राष्ट्र के नाम संदेश. संदेश भले राष्ट्र के नाम पर था, था दरअसल प्रधानमंत्री के नाम ही. और उनके नाम संदेश यह था कि अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के लिए तथ्यों को इधर-उधर कर तर्क गढ़ने से भले ग़लती छिप जाती है लेकिन हमेशा के लिए ओझल नहीं होती है. जब जब पर्दा हटता है तब तब ग़लती दिखाई दे जाती है. राष्ट्र के नाम संदेश से यही हुआ. काश कोई इंटरनेट का महारथी प्रमाणिक रूप से पकड़ पाता कि मौजूदा टीका अभियान की नाकामी को छिपाने के लिए पल्स पोलियो का उदाहरण सबसे पहले कब और कहां पर अवतरित होता है. तो आपको दिलचस्प जानकारी मिलती कि कैसे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से शुरू हुआ एक लॉजिक बीजेपी के नेताओं के बयान से होते हुए प्रधानमंत्री के भाषण तक पहुंचता है. तो आपको दिखेगा कि तर्क और तथ्य गढ़ने की प्रक्रिया क्या है और कैसे सभी एक लाइन में नज़र आते हैं. सब एक बात बोलते हैं. कई बार तर्क ऊपर से चलता हुआ नीचे जाता है लेकिन इस मामले में तर्क नीचे से होता हुआ राष्ट्र के नाम संदेश में पहुंचा है. यानी तर्क का ट्रायल पहले कर लिया जाता है फिर उसके बाद भाषण का डोज़ दिया जाता है. मैं यह तो नहीं बता सकता कि प्रधानमंत्री का भाषण कौन लिखता है लेकिन उनके भाषण में कुछ बातें कहां से चल कर आईं हैं उन रास्तों पर आपको ज़रूर ले जा सकता हूं.
ये कुछ फेसबुक पेज हैं जिनके नाम आज की राष्ट्रीय राजनीति के अनुकूल रखे गए हैं. कट्टर हिंदु हो तो ज्वाइन करो, भगवा ए हिंद, WE SUPPORT NARENDRA MODI, We Support Namo, we support BJP india, अबकी बार फिर योगी सरकार 2022(भगवा की शान), हिन्दू धर्म संसद, हिंदुओं की शान योगी-देश की पहचान मोदी, अखंड भारत, देश की पुकार हिंदू राष्ट्र, पप्पू के राजनीतिक व्यंग्य इस तरह के कई फेसबुक पेज बने हुए हैं जिनसे समझा जा सकता है कि बीजेपी और हिन्दुत्व के समर्थक हैं. इन पन्नों पर पहली बार पल्स पोलियो का तर्क अवतरित होता है. अपियर होता है. पहली बार किस तारीख को आता है यह तो बताना मुश्किल है लेकिन 19 मई के आस-पास से यह तर्क ज़ोर पकड़ता है. RSS राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ फेसबुक पेज है, संघ का आधिकारिक पेज नहीं है ये लेकिन इस पेज पर लिखा है कि “जिनके बाप दादा ने पोलियो की दो बूंद पिलाने मे 25 साल से ज्यादा लगा दिये! वो कहते है 6 महीने मे सबको वैक्सीन लग जाये!!” 23 मई का यह पोस्ट है. दस दिन के बाद 29 मई को बीजेपी सांसद सुशील मोदी ट्वीट करते हैं कि जिन्हें पोलियो का टीका देने में 25 साल लगे, वे कोरोना के टीकाकरण पर फैला रहे भ्रम. सुशील मोदी का यह बयान अख़बार में भी छपता है. कोरोना के टीका अभियान की जब पोल खुलने लगी और नाकामी के किस्सों से सोशल मीडिया के पेज भरने लगे तब शायद पल्स पोलिया का यह तर्क लाया गया कि 25 साल लग गए. यही तर्क राष्ट्र के नाम संदेश में जगह बनाता है. जब प्रधानमंत्री पिछली सरकारों के टीका अभियान की तुलना अपने अंदाज़ में करते हैं. आप प्रधानमंत्री के बयान का वह हिस्सा सुनेंगे तो लगेगा कि भाषण से पहले किस किस किताब का अध्ययन किया गया होगा.
