एक स्टैंड अप कॉमेडियन वीर दास ने जो कुछ कहा, उस पर इस तरह हायतोबा की जा रही है जैसे दो तरह के भारत का यथार्थ किसी को मालूम नहीं है. जबकि ये दो तरह के भारत लगभग साथ-साथ रहते हैं. जिस फ्लाईओवर के ऊपर से एक भारत की चमकती गाड़ियां गुजरती रहती हैं, उसी फ़्लाई ओवर के नीचे फुटपाथ पर दूसरा भारत सोया रहता है. जिस इमारत में एक भारत तरह-तरह के सूटबूट, टी शर्ट या ऐसे ही स्मार्ट कपड़ों में साफ-सुथरी मेज पर कंप्यूटरों, लैपटॉप के बीच काम करता रहता है, उसी इमारत में दूसरा भारत उसे चाय पहुंचाने, उसके लिए वॉशरूम साफ़ करने, इमारत में लगातार पोछा मार कर उसे चमकाने में लगा रहता है. एक भारत बहुमंजिला इमारतों या कई टावरों वाले अपार्टमेंट्स में बसता है और दूसरा यहां आकर बर्तन मांजता है, गाड़ियां धोता है, अख़बार बांटता है और इस्त्री करता है.
यह बात शायद मैंने कई बार लिखी है कि यूरोप की समृद्धि की वजह दो सौ साल का वह उपनिवेशवाद है, जिसने उन्हें आर्थिक साधन भी दिए और सस्ता श्रम भी. उन्होंने जमकर अपने उपनिवेशों को लूटा. यूरोप की समृद्धि में एशिया, लातीन अमेरिका और अफ़्रीका का पसीना ही नहीं, ख़ून भी शामिल है.
भारत अगर यूरोप जैसा समृद्ध होना चाहता है तो किसे लूटे? उसने अपने ही एक हिस्से को उपनिवेश बना रखा है. 40 करोड़ का भारत 80 करोड़ के भारत को लूट रहा है. इस 40 करोड़ के भारत में अमीर लगातार अमीर हुए जा रहे हैं और गरीब लगातार और गरीब.
लेकिन यह बस आर्थिक आधार नहीं है जो दो भारत बनाता है. सामाजिक आधार पर भी हमारे दो या कई भारत हैं. एक भारत अगड़ी जातियों के अहंकार का भारत है तो दूसरा दलित जातियों की छटपटाहट का. बीच में एक और भारत है जो धीरे-धीरे अपने पिछड़े हितों के लिए खड़ा हो रहा है. एक भारत आदिवासियों-दलितों-मुसलमानों का है, जो किसी भी दूसरी आबादी के मुकाबले कहीं ज़्यादा अनुपात में जेलों में है. एक भारत उन लड़कियों का भी है जो सारी तरक्की और आधुनिकता के बावजूद दिन में डरकर निकलती हैं और शाम ढलते ही घर के भीतर आ जाती हैं. जो लड़कियां इसके बाद भी अकेली घूमती रह सकती हैं, उन्हें बाकी भारत शक और संदेह की नजर से देखता है, हालांकि ऐसी लड़कियां अब तक गिनती की ही होती हैं. उनके लिए रात एक कर्फ्यू का नाम है, जो ताउम्र लगा रहता है.
सच यह है कि यह सिर्फ भारत का सच नहीं है. चीन में भी दो चीन हैं, अमेरिका में भी दो अमेरिका और पाकिस्तान में भी दो पाकिस्तान हैं. यहां तक कि शायद अफगानिस्तान में भी दो अफगानिस्तान हों, या फिर बन रहे हों. दरअसल हुकूमत करने वालों का देश एक होता है और रियासत का देश दूसरा. एक शासक का राष्ट्र होता है और दूसरा शासितों का. शासक के राष्ट्र की सारी सुविधा शासित जन जुटाते हैं. लेकिन जब इस राष्ट्र की आलोचना होती है तो शासक शासितों को उकसाता है कि उनके राष्ट्र का अपमान हो रहा है.
