उत्तराखंड में सड़क विकास परियोजनाओं के नाम पर हो रहा पर्यावरणीय विनाश अब नई बात नहीं रह गई है. फर्क सिर्फ इतना है कि पहले यह धीमी गति से दिखता था और अब चौड़ी सड़कों, गहरी कटिंग और अनियोजित निर्माण की वजह से पहाड़ रोज-रोज खिसकते नजर आते हैं.
जब सड़क ही बन गई मौत का रास्ता
पांच अगस्त 2025 को उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में क्लाउडबर्स्ट ने ऐसा कहर बरपाया कि पूरा इलाका मलबे में दब गया. चार लोगों की मौत हुई और 50 से ज्यादा लोग लापता हो गए. सड़कें ध्वस्त हो गईं, बचाव कार्य घंटों तक ठप रहा. वहीं सोनप्रयाग–गौरीकुंड ऑल वेदर रोड पर भूस्खलन से एक बोलेरो वाहन चपेट में आ गया. हादसे में दो लोगों की मौत हो गई और सात यात्री घायल हो गए. इनमें से तीन की हालत गंभीर है.
आंकड़े साफ इशारा करते हैं कि अब यह महज 'प्राकृतिक आपदा' नहीं बल्कि मानवीय दखल और अवैज्ञानिक इंजीनियरिंग का नतीजा है. उत्तराखंड आपदा न्यूनीकरण और प्रबंधन केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक 2014 से 2020 के बीच राज्य में आई प्राकृतिक आपदाओं में करीब 600 लोगों की जान चली गई.
समस्या पुरानी है, इलाज अधूरा
'नैनीताल समाचार' अखबार में पर्यावरणविद राजीव नयन बहुगुणा ने 1977 में लिखा था कि पहाड़ों से मलबा हटाना वैसा ही है जैसे कोई पेड़ की चोटी पर बैठकर नीचे लगी आग बुझाने की कोशिश करे. आधी सदी बाद भी यही हो रहा है, सतही सफाई, लेकिन समस्या की जड़ जस की तस.
साल 2016 में शुरू हुई चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना इस संकट को और गहरा कर गई. इसका उद्घाटन करते हुए दावा किया गया था कि अब सड़कें हर मौसम में खुली रहेंगी. लेकिन हुआ इसका उलटा, भूस्खलन और बढ़े, पहाड़ और अस्थिर हुए.
'नैनीताल समाचार' अखबार के संपादक राजीव लोचन साह बताते हैं कि एक बार भूगर्भशास्त्री प्रोफेसर खड्ग सिंह वल्दिया ने एक व्याख्यान में कहा था कि जब बड़ी-बड़ी गाड़ियां, ट्रक और बसें पहाड़ के इन कमजोर रास्तों पर चलती हैं तो भी धरती की पुरानी दरारें माइक्रो भूकंपों से थरथराती हैं. हर रोज लाखों की संख्या में उठने वाले ये माइक्रो भूकंप पहाड़ों को कमजोर करते चले जाते हैं.
विशेषज्ञों की चेतावनी और भूगोल को नजरअंदाज किया गया
हिमालयी भूविज्ञानी डॉक्टर नवीन जुयाल, सुप्रीम कोर्ट की हाई पावर कमिटी के सदस्य रह चुके हैं. उनका मानना है कि निश्चित तौर पर केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना ऑल वेदर रोड की वजह से भूस्खलन बढ़े हैं. पहाड़ों की भूगर्भीय संरचना को नजरअंदाज कर इन सड़कों का निर्माण किया जा रहा है. तेजी से सड़क बनाने के चक्कर में पहाड़ में सड़क बनाने वाली तकनीक का सही इस्तेमाल नहीं किया गया है. सड़क निर्माण में जल निकासी आवश्यक होती है, पर उसे नजरंदाज किया गया. वो कहते हैं कि हिमालय में जगह-जगह अलग-अलग प्रकार की चट्टानें होती हैं, उन पर अध्ययन किए बिना सब जगह सड़क बनाने के लिए एक ही तरीका इस्तेमाल किया जाता है. टनकपुर-सुखीढांग इलाके में जमीन के नीचे होने वाली किसी भी हलचल का सबसे ज्यादा असर पड़ता है पर इसे भी खोद दिया गया है. वहां पर भारी भूस्खलन के रूप में इसका परिणाम हमारे सामने है.