“आप पिछले 50-60 साल का इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा कि भारत को विदेशों से वैक्सीन प्राप्त करने में दशकों लग जाते थे. विदेशों में वैक्सीन का काम पूरा हो जाता था तब भी हमारे देश में वैक्सीनेशन का काम शुरू भी नहीं हो पाता था. पोलियो की वैक्सीन हो, Smallpox जहां गांव में हम इसको चेचक कहते हैं. चेचक की वैक्सीन हो, हेपिटाइटिस बी की वैक्सीन हो, इनके लिए देशवासियों ने दशकों तक इंतज़ार किया था.”
तो आपने देखा कि कैसे इस तर्क का ट्रायल एक महीना पहले से हो रहा था और अंत में राष्ट्र के नाम संदेश में बूस्टर शॉट का रूप लेता है. जो तर्क योगी और मोदी समर्थकों के फेसबुक पेज पर पहले से मौजूद थे उसी तर्क के सहारे प्रधानमंत्री अपनी बात की शुरूआत करते हैं. किसी समाजशास्त्री को इसका अध्ययन करना चाहिए कि कैसे एक तर्क का पहले प्रसार किया जाता है फिर सुप्रीम लीडर उसे अपने भाषण में जगह देते हैं. इस तरह नीचे फैलाए जा रहे कुतर्कों का राष्ट्रीयकरण हो जाता है. कुतर्क इसलिए कहा कि आप पल्स पोलियो अभियान की तुलना कोरोना वायरस के टीका अभियान से नहीं कर सकते. पल्स पोलियो अभियान पर अलग से बात होगी क्योंकि समय कम है. एंकर की क्षमता बहुत सीमित है. संसाधन भी. बहरहाल जो समझ में आया उसके आधार पर कुछ बातें बेहद स्पष्टता से रख सकता हूं.
पहली बात पल्स पोलियो की नाकामी या कामयाबी दोनों की तुलना कोरोना के टीका अभियान से नहीं की जा सकती. पल्स पोलियो का अभियान उन्मूलीकरण था. उन्मूलन मतलब जड़ से मिटा देने का अभियान. किसी ज़िले में 90 प्रतिशत कवरेज के बाद भी असफल माना जाता था जबकि कोरोना के टीका अभियान में 20 प्रतिशत कवरेज पर भी छाती फुलाई जाने लगती है. Do you get my point. पल्स पोलियो में कवरेज को भी सौ फीसदी होना था और जड़ से भी मिटाना था. कोरोना के टीका अभियान में इस तरह के दावे नहीं हैं. जड़ से मिटाने का दावा नहीं हो सकता. दिसंबर में तो मोदी सरकार ने कहा था कि सबको टीका देने का टारगेट नहीं है. अभी 18 साल से ऊपर की बात हो रही है. पोलियो में 0-5 साल के देश में मौजूद सभी बच्चों को टीका देना था. पल्स पोलियो में शुरू से ही सौ फीसदी टारगेट की बात थी. पल्स पोलियो का समय कुछ और था. असंख्य वालंटियर पैदल गांवों में जाते थे. नावों में सवार होकर जाते थे. कई साल तक उनके पास मोबाइल फोन तक नहीं होता था. कोरोना के टीका अभियान के समय टेक्नालजी से लेकर संसाधन के आधार बदल चुके थे. पल्स पोलियो के समय विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक सर्वेलांस टीम थी जो चेक करती थी किसी इलाके में कोई बच्चा टीका से छूट तो नहीं गया है. कहीं कोई पोलियो का केस तो नहीं आया है. हंगामा मच जाता था कि पोलियो का एक केस मिला है. पल्स पोलियो के अभियान में किसी को सर्टिफिकेट नहीं मिलता था और न ही उस पर प्रधानमंत्री का चेहरा होता था. बल्कि समाज के प्रभावशाली लोग जैसे सचिन तेंदुलकर अमिताभ बच्चन और आमिर खान जैसे लोग इसके ब्रांड अंबेसडर होते थे.