ज्यादातर सरकारें यही खेल करती हैं. वे अपने लिए राष्ट्र बनाती हैं और दूसरों के लिए राष्ट्र का मिथक. वे अपने लिए कानून बनाती हैं और दूसरों के लिए कानून का मिथक. तोड़ते समय वे सारे कानून तोड़ डालती हैं, रोकते हुए वे सारे न्याय रोक सकती हैं. ऐसे शासक गिने-चुने होते हैं, ऐसी सरकारें भी कभी-कभार ही दिखती हैं जो अलग-अलग मुल्कों का यह फासला पाटने की कोशिश करें और सबसे खतरनाक सरकारें वे होती हैं जो खुद को मुल्क मान लेती हैं. सरकार के विरोध को मुल्क का विरोध मान लेती हैं.
कहने की जरूरत नहीं कि हम किस भारत में रहते हैं. हम दोनों तरह के भारत देखते हैं. हम एक भारत के साथ रहते हैं और दूसरे भारत के साथ हमदर्दी जताते हैं. हमारे एक हाथ में कोड़ा होता है और दूसरे हाथ में मलहम. हमारे एक हाथ में लूट की थैली होती है और दूसरे हाथ में मुआवजे का चेक.
वीर दास के कमेंट पर लौटें. लोगों को यह शिकायत नहीं है कि उसने दो भारत का ज़िक्र क्यों किया, यह शिकायत है कि यह काम अमेरिका में क्यों किया. यह फिर से खाते-पीते भारत का पाखंड है. आज की ग्लोबल दुनिया में दिल्ली और वाशिंगटन डीसी के बीच कितनी दूरी है? बल्कि दिल्ली और वाशिंगटन डीसी दो लगते भी नहीं हैं. बहुत सारे भारतीयों के लिए उनकी पसंदीदा राजधानी संभव है दिल्ली की जगह न्यूयॉर्क हो. आखिर इस देश के सबसे मेधावी माने जाने वाले छात्र अमेरिका और यूरोप में ही नौकरी करते हैं और वहीं बस जाते हैं.
इस ढंग से देखें तो दरअसल देश ही दो नहीं हैं, यह पूरी दुनिया भी दो हिस्सों में ही बंटी हुई है. एक हिस्सा अमीरों का है और दूसरा गरीबों का. एक दौर था जब हम दुनिया को तीन हिस्सों में बांटते थे, पहली दुनिया, दूसरी दुनिया और तीसरी दुनिया. ये राजनीतिक विभाजन था, पूंजीवादी और साम्यवादी ख़ानों से दूर हम तीसरी दुनिया के लोग थे. शायद अपने तीसरी दुनिया के होने पर गर्व भी करते थे. मॉस्को तक बेशक बराबरी के अपने सिद्धांत या सपने के चलते कुछ पास नज़र आता था, लेकिन वाशिंगटन डीसी बस दूर नहीं था, एक तरह का दुश्मन भी था. उस समय छपने वाले हिंदी के सस्ते जासूसी उपन्यासों में अमेरिकी-चीनी-पाकिस्तानी और ब्रिटिश जासूस एक तरफ होते थे और रूस और भारत के जासूस दूसरी तरफ़. अमेरिका से मदद लेना सीआइए की मदद लेना माना जाता था.
एक विभाजन आर्थिक भी था- विकसित देशों, विकासशील देशों और अविकसित देशों का. हम ख़ुद को विकासशील देशों में गिनते थे. विकसित होने की कामना थी लेकिन वह अमेरिका जैसा होने की कामना नहीं थी. यह शायद इसलिए था कि तब दो तरह के भारत एक-दूसरे से इतने दूर नहीं थे. पहला भारत ख़ुद को दूसरे भारत के करीब पाता था. धीरे-धीरे लेकिन बदली हुई दुनिया में पहले भारत ने दूसरे भारत से हाथ छुड़ाना शुरू किया- पहला भारत मालिक बनता गया और दूसरा मज़दूर. पहले भारत के सपने बदलते गए. वह ग्लोबल दुनिया की नागरिकता हासिल करने को मचलने लगा. वह विश्वशक्ति होने को बेताब हो उठा. यह सपना उसने अनायास नहीं देखा, उसके नेताओं और उसके धन्ना सेठों ने दिखाया. इस कोशिश में कई बार उसके विश्वशक्ति के हाथ का खिलौना होने का डर होता है.