उन्होंने यह भी कहा कि हाई पावर कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि चारधाम परियोजना के अवैज्ञानिक और अनियोजित क्रियान्वयन से हिमालय के इकोसिस्टम को नुकसान पहुंचा है और भूस्खलन जैसी आपदाओं को बुलावा दिया जा रहा है.
पर्यावरणविद और कमेटी के अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने 2022 में कमेटी से इस्तीफा दे दिया था. उन्होंने साफ कहा कि हिमालय की भौगोलिक और पारिस्थितिक संवेदनशीलता की अनदेखी हो रही है और समिति प्रभावी रूप से हस्तक्षेप करने में विफल रही है. उनकी सिफारिश थी कि सड़क की चौड़ाई 5 मीटर से ज़्यादा न रखी जाए, ताकि पहाड़ों पर दबाव कम हो. लेकिन सरकार ने 10 मीटर तक चौड़ी सड़क बनाने का निर्णय लिया. रवि चोपड़ा ने तब कहा था कि प्रकृति बार-बार खतरे की घंटी बजा रही है. अगर अब भी नहीं चेते तो परिणाम भयावह होंगे.
इतिहास से सबक और नैनीताल का उदाहरण
नैनीताल का इतिहास बताता है कि गलत इंजीनियरिंग क्या तबाही ला सकती है और सही इंजीनियरिंग कैसे उसे रोक सकती है. ब्रिटिश काल में 1867, 1880, 1898 और 1924 में भयानक भूस्खलन हुए. 1880 में तो 151 लोग मारे गए थे. इसके बाद से ब्रिटिश प्रशासन ने 'हिल साइड सेफ्टी कमेटी' बनाई और मजबूत नाला व्यवस्था विकसित की. इसका नतीजा यह हुआ कि नैनीताल में आज भी रिकॉर्ड बारिश के बावजूद बड़े भूस्खलन कम होते हैं. यानी समस्या पहाड़ नहीं, गलत निर्माण है.
पहाड़ों में सड़क निर्माण की सही तकनीक
पर्यावरण के मुद्दों में सालों से गहरी नज़र रखते आ रहे वरिष्ठ पत्रकार विनोद पांडे बताते हैं कि पहले पहाड़ों में सड़कें 'कट एंड फिल' तकनीक से बनती थीं. सड़क बनाने के लिए पहाड़ काटकर सड़क के लिए आधा हिस्सा छोड़ा जाता था. आधे में उसी के मलबे की दीवार दी जाती थी. हल्द्वानी-नैनीताल रोड इसका उदाहरण है.
जेसीबी आने के बाद से इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया. पहाड़ काटकर उसका मलबा सड़क पर कहीं भी बेतरतीब तरीके से फेंक दिया जाता है. वो मलबा नीचे बह रही नदियों पर गिरता है. इससे जल प्रवाह में विघ्न आता है. सड़क बनाते समय पानी की निकासी का ध्यान भी नहीं दिया जाता और बाद में पानी अपना रास्ता खुद बनाते हुए भारी नुकसान करती जाती है.
देहरादून निवासी अमित का सोनप्रयाग में होटल है. वह इस बार परिवार के साथ केदारनाथ यात्रा पर भी गए थे. अमित ने बताया कि ऑल वेदर रोड बनने के बाद से फायदे कम नुकसान ज्यादा हुए हैं. पहले सड़क नीचे से टूटती थी अब ऊपर से पहाड़ टूट कर सड़क पर आ रहा है. उन्होंने कहा कि ऋषिकेश से केदारनाथ मार्ग में कम से कम दस जगहें हैं, जो खतरनाक हैं. कौड़ियाला और सिरोबगड़ इन खतरनाक जगहों में शामिल हैं.
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