इसलिए पल्स पोलियो की चुनौतियों और उस दौर से तुलना आज के दौर से नहीं की जानी चाहिए. पल्स पोलियो अभियान बेमिसाल अभियान था. पूरी दुनिया में इसका उदाहरण दिया जाता है. इसके आधार पर कई देशो में टीका अभियान बनाए गए हैं. अफसोस कि आज कोरोना की घोर नाकामी और झूठ पर पर्दा डालने के लिए पल्स पोलियो को नाकामी के रूप में पेश किया जा रहा है. चूंकि एक घोर असफल अभियान की पोल खुल रही थी इसलिए दशकों की मेहनत से हासिल पल्स पोलियो की सफलता को असफल बताने का लॉजिक गढ़ा गया जिसे व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने घर घर पहुंचा दिया. आपने भी देखा था कि बिना वेबसाइट में आधार कार्ड का नंबर दिए पोलियो वाली दीदी घर आ जाती थी तब भी आप मानने लगे कि वो असफल अभियान था.
अब आधार कार्ड का नंबर देकर भी डेट नहीं मिलता है और टीका केंद्र पर जाकर भी टीका नहीं मिलता है तो वो हकीकत दिखाई नहीं देती है. आप देख रहे हैं, कई कई दिनों से इंतज़ार कर रहे हैं कि टीका नहीं है, लेकिन अभियान शुरू हो चुका है, दुनिया का सबसे बड़ा अभियान बताया जा चुका है, लेकिन आप भरोसा कर रहे हैं व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के फालतू लॉजिक पर. प्रोपेगैंडा के इसी भरोसे के कारण हमारी आंखों के सामने लाखों लोग मर गए लेकिन सरकार ने धूल झोंक कर बताया कि कुछ सौ मरे हैं. आलम यह है कि अखबार बता रहे हैं कि मरने वालों की संख्या का सरकारी दावा झूठ है. सत्य से बहुत दूर है लेकिन आपको राहत इस बात से मिल रही है कि पल्स पोलियो फेल था. आप नागरिक उस फेल विद्यार्थी की तरह है जो इसी बात से खुश होता है कि इस बार का रिजल्ट खराब था और बहुत बच्चे फेल हुए हैं. इसलिए आपको मरने वालों की संख्या छिपाने वाली बात में कुछ भी गलत नहीं लगा.
घर में शब्दकोश हो तो ग़ैरत का मतलब खोजिएगा. किस तरह जब ग़ैरत यानी आत्मसम्मान ख़त्म हो जाती है तो नागरिक मुर्दा हो जाता है. सिम्पल इंग्लिश में बता रहा हूं. तभी यहां का नागरिक समाज इस बात से नॉर्मल हो चुका है कि मरने वालों की सही संख्या नहीं बताई जा रही है. बहरहाल हम बात कर रहे हैं पोलियो और कोरोना के टीका अभियान की तुलना की. जो की ही नहीं जा सकती. उनका ज़िक्र कर आज की नाकामी की जवाबदेही से नहीं बचा जा सकता है.
“हमारे देश ने, देश के वैज्ञानिकों ने ये दिखा दिया कि भारत बड़े बड़े देशों से पीछे नहीं है. आज जब मैं आपसे बात कर रहा हूं तो देश में 23 करोड़ से ज्यादा वैक्सीन की डोज़ दी जा चुकी हैं.”
भाषण सुनकर लगेगा कि पल्स पोलियो एक नकारा अभियान था. इस वक्त कोई बड़ी कामयाबी हासिल की जा रही है. जो बात प्रधानमंत्री और आईटी सेल ने नहीं बताई उसे बता रहा हूं. 2013 मार्च में ग्लोबल हेल्थ साइन्स एंड प्रैक्टिस जर्नल में एक पेपर छपा था. इसमें बताया गया है कि 1998 में भारत ने एक दिन में 13.4 करोड़ बच्चों को पोलियो का ड्रॉप दिया था एक दिन में. 2011 में दो दिनों के राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान के तहत 23 लाख टीका लगाने वाले कार्यकर्ताओं ने कुल 17.2 करोड़ बच्चों को टीका दिया था. फरवरी 2012 की NDTV की रिपोर्ट है. दो दिनों के राष्ट्रीय अभियान के तहत 17 करोड़ बच्चों को पोलियो का टीका दिया गया.