बहरहाल, अब मामला दो तरह के भारत या तीन तरह की दुनियाओं का नहीं रह गया है. अब जैसे एक ही दुनिया है जिसका मालिक अमेरिका है. हमेशा की तरह कुछ लोग अमेरिका को चुनौती और टक्कर देने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन इन लोगों और मुल्कों में हम नहीं हैं. हम अमेरिका के साथ हैं, शायद इस खुशफहमी में कि अमेरिका के साथ खड़ा होते ही हम अमेरिका जैसे हो जाएंग या अमेरिका हमारी दोस्ती का मान रखेगा. जबकि दुनिया भर का अनुभव यह है कि अमेरिका ने किसी की दोस्ती का मान नहीं रखा है. दरअसल ऐसी अपेक्षा ही अनुचित है. हर मुल्क अपने हित-अहित के हिसाब से अपना पक्ष चुनता है. यह उसकी रणनीतिक कुशलता होती है कि सामने वाला उसे अपने हित के हिसाब से लिया गया फ़ैसला माने.
तो इस अमेरिका में इस भारत का एक नुमाइंदा जाता है और गाता है कि दो तरह के भारत से आया है. इस पर उसके खिलाफ मुकदमा हो जाता है. यह महाशक्ति के बगल में खड़ा होने और महाशक्ति होने को बेताब भारत द्वारा किया गया मुकदमा है. उस भारत द्वारा जिसने बरसों पहले पढ़ना-लिखना, सोचना-विचारना, अपने आसपास देखना छोड़ दिया है. वह बस सूचना तकनीक के संसार में है. वहीं से कमा रहा है, वहीं से खा रहा है और वहीं खर्च रहा है. इन दिनों उसका नया शौक क्रिप्टोकरेंसी है. वह अखबारों में, टीवी चैनलों पर विज्ञापन दे रहा है और गरीबों से भी 100-100 रुपये जुटा ले रहा है. बता रहा है कि यह बहुत ही आसान धंधा है, इसके लिए बहुत पढ़ा-लिखा या जानकार होना जरूरी नहीं है.
दरअसल और ध्यान से देखें तो जिस दो तरह के भारत की हम चर्चा कर रहे हैं, उनमें कई तरह के भारत हैं. लेकिन हर जगह यही नजर आता है कि अमीर भारत पहले गरीब भारत की जेब काटता है और फिर उसके लिए खाना बांटता है. वह पहले किसानों के हित के नाम पर तीन कानून बनाता है और फिर उन्हें किसानों के हित के नाम पर वापस ले लेता है. उसे मालूम है कि कब कहां और किसके हित साधे जाने हैं. बाकी केस-मुक़दमे उनको डराए जाने के लिए हैं जो इस भारत की राह में आते हैं.
बरसों-बरस पहले आतंकवादियों की गोली से मारे जाने से पहले पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश ने लिखा था, 'भारत- मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द. जहां कहीं भी प्रयोग किया जाए. बाक़ी सारे शब्द बेमानी हो जाते हैं. इस शब्द के अर्थ खेतों के उन बेटों में हैं, जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से समय मापते हैं. जब भी कोई समूचे भारत की राष्ट्रीय एकता की बात करता है तो मेरा दिल चाहता है उसकी टोपी हवा में उछाल दूं. उसे बताऊं कि भारत के अर्थ किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं, वर्ण खेतों में दायर हैं जहां अन्न उगता है, जहां सेंध लगती है.'
आज कुर्सी वाला भारत खेतों वाले भारत का भरोसा दिला रहा है कि उसे उसकी फिक्र है. लेकिन खेतों वाले भारत को भरोसा नहीं है. हमें और आपको तय करना है कि हम किस भारत को अपना मानते हैं, हम किस भारत में रहना चाहते हैं, किसको फूलता-फलता देखना चाहते हैं.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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