगे चलकर बच्चे समाज में पैसे और रसूख की ताकत से भी अच्छी तरह वाकिफ हो चुके होते हैं. और जब धुआं उठता है, तो इन्हें यह विश्वास दिलाना मुश्किल हो जाता है कि उनकी परीक्षाएं फुलप्रूफ हैं. ऐसे में अदालत अगर 'शुचिता' और पारदर्शिता का सवाल उठाए, तो इसमें अचरज की क्या बात है?
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.