क्या आप अब भी पल्स पोलियो को खराब बताना चाहेंगे. दो दिन में 17.2 करोड़ बच्चों को इस देश में ड्राप दिया गया है. ये हमारा रिकार्ड है. आज की सरकार होती तो पोलियो ड्राप की दोनों बूंदों को जोड़ कर बताती कि 34 करोड़ से अधिक ड्राप दिए गए. बच्चों की नहीं ड्राप की संख्या बताती. व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से बाहर निकलिए. देखिए कि खराब तैयारी के कारण आपके अपने किस तरह मार दिए गए. अस्पताल में आक्सीजन की सप्लाई बंद हो गई थी. बेड नहीं मिल रहे थे तब भी कोई कैसे कह सकता है कि हमारी तैयारी थी. 10 साल पहले भारत ने दो दिन में 17 करोड़ बच्चों को पोलियो ड्राप देने की क्षमता हासिल कर ली थी. तब जब डिजिटल इंडिया नहीं था. दशकों मेहनत से भारत ने इतना बड़ा नेटवर्क तैयार कर लिया था कि दो दिन में 17 करोड़ बच्चों को पोलियो ड्राप दिए गए. Just imagine in english. or if you like, imagine it in Bangla. Bangla is a great language for imagining hard reality. seriously. क्या पोलियो टीका से जुड़े नेटवर्क का इस्तमाल हुआ इस टीका अभियान में? उनके किसी एक्सपर्ट से पूछा गया? हम नहीं जानते. कहीं आपने चर्चा सुनी. प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि जब टीका नहीं था तब टीका उत्सव का एलान क्यों किया गया और उसका रिज़ल्ट क्या निकला. प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि 143 दिनों में 23 करोड़ डोज़ दिया गया है. कोई तुलना ही नहीं है पिछले टीका अभियानों से. प्रधानमंत्री ने यह नहीं कहा कि कितने करोड़ लोगों को टीका लगा है. बल्कि कहा कि 23 करोड़ डोज़ दिए गए हैं. मुमकिन है इसमें कुछ करोड़ ऐसे भी होंगे जिन्हें दोबारा डोज़ लग चुकी हो. यानी 23 करोड़ से कम लोगों को टीका लगा है. 143 दिनों में टीका अभियान के केंद्र बंद होने लगे. सप्लाई ठप्प होने लगी. इसलिए आलोचना हुई थी. Ourworldindata के अनुसार भारत ने केवल 14 प्रतिशत नागरिकों को पहला डोज़ दिया है और 4 प्रतिशत को दूसरा डोज. अमरीका ने 41.5 आबादी को दोनों डोज़ दे दिया है और 51.1% को पहला डोज़. जर्मनी ने 20.6 प्रतिशत आबादी को दूसरा डोज़ दिया है और 45.1 प्रतिशत को पहला डोज़.
Ourworldindata की वेबसाइट पर दोनों डोज़ देने के हिसाब से दुनिया के देशों की रैकिंग है. इस हिसाब से भारत 111वें स्थान पर है. इसमें कई देश ऐसे हैं जो भारत से बहुत ग़रीब हैं और छोटे हैं लेकिन वे भारत से आगे हैं. जैसे ब्राज़ील, मेक्सिको, पेरू, इंडोनेशिया, आयरलैंड, कोलंबिया, कज़ाकस्तान, बुल्गेरिया और डोमिनिकन रिपब्लिक. आपने देखा होगा आम तौर पर दुनिया की पांच बड़ी अर्थव्यवस्था में भारत के गिने जाने को लेकर ढिंढोरा पीटने वाली सरकार अपनी तुलना टीकाकरण के मामले में अमेरिका, जर्मनी, फ़्रान्स और चीन से नहीं करती है.
“आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर कोरोना की दूसरी वेव से पहले हमारे फ्रंटलाइन वर्कर्स को वैक्सीन नहीं लगी होती तो क्या होता? सोचिए, हमारे डॉक्टर्स, नर्सिंग स्टाफ को वैक्सीन ना लगी तो क्या होता? अस्पतालों में सफाई करने वाले हमारे भाई-बहनों को, एंबुलेंस के हमारे ड्राइवर्स भाई - बहनों को वैक्सीन ना लगी होती तो क्या होता?“
16 जनवरी को जब टीका अभियान शुरू हुआ तो लक्ष्य था कि 1 मार्च तक पहला चरण समाप्त होने तक 3 करोड़ हेल्थ वर्कर को टीका दिया जाएगा. यह अपने आप में बहुत छोटा सा टारगेट था. क्या पूरा हुआ. नहीं पूरा हुआ.
पहला चरण समाप्त होने के डेढ़ महीने बाद टाइम्स आफ इंडिया में सुष्मी डे की रिपोर्ट छपती है जिसमें बताया जाता है कि 19 अप्रैल तक केवल 1 करोड़ 11 लाख हेल्थ वर्कर को ही टीके का दोनों डोज़ दिया जा सका था. लक्ष्य का 37 प्रतिशत. 91 लाख हेल्थ वर्कर को ही पहला डोज़ लगा था. 1 मार्च को पहला चरण खत्म होने के सवा महीने बाद तक सरकार 50% लक्ष्य भी पूरा नहीं कर सकी. यानी सरकार हेल्थ वर्कर को भी पूरी तरह से टीका नहीं दे सकी.
दुनिया का सबसे बड़ा टीका अभियान जब शुरू हुआ तो यह तो पता ही होगा कि टीका बनाने वाली कंपनियां कम हैं. लेकिन उन्हीं कम कंपनियों से कई देशों ने 2020 में ही लाखों करोड़ों डोज़ खरीदने के आर्डर दिए. भारत ने क्यों नहीं दिया. क्या सरकार को पता नहीं था कि भारत की दो कंपनियों के टीका उत्पादन की क्षमता कितनी है. फिर भारत ने इन्हीं दोनों पर भरोसा क्यों किया.
9 मई को सुप्रीम कोर्ट में सरकार में बताया है कि भारत बायोटेक की क्षमता 90 लाख डोज़ की है. जिसे बढ़ा कर 2 करोड़ डोज़ प्रति माह किया गया है. जुलाई 2021 तक उम्मीद है कि प्रति माह 5.5 करोड़ डोज़ उत्पादन करने की क्षमता हो जाएगी. 11 मई को सूत्रों के हवाले से छपी एक खबर में सीरम इंस्टीट्यूट ने सरकार को बताया है कि अगस्त तक 10 करोड़ डोज़ बनने लगेंगे और भारत बायोटेक ने कहा है कि 7.8 करोड़ डोज़ बनने लग जाएंगे.
“आज पूरे विश्व में वैक्सीन के लिए जो मांग है, उसकी तुलना में उत्पादन करने वाले देश और वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां बहुत कम हैं, इनी गिनी है. कल्पना करिए कि अभी हमारे पास भारत में बनी वैक्सीन नहीं होती तो आज भारत जैसे विशाल देश में क्या होता?''
तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने हिसाब मांगा है कि किस टीके का आर्डर कब दिया गया. कितने टीके का आर्डर दिया गया और कब सप्लाई की गारंटी थी, इसका रिकार्ड दें. क्या सरकार ये रिकार्ड कोर्ट के सामने हाज़िर करेगी या कहेगी कि नई नीति बन गई है अब उसके हिसाब से काम होगा. क्या हम पुराने हिसाब का सच कभी जान पाएंगे. दूसरी लहर के ढाई महीनों में जो हाल हुआ है उसकी सच्चाई पूरी तरह से जनता के सामने नहीं है.
“वैक्सीन न लगवाने के लिए भांति-भांति के तर्क प्रचारित किए गए. इन्हें भी देश देख रहा है. जो लोग भी वैक्सीन को लेकर आशंका पैदा कर रहे हैं, अफवाहें फैला रहे हैं, वो भोले-भाले भाई-बहनों के जीवन के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ कर रहे हैं.”
शायद प्रधानमंत्री को याद होगा कि 26 मई को देश में डॉक्टरों की सबसे बड़ी एसोसिएशन IMA ने अपने एक पत्र में उन्हें ऐसी ही अफवाहों के प्रति चेताया था. दरअसल इससे पहले योग टीचर रामदेव का एक बयान सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था जिसमें वो कह रहे थे कि एक हज़ार डॉक्टर कोरोना के टीके की दो डोज़ लेने के बावजूद कोविड से बच नहीं सके. IMA ने इस बयान का हवाला देते हुए कहा था कि टीकों के प्रति अफ़वाह फैलाने वाले ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ बिना देरी किए देशद्रोह के तहत कार्यवाही होनी चाहिए क्योंकि वो सरकार के उपचार के तरीके और टीके के ख़िलाफ़ प्रचार कर रहे हैं. क्या प्रधानमंत्री रामदेव के उस बयान का संज्ञान लेंगे? कार्रवाई कर पाएंगे.
आगरा के श्री पारस अस्पताल को सील कर दिया गया. यहां भर्ती 55 मरीज़ों को दूसरे अस्पताल में शिफ्ट किया गया है. अस्पताल पर महामारी अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है. पिछले साल भी किया गया था लेकिन उसके बाद भी इस साल इस अस्पताल को कोविड अस्पताल का दर्जा दिया गया. अस्पताल के मालिक डॉ अरिजंय जैन का एक वीडियो वायरल हो गया है. उस वीडयो में डॉ अरिंजय जैन साफ साफ कहते सुने जा सकते हैं कि अस्पताल में आक्सीजन खत्म होने वाला था तो हमने देखा कि जिनकी आक्सीजन बंद हो सकती है उन्हें छांटो. मॉक ड्रिल करके देख लो, समझ जाएंगे कौन सा मरेगा और कौन सा नहीं मरेगा. एक मॉक ड्रिल करी और 22 मरीज़ बोल गए. बोल गए का यही मतलब होता है कि मर गए.
“बोले बॉस समझाओ, डिस्चार्ज करना शुरू करो, ऑक्सीजन कहीं नहीं है, मुख्यमंत्री भी ऑक्सीजन नहीं मंगा सकता, मोदीनगर ड्राई हो गया. हमारे हाथ पैर फूल गए. कुछ लोगों को व्यक्तिगत तौर पर समझाना शुरू किया, समझो बात को. कुछ लोग समझदार थे, 4-6 नहीं जाएंगे नहीं जाएंगे. मैंने कहा कोई नहीं जा रहा अब, वह छांटो, जिनकी ऑक्सीजन बंद हो सकती है, एक ट्रायल मार दो दोपहर में, मॉक ड्रिल करके देख लो, समझ जाएंगे कौन सा मरेगा, कौन सा नहीं मरेगा, एक मॉक ड्रिल करी हमने, सुबह 7:00 बजे मॉक ड्रिल हुई, यह किसी को पता नहीं है कि मॉक ड्रिल चलाई. सुन कर दी सबकी, छंट गए 22 मरीज तुरंत तुरंत बोल गए बाल झड़ गए. कितने देर के लिए मॉक ड्रिल किया, 5 मिनट के लिए नीले पढ़ने लगे, यह छंट गए. चलो यह बचे, इन्हें टाइम मिल जाएगा. फिर परिजनों के मरीजों के अपना अपना सिलेंडर लाओ कुछ लोग, सबसे बड़ा प्रयोग ये ही रहा.''
