हमारे एजुकेशन सिस्टम में कहां-कहां 'रॉकेट साइंस' लगाने की जरूरत है?

Advertisement
Amaresh Saurabh

हमारे यहां कौन-सी परीक्षा कैसे ली जाए, यह आज एक बड़ा मुद्दा बन चुका है. सड़क से लेकर संसद तक चर्चा हो रही है. परीक्षाओं में 'रॉकेट साइंस' लगाने की जरूरत पड़ रही है! लेकिन मसले और भी हैं. एजुकेशन सिस्टम में कई जगह 'रॉकेट साइंस' लगाने की दरकार है. कहां-कहां, जरा देखते चलिए.

परीक्षा और रॉकेट साइंस
दरअसल, परीक्षाओं में गड़बड़ियों को लेकर देशभर में शोर मचा, तो एक हाई लेवेल कमेटी बनाई गई. कमेटी की कमान ISRO के पूर्व प्रमुख के हाथों में सौंपी गई. अब जाकर भरोसा जागा कि आगे जो भी होगा, 'नीट' एंड क्लीन होगा. यह कमेटी सुझाव देगी कि परीक्षा लेने के पूरे सिस्टम को दुरुस्त कैसे किया जाए. डेटा सिक्योरिटी के लिए प्रोटोकॉल कैसा हो. खास बात ये कि टेस्टिंग एजेंसी की सूखी धुलाई करने का काम भी इसी कमेटी के जिम्मे है. इसमें कुल सात एक्सपर्ट हैं, लेकिन जहां ISRO का नाम जुड़ गया, वहां और क्या चाहिए?

बहुत-कुछ कॉमन है
वैसे देखा जाए, तो परीक्षा और रॉकेट साइंस में बहुत कुछ कॉमन है. रॉकेट के ईंधन में अगर रत्तीभर भी लीकेज हो जाए, तो लॉन्चिंग कैंसिल. इसी तरह अगर एग्जाम में पेपर लीक, तो परीक्षा कैंसिल. रॉकेट की टेक्नोलॉजी और मिशन से जुड़े डेटा को पूरी तरह गुप्त रखा जाता है. परीक्षा में भी सवालों को लेकर वैसी ही गोपनीयता की दरकार होती है. रॉकेट की लॉन्चिंग में सेकंड-सेकंड का हिसाब रखा जाता है. परीक्षा में भी टिक-टिक करती घड़ी पर नजर रखनी होती है, जिससे आगे चलकर ग्रेस मार्क्स मांगने या बांटने की नौबत न आए. रॉकेट की दुनिया में टेस्ट और ट्रायल कॉमन है. इधर टेस्ट में गड़बड़ी की बू आने पर केस और 'ट्रायल' कॉमन है.

Advertisement

हाजिरी का अद्भुत विज्ञान
क्या हमारे स्कूल-कॉलेजों में अटेंडेंस लेने-देने के तौर-तरीकों में भी रॉकेट साइंस अप्लाई करने की जरूरत है? जी, बिलकुल. ठीक वैसे ही, जैसा कि फिजिक्स के एक प्रोफेसर साहब छात्रों की हाजिरी बनाते समय 'रॉकेट साइंस' लगाया करते थे.

Advertisement

प्रोफेसर साहब का मानना था कि एक बार टीचर बोले- रोल नंबर 1, फिर स्टूडेंट बोले- यस सर. फिर रोल 2, यस सर... इस पूरी प्रक्रिया में टीचर और स्टूडेंट, दोनों को बोलना पड़ता है, जिससे बेकार में दोगुना समय लगता है. जब सबको पता है कि 1 के बाद 2, 2 के बाद 3 वाले को ही बोलना है, तो क्यों न सारे स्टूडेंट खुद ही 1,2,3... गिनती के क्रम में, बारी-बारी से अपना रोल नंबर धड़ाधड़ बोलते चले जाएं. जो अनुपस्थित होगा, वहां गिनती का क्रम टूटेगा. वहां पर प्रोफेसर खुद ही रोल नंबर बोलकर, उसे एब्सेंट मार्क कर देंगे. फिर गिनती आगे बढ़ती चली जाएगी.

Advertisement

उनका यह तरीका सौ फीसदी कारगर था. समय की बेवजह बर्बादी बंद हो गई. मानना पड़ेगा कि 80-90 के दशक में हाजिरी लेने का यह 'रॉकेट साइंस' था. दु:खद बात यह कि इस तरीके को किसी और ने कॉपी नहीं किया.