डॉ अरिजंय जैन ने माना है कि वीडियो उन्हीं का है तभी उन्होंने उस आधार पर सफाई दी है. लेकिन जिस तरह से कह रहे हैं वह भयावह है. मॉक ड्रिल होने पर 22 मरीज़ बोल गए का क्या मतलब निकाला जाना चाहिए. आगरा के सीएमओ जांच कर रहे हैं और दो दिन के भीतर रिपोर्ट आने की बात कर रहे हैं लेकिन यह कितनी भयानक बात है. ऐसा कौन सा मॉक ड्रिल 5 मिनट के लिए किया गया कि मरीज़ नीले पड़ने लगे और बोल गए.
डॉ अरिंजय: "जो भी पेंडुलम बने रहे कि नहीं जाएंगे, नहीं जाएंगे. मैंने कहा कोई नहीं जा रहा है. दिमाग मत लगाओ, छोड़ो. अब वो छांटो जिनकी (ऑक्सीजन) बंद हो सकती है."
डॉक्टर के सामने बैठा शख्स: "जो बिल्कुल ही डेड लाइन पर हैं."
ड़ॉ अरिंजय: "एक ट्रायल मार दो. मॉक ड्रिल कर के देख लो कि कौन सा मरेगा, कौन सा नहीं मरेगा?''
डॉ के सामने बैठा शख्स: "सही बात है, सही बात है."
बताइये इस तरह से तो बात हो रही है. डॉक्टर कह रहे है कि दिमाग मत लगाओ, उनको छांटो जिनकी आक्सीजन बंद हो सकती है. एक ट्रायल मार दो. माक ड्रिल करके देख लो कि कौन मरेगा कौन सा नहीं मरेगा. आपने सुना किस तरह से बातें कही जा रही हैं. हमारे सहयोगी नसीम अहमद को डॉ अरिंजय सफाई के नाम पर उर्दू पढ़ा रहे हैं मतलब बोल रहे हैं कि माक ड्रिल का मतलब आक्सीजन की सप्लाई बंद करना नहीं है. उससे कोई नहीं मरा. लेकिन आपने सुना कि वे कह रहे हैं कि पांच मिनट के लिए माक ड्रील किया तो 22 छंट गए.
''यह आरोप गलत है. आक्सीजन बंद करने का आरोप गलत है. प्रयास ही नहीं किया है. पांच सेकेंड के लिए बंद नहीं की गई. न ही वो डेथ हुई है. हमने एक काम किया. जिस दिन आक्सीजन का संकट चल रहा था काफी पेशेंट थे. हर मरीज़ बराबर है. बैठक की. प्रयास किए. कैसे कैटगराइज़ करें. तीन हिस्सों में किया. एक वो थे जिन्हें आक्सीजन की अधिक आवश्यकता थी. उनके फ्लो मीटर चेक कर निकाली गई जिसे मैंने माक ड्रील का नाम दिया. इसका मतलब आक्सीजन बंद कर देना नहीं है. इसका मतलब यह हुआ कि हमें अपने मरीज़ की संख्या के आधार पर आक्सीजन का लोड कैलकुलेट करना है कि कितने मिनिमम सिलेंडर से काम चल जाएगा यानी जो अथारिटी हैं उनसे कितने आक्सीजन सिलेंडर मांगे. जब हमने मरीज़ के आक्सीजन फ्लो चेक किया.''
दोनों वीडियो में डॉ अरिंजय अलग अलग बातें कर रहे हैं. वायरल वीडियो में साफ साफ कह रहे हैं कि पांच मिनट के लिए ट्रायल किया तो मरीज़ बोल गए. सफाई वाले वीडियो में कह रहे हैं कि आक्सीजन पांच सेकेंड के लिए बंद नहीं हुआ. दुनिया में कहीं भी ट्रायल के ज़रिए आक्सीजन लोड नहीं निकाला जाता है. जिस तरह की बात डॉ अरिंजय ने पहले वीडियो में कही है. मरीज़ को आक्सीजन रोककर लोड का पता नहीं लगाया जाता है.
यही नहीं डॉ अरिजंय का दोनों वीडियो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दावे की पोल खोलता है. 25 अप्रैल को मुख्यमंत्री ने कहा था कि ‘प्रदेश के किसी भी कोविड अस्पताल में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है. समस्या कालाबाजारी और जमाखोरी की है, जिससे सख्ती से निपटा जाएगा. हम आईआईटी कानपुर, आईआईएम लखनऊ और आईआईटी बीएचयू के साथ मिलकर ऑक्सीजन का एक ऑडिट करने जा रहे हैं, ताकि इसकी उचित निगरानी हो सके.'लेकिन अरिंजय साफ साफ कह रहे हैं कि आक्सीजन की सप्लाई उनके ही नहीं, दूसरे जिले के अस्पतालों में भी कम हो गई थी. डॉ अरिंजय 26 अप्रैल की बात कर रहे हैं.
“देखिए अप्रैल के तीसरे हफ्ते में मरीज़ों की संख्या बढ़ने के कारण आक्सीजन का संकट देश और प्रदेश में था. जिस दिन ये चरम पर था. उस दिन हम सभी लोग चिन्तित थे. हमने अपने वेंडर से बहुत निवेदन किए कि कुछ भी करिए कि आक्सीजन की आपूर्ति बनी रहे. आईएम के आक्सीजन का ग्रुप था उसमें परेशान को शेयर किया. प्रशासन से शेयर किया. हर अथारिटी को शेयर किया और हर जगह से मदद मिली. लेकिन उस समय मरीज़ों की संख्या बहुत अधिक थी.”
क्या योगी आदित्यनाथ कुछ कहेंगे इस पर. आप नागरिक आईटी सेल के व्हाट्सएप मैसेज में भी रहिए. नागरिकता का बोध इतना खंडहर हो जाएगा कभी नहीं सोचा था. जांच हो रही है. आक्सीजन की कमी हुई थी, इसकी भी होनी चाहिए. आगरा में ही कमी हुई थी या इसी अस्पताल में कमी हुई थी. और जो वीडियो में कहा जा रहा है कि आक्सीजन बंद कर देखा गया इसकी भी. उसकी भी जांच हो.
इस खबर के बाहर आते ही आगरा में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने थाना न्यू नगर आगरा पर प्रदर्शन किया और पारस अस्पताल के मालिक डॉ अरिंजय जैन के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करने की मांग की. प्रियंका गांधी ने अपने ट्वीट में लिखा है कि PM: “मैंने ऑक्सीजन की कमी नहीं होने दी”, CM: "ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं. कमी की अफवाह फैलाने वालों की संपत्ति जब्त होगी.", मंत्री: “मरीजों को जरूरत भर ऑक्सीजन दें. ज्यादा ऑक्सीजन न दें.”आगरा अस्पताल: "ऑक्सीजन खत्म थी. 22 मरीजों की ऑक्सीजन बंद करके मॉकड्रिल की.” कांग्रेस के कार्यकर्ताओ ने पारस अस्पताल के बाहर भी प्रदर्शन किया. अस्पताल के स्टाफ ने भी नारेबाज़ी की. दूसरी तरफ पारस अस्पताल में जिन लोगों के परिजनों की मौत हुई है उन्होंने भी डॉक्टर जैन पर मुकदमा दर्ज करने की मांग की है. एसएसपी को पत्र भी दिया है. अमित चावला ने तो 26 अप्रैल को पिता और 27 को अपनी पत्नी को खो दिया था.
इसलिए बार बार कहता हूं कि पूरे साल हमें उन ढाई महीनों में लौटना होगा. उसमें लोग मरे थे लेकिन मारे भी गए थे. जब तक बार बार नहीं लौटेंगे और झूठ की चादर उठाकर नहीं देखेंगे आगे अपनी ज़िंदगी सुरक्षित नहीं कर सकते. अस्पतालों में किस तरह मजबूर किया गया है कैश लेने का, ज्यादा बिल बनाने का, इसकी कहानी से पर्दा नहीं उठेगा. ये मैं जानता हूं कि उन अस्पतालों का कुछ नहीं होगा. यह जानते हुए भी हर कार्यक्रम में सवाल क्यों उठा रहा हूं. ताकि आप ये सवाल उठाएं. वर्ना मैं जवाब जानता हूं. यही कि आपका कुछ नहीं हो सकता.