Advertisement

अटेंडेंस और टेक्नोलॉजी
अगर लगता हो कि अटेंडेंस मार्क करना कोई मामूली काम है, तो जरा बिहार के शिक्षा विभाग का हाल-चाल जान लीजिए. विभाग ने हाल ही में एक नया ऐप लॉन्च किया. नया इसलिए कि पुराना 'फ्लॉप' हो चुका था. शिक्षकों से कहा गया कि अब हर हाल में स्मार्टफोन से ही अपनी हाजिरी बनाइए. अब इस नए ऐप में भी कुछ लोचा निकल आया, सो कइयों की हाजिरी लग नहीं पा रही. टीचर बेचैन, विभाग सख्त.

नतीजा ये हुआ कि पटना जिले के करीब एक हजार स्कूलों के सारे टीचर संडे को भी स्कूल बुला लिए गए. उस दिन सबको सिर्फ एक ही टास्क सौंपा गया- ऐप से हाजिरी बनाइए. ट्राय-ट्राय अगेन! जो कोशिश करते-करते हार जाएं, वे टेक्निकल टीम से ट्रेनिंग लें. इसके लिए बाकायदा ऑफीशियल लेटर निकाला गया. अब जरा बताइए, चंद्रयान वाले देश में अटेंडेंस बनाने के काम में 'रॉकेट साइंस' की जरूरत है कि नहीं?

पुरातन पंथ का मोह
बदलते वक्त के हिसाब से नई तकनीक न अपनाना, पुराने सिस्टम से चिपके रहना कैसा होता है, इसे उदाहरण से समझिए. सिर्फ अपने देश ही नहीं, बल्कि एशिया की कुछ सबसे पुरानी यूनिवर्सिटी में से एक है पीयू- पटना यूनिवर्सिटी. उमर में डीयू से भी बड़ी. पीयू की स्थापना 1917 में हुई, जबकि डीयू की 1922 में. लेकिन दोनों के कामकाज के तौर-तरीकों में भारी फर्क है. डीयू को 'डिजिटल इंडिया' की हवा कब की लग चुकी, पर पीयू की हालत जानकर कोई भी माथा पकड़ ले.

पीयू में छात्रों को किसी भी तरह के सर्टिफिकेट, मार्कशीट या डिग्री लेने के लिए आज भी दशकों पुराने सिस्टम से गुजरना पड़ता है. यानी पहले फॉर्म लीजिए, बैंक चालान कटाइए, फिर एक दूसरा फॉर्म लीजिए, विभाग से साइन कराइए, फिर एक और चालान कटाइए. इतना सब करने के बाद कुछ दिनों तक इंतजार कीजिए. यानी वक्त की बर्बादी और टोटल सरदर्दी.

काश, पीयू और इस जैसे ढंग-ढर्रे वाली यूनिवर्सिटियों को कोई समझा पाता कि ऑनलाइन सिस्टम नाम की भी कोई चीज होती है. डिजिलॉकर, डिजिटल साइन, आधार बेस्ड वेरिफिकेशन, UPI, ऑनलाइन पेमेंट जैसी चीजें अब किसी के लिए हौवा नहीं रह गई हैं. इन्हें अपनाने और वक्त के साथ चलने में दिक्कत क्या है भाई? क्या ये सब बताने के लिए भी ISRO या NASA से एक्सपर्ट बुलाने होंगे?

चाहिए रॉकेट का झटका
रॉकेट अपने पीछे ढेर सारी गैसें तेज गति से छोड़ता है, तभी ऊपर उठ पाता है. इसी तरह कोर्स, परीक्षा और पूरे सिस्टम को अपग्रेड करने लिए कचरा हटाने की जरूरत है. नई शिक्षा नीति के तहत काफी बदलाव किए गए, जो अच्छी बात है. फिर भी कई चीजें खटकती हैं. सरकारी और प्राइवेट संस्थानों के बीच की खाई आज भी चौड़ी है. बस्ता हल्का होने की जगह साल-दर-साल और भारी होता जा रहा है.

मजे की बात देखिए, चिट्ठी-पत्री लिखने का जमाना चला गया, लेकिन स्कूलों में आज भी 'दादाजी के देहांत पर दोस्त को सांत्वना देते हुए पत्र' लिखवाया जाता है. बेहतर होता कि बच्चों को ई-मेल भेजना सिखा देते. या कम से कम सोशल मीडिया पर हंसने और रोने वाले इमोजी का फर्क ही समझा देते. पता नहीं, किसी की मौत पर हंसने वाला रिएक्शन देखकर इसरो वाले क्या सोचते होंगे!

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

Topics mentioned